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Tomb of Sand: 'रेत समाधि' के बहाने हिंदी साहित्य की दुनिया में ताकाझांकी

रेत समाधि के इंग्लिश अनुवाद को बुकर मिल गया. लेकिन, अपने ही देश का प्रतिष्ठित पुरस्कार क्यों नहीं मिला?

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भारतीय लेखिका गीतांजलि श्री (Geetanjali Shree) के उपन्यास 'रेत समाधि' का अंग्रेजी में अनुवादित उपन्यास 'टॉम्ब ऑफ सैंड' इस साल अंतरराष्ट्रीय बुकर प्राइज (Booker Prize) प्राप्त कर हिंदी साहित्य में उम्मीद जगा गया है. किसी भारतीय हिन्दी भाषा की अंग्रेजी में अनुवादित की गई किताब को बुकर पुरस्कार मिला है, यह पहली बार हुआ है और इस बहाने साहित्यिक समाज को चर्चा में आने का मौका भी मिला है.

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भारतीय हमेशा से पढ़ने के शौकीन रहे हैं. उपभोक्ता आंकड़ों पर नजर रखने वाली वेबसाइट स्टेटिस्टा के अनुसार भारतीय पाठक प्रति सप्ताह औसतन नौ घण्टे किताब पढ़ते हैं, यह आंकड़े अन्य कई देशों के पाठकों से अधिक हैं.

अधिक किताब पढ़े जाने की वजह से भारतीय प्रकाशन उद्योग भी बहुत बड़ा है. ईवाई इंडिया के अनुसार भारत में प्रकाशन उद्योग साल 2024 तक 800 बिलियन रुपए के आसपास होगा और ये भारतीय फिल्म उद्योग के साल 2022 में 182 बिलियन रुपए से कहीं ज्यादा है.

सबसे अधिक पढ़ी जाती है हिंदी

भारत में हिंदी प्रकाशकों की संख्या जानना चाहें तो pustak.org वेबसाइट में लगभग 500 प्रकाशकों की लिस्ट है.

यह तो तय है कि पिछले कुछ सालों से हिंदी किताबों का बाजार बढ़ा है, अमेजन पर साल 2015 के अक्टूबर में लगभग तीस हजार हिंदी किताबें उपलब्ध थी, आज यह संख्या पचास हजार है. हिंदी ईबुक्स की संख्याओं की बात करें तो अमेजन पर इस समय लगभग तीस हजार ईबुक्स मौजूद हैं.

कुकुएफएम जैसी बहुत सी वेबसाइटें इस समय हिंदी ऑडियोबुक का ऑप्शन भी दे रही हैं, इनमें भी लगभग एक हजार किताबें ऑडियोबुक के रुप में उपलब्ध हैं.

भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) द्वारा मार्च 2020 में भारत के मीडिया और मनोरंजन सेक्टर पर जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हिंदी मैगजीन और अखबार अन्य भाषाओं से अधिक पढ़े जाते हैं.

किताबों को लेकर भारतीयों के रुख का पश्चिम बंगाल की राजधानी में इस साल फरवरी-मार्च में आयोजित हुए 45वें अंतरराष्ट्रीय कोलकाता पुस्तक मेले से पहचाना जा सकता है,जहां पर रोजाना औसतन एक लाख लोग आए.

रेत समाधि के बाद उत्साह में भारतीय बुक सेलर

शैलेश की 'द बुक शॉप' नाम से दिल्ली के मुखर्जीनगर पोस्ट ऑफिस के पास पंद्रह सालों से किताबों की दुकान है, वह कहते हैं रेत समाधि के बाद लोगों को लगने लगा है कि हिंदी किताबों को दुनिया में पहचान मिल रही है. मेरी शॉप की भी दस प्रतिशत बिक्री बढ़ी हैं. मुझे लगता है कि इस किताब के बाद हिंदी किताबों की स्थिति में सुधार आएगा.

1965 से पटना विश्वविद्यालय के सामने अनुपम प्रकाशन नाम से किताबों की दुकान चलाने वाले गौरव अरोड़ा कहते हैं बुकर मिलने के बाद रेत समाधि बहुत बिकी पर अब धीरे-धीरे उसकी बिक्री कम होने लगी है. बाकी बहुत सी किताबों को लेकर लोगों में उत्साह बना हुआ है.

साल 1986 से चल रहे 'अल्मोड़ा किताब घर' के जयमित्र सिंह बिष्ट कहते हैं कि रेत समाधि को बुकर मिलने के बाद शॉप में आने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है, लोगों में सभी किताबों को लेकर रुझान बढ़ा है.

प्रकाशकों की गहरी बातें

काव्यांश प्रकाशन के प्रबोध उनियाल बताते हैं, यह तो तय है कि विश्व भर में हिंदी के पाठक अंग्रेजी के पाठकों से ज्यादा नहीं है या यह कह लें कि वह उस तरह से दिखते नहीं हैं. प्रकाशक पर भी निर्भर करता है कि वह किस लेखक को छाप रहा है, उनका लेखक के प्रचार को लेकर एक बड़ा नेटवर्क रहता है और इसका लाभ लेखक को भी मिलता है.

किताबों की बिक्री व किताब का लोकप्रिय होना, दोनों अलग बातें हैं. अंग्रेजी के प्रकाशकों का प्रचार तंत्र भी पूरी आभा के साथ रहता है लेकिन इधर हिंदी के प्रकाशकों में ये कमी दिखती है. रेत समाधि भी इसका एक उदाहरण है.

हाल ही में 'बब्बन कार्बोनेट' और 'गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल' जैसी लोकप्रिय किताबें प्रकाशित करने वाले नवारुण प्रकाशन के संजय जोशी कहते हैं कि...

फ्लिपकार्ट ,अमेजन जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म वजह से प्रकाशक और पाठकों के लिए सुविधा हुई है.
संजय जोशी, नवारुण प्रकाशन

जब एक बड़ा नेटवर्क आपकी किताब का प्रचार करता है तो उसका फायदा तो मिलता ही है. इसका एक फायदा यह भी हुआ कि प्रकाशक वितरकों के चंगुल से मुक्त हुए हैं क्योंकि ऑनलाइन माध्यमों का हिसाब किताब पक्का रहता है.

हिंदी किताबों की नई रीडरशिप उभरी है, जैसे हमारे प्रकाशन ने 'मैं एक कारसेवक था' किताब छापी और उसका तीन साल के अंदर चौथा संस्करण आने वाला है. उसकी डिमांड बनी हुई है यह किताब अंग्रेजी, तमिल, मलयालम ,मराठी में भी छपी. जो प्रकाशक नए विषयों को नए पाठकों तक पहुंचा रहे हैं वह पीछे नहीं है.
संजय जोशी, नवारुण प्रकाशन

रॉयल्टी के सवाल पर संजय कहते हैं रॉयल्टी प्रकाशक और लेखक की प्रतिष्ठा का हिस्सा है. अगर प्रकाशक ने किसी पांडुलिपि को स्वीकृत किया है तो उसको इतना विश्वास होना चाहिए कि इसकी प्रतियां बिकेंगी. समय से रॉयल्टी मिलने पर लेखक भी खुश होंगे ही.

रेत समाधि को बुकर मिलने के बाद हिंदी की अच्छी किताबों की खोज होगी, साथ ही दूसरी भाषा में पढ़ने वाले भी हिंदी किताब ढूंढेंगे. निश्चित तौर पर हिंदी का प्रकाशन मजबूत हुआ है और उसका आत्मविश्वास बढ़ा है.

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क्या कहते हैं लेखक

बॉलीवुड अभिनेता मनोज बाजपेयी की आजकल चर्चित होती जीवनी 'मनोज बाजपेयी: कुछ पाने की जिद' किताब लिखने वाले पीयूष पांडे कहते हैं कि...

रेत समाधि को बुकर पुरस्कार मिलना हिन्दी समाज के लिए गर्व की बात है और मुझे लगता है कि इस अवॉर्ड से विदेशों में हिन्दी का विस्तार होगा. हिन्दी भाषा के उपन्यासों में कुछ लोगों की दिलचस्पी बढ़ेगी.
पीयूष पांडे, लेखक

लेकिन, देश में हिन्दी पाठक अचानक बुकर पुरस्कार की वजह से हिन्दी लेखकों को गंभीरता से लेंगे या हिन्दी किताबों को खरीदकर पढ़ने में दिलचस्पी दिखाएंगे, इसमें मुझे शक है. क्योंकि, अधिकांश पाठकों और मीडिया के लिए हिन्दी साहित्य हाशिए पर है.

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों में टीआरपी नहीं दिखती. यही वजह है कि मन्नू भंडारी के निधन पर उनकी खबर टीवी चैनलों पर नहीं दिखती और रेत समाधि को बुकर एक हेडलाइन में सिमट जाता है. हिन्दी पाठक भी सिर्फ उन्हीं किताबों को पढ़ना चाहते हैं, जिनकी चर्चा हो जाती है पर इस मोर्चे पर सभी किताबों को सफलता नही मिल पाती.

इसके अलावा, अंग्रेजी के लेखक अपने आप मे जिस तरह के ब्रांड बने हैं, हिन्दी में वैसा नही है. यही वजह है कि हिन्दी के ज्यादातर लेखक पार्ट टाइम लेखन करते हैं, जबकि अंग्रेजी में फुलटाइम लेखक भी हैं.

रेत समाधि का एक लाभ ये अवश्य मिलेगा कि कुछ हिन्दी उपन्यासों और पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद होगा. रेत समाधि जिस तरह लिखी गई है, उसमें बुकर का लाभ ये भी हो सकता है कि प्रकाशक अलग तरह से लिखी पुस्तकों को प्रकाशित करने में हिचकेंगे नहीं.

'ये मन बंजारा रे' किताब की लेखिका गीता गैरोला कहती हैं कि....

रेत समाधि के बाद हिन्दी के लेखकों में हलचल तो है. हिंदी किताबों का अनुवाद करने वाला कोई बेहतर विदेशी साहित्यकार हो तो किताबों को बुकर मिल सकता है. अनुवाद होने बहुत जरूरी है उनसे ही साहित्य का आदान प्रदान होता है. महिला लेखिका पहले सिर्फ महिलाओं की समस्याओं पर लिखती थी, पर अब वह हर विषय पर लिखने लगी हैं.
गीता गैरोला, लेखिका
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हिंदी साहित्य के विकास पर अड़ंगा

युवा किताबों से दूर और सोशल मीडिया, गेम्स के पास आ रहा है. लोग सोशल मीडिया पर कहते हैं कि हम किताब खरीदेंगे पर लेते नहीं, साथ ही हिंदी भाषा अपने ही देश में उपेक्षा का शिकार है.

एक हिंदी किताब के अनुवाद को बुकर मिल गया पर उसी हिंदी किताब को देश के प्रतिष्ठित पुरस्कार क्यों नही मिले, यह बड़ा सवाल है.

अखबारों ने पुस्तक समीक्षाओं को ज्यादा जगह देना बंद कर दिया है और वह अपनी पसंद की विचारधारा वाली किताबों या विशेष नामों को ही बढ़ावा देते हैं.

हिंदी के लेखकों के लिए माहौल ऐसा बना दिया गया है कि उनके द्वारा अपने लिखे के पैसे मांगना, उनका लालची होना माना जाता है.

किताबों को बढ़ावा देने के लिए जगह-जगह में ऐसे मंच तैयार करने होंगे जहां किताबों पर चर्चा हो और उनके प्रचार प्रसार की योजना बनाई जाए.

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