भोपाल गैस त्रासदी के 31 साल पूरे चुके हैं. 3 दिसंबर 1984 को मध्य प्रदेश का भोपाल शहर एक नहीं, बल्कि दो औद्योगिक हादसे का शिकार हुआ था. सरकारी कागजों में दर्ज पहला हादसा साल 1984 में 2-3 दिसंबर की रात को लीक हुई जहरीली गैस थी.
जबकि दूसरा हादसा गैस लीक होने के बाद फैली बीमारियां और पर्यावरण दूषित होने की थी.
भोपाल ग्रुप ऑफ इंर्फोमेशन एंड एक्शन के सतिनाथ सारंगी ने द क्विंट को बताया कि यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड नाम की पेस्टीसाइड फैक्ट्री से रिसने वाली जहरीली गैस के प्रभाव को अभी भी देखा जा सकता है.
उनका कहना है कि “जीवन के लिए अभी भी खतरा बना हुआ है”
सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के वैज्ञानिक मूल्यांकन की याचिका को किया खारिज
सारंगी कहते हैं कि सरकारें कार्रवाई करने में नाकाम रही हैं. भोपाल ग्रुप ऑफ इंर्फोमेशन एंड एक्शन जैसे संगठनों ने भोपाल के पर्यावरण, विषैलापन और जहर के फैलने का स्वतंत्र मूल्यांकन करने के लिए संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) से आग्रह किया था. लेकिन यूएनईपी ने कहा कि यह केवल भारत सरकार के अनुरोध पर ही हो सकता है.
हमने केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से मुलाकात की थी. उन्होंने तीन महीनों तक इंतजार कराने के बाद हमें इनकार कर दिया. सरकार ने स्वतंत्र तौर पर यूएनईपी से थर्ड पार्टी साइंटिफिक जांच कराने से इनकार कर दिया.सतिनाथ सारंगी, भोपाल ग्रुप ऑफ इंर्फोमेशन एंड एक्शन
सरकार से जुड़े सूत्रों के मुताबिक इस मामले पर सरकार अक्टूबर 2012 में पहले ही रिपोर्ट दाखिल कर चुकी है. इस लिए अब इस मामले में किसी भी थर्ड पार्टी से मूल्यांकन कराए जाने की जरूरत नहीं है. हालांकि सारंगी का कहना है कि सरकार की अपनी समीक्षा एजेंसी के समकक्ष नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट ने भी सरकार की रिपोर्ट को नकार दिया है.
क्यों जूझ रहा है भोपाल
सबसे बड़ी समस्या यह है कि यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) के कीटनाशक कारखाने से लीक होने वाली घातक गैस मिथाइल आइसोसाइनेट (एमआईसी) के प्रभाव को बेअसर करने के लिए अभी तक कोई भी रसायन विकसित नहीं किया गया है.
मिथाइल आइसोसाइनेट गैस इतनी घातक थी, कि अब तक उसके दुष्प्रभाव एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंच रहे हैं.
इसी के साथ, यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड की जिस फैक्ट्री में रसायनिक कचरे को जमा किया जाता था, उसके तीन किलोमीटर के दायरे में मिट्टी और पानी अभी भी जहरीली है.
सारंगी का दावा है कि करीब 350 टन घातक रासायनिक कचरे को गोदाम में जमीन के ऊपर जमा किया गया था, जबकि बाकी करीब 1000 टन रासायनिक कचरा फैक्टरी परिसर के भीतर जमीन में दफन है.
उनका कहना है कि जमीन के नीचे दफन करीब 1000 टन रासायनिक कचरा तालाबों में वाष्पीकरण की क्रिया के जरिए आसपास के इलाकों में फैल रहा है.
विशेषज्ञों का कहना है कि रसायनों के वाष्पीकरण के बाद बचे अवशेषों से मिट्टी और पानी पर प्रभाव पड़ रहा है.
सारंगी कहते हैं कि यह सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड की जिम्मेदारी है कि वह इस पर नजर रखे और समय-समय पर रिपोर्ट उपलब्ध कराए. उनका कहना है कि अभी तक किसी भी तरह की कोई भी रिपोर्ट उपलब्ध नहीं है.
तकरीबन 17 सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों द्वारा किया गया अध्ययन बताता है कि तीन किलोमीटर का दायरा पूरी तरह से विषैला है. हम हाल ही में स्वतंत्र तौर पर अध्ययन कर चुके हैं जिसमें साबित हुआ है कि 40 में से 12 नमूनों में 3 किलोमीटर के दायरे के बाहर भी प्रभाव पाया गया है.सतीनाथ सारंगी, भोपाल ग्रुप ऑफ इंर्फोमेशन एंड एक्शन
पिछले कुछ सालों में विभिन्न सरकारों की अक्षम और अपर्याप्त प्रतिक्रिया से केवल पीड़ितों की मुसीबतों में इजाफा हुआ है.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 15,274 लोगों ने अपनी जान गंवाई है वहीं स्वतंत्र संस्थाओं और गैर सरकारी संगठनों की मानें तो अब तक करीब 35,000 लोगों की मौत हो चुकी है.
इसके अलावा हजारों लोग गैस की वजह से पानी और मिट्टी में फैले जहर के भी शिकार हुए हैं.
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