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लॉ कमीशन क्या है,जिसने यूनिफार्म सिविल कोड के लिए मांगे सुझाव, कैसे करता है काम?

Uniform Civil Code पर राय मांगने वाले Law Commission ने अपनी आखिरी रिपोर्ट में क्या पेश किया?

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भारत
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यूनिफॉर्म सिविल कोड (Uniform Civil Code) मसले पर 22वें लॉ कमीशन (Law Commission) यानी विधि आयोग ने बुधवार, 14 जून को सार्वजनिक और मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों सहित इससे जुड़े लोगों से राय की मांग करते हुए परामर्श प्रक्रिया शुरू की है. इससे पहले 21वें विधि आयोग ने इस मसले की जांच की थी और दो मौकों पर सभी हितधारकों के विचार मांगे थे. इसके बाद 2018 में "पारिवारिक कानून में सुधार" (Reforms of Family Law) पर एक परामर्श पत्र जारी किया गया था. आइए आसान भाषा में जानते हैं कि विधि आयोग ने क्या कहा है? यूनिफॉर्म सिविल कोड क्या है? लॉ कमीशन क्या है, इसके मेंबर पैनल में कौन लोग शामिल हैं, इससे पहले किन मुद्दों पर सिफारिशें भेज चुका है और आयोग ने अपनी आखिरी रिपोर्ट में क्या पेश किया?

लॉ कमीशन क्या है,जिसने यूनिफार्म सिविल कोड के लिए मांगे सुझाव, कैसे करता है काम?

  1. 1. Law Commission ने क्या कहा है?

    पैनल ने एक पब्लिक नोटिस में कहा है कि 2018 में जारी किए गए परामर्श पत्र को तीन साल से ज्यादा दिन गुजर चुके हैं. मुद्दे की प्रासंगिकता और महत्व का खयाल रखते हुए और इस पर तमाम अदालती आदेशों को ध्यान में रखते हुए, भारत के 22वें विधि आयोग ने इस पर नए सिरे से विचार-विमर्श करने का फैसला लिया है.

    Uniform Civil Code पर राय मांगने वाले Law Commission ने अपनी आखिरी रिपोर्ट में क्या पेश किया?

    लॉ कमीशन की पब्लिक नोटिस

    (फोटो- https://lawcommissionofindia.nic.in)

    भारत के 22वें विधि आयोग ने फिर से समान नागरिक संहिता (UCC) के बारे में बड़े पैमाने पर और मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों के विचारों को जानने का फैसला किया है. इच्छुक लोग विधि आयोग को नोटिस की तारीख से 30 दिनों के अंदर अपने विचार भेज सकते हैं. जरूरत पड़ने पर आयोग व्यक्तिगत सुनवाई या चर्चा के लिए किसी व्यक्ति या संगठन को बुला सकता है.
    पब्लिक नोटिस में कहा गया

    बता दें कि समान नागरिक संहिता (UCC) लागू करना भारतीय जनता पार्टी (BJP) के चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा रहा है. पिछले दिनों बीजेपी ने कर्नाटक चुनाव के दौरान भी UCC लागू करने का वादा किया था.

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  2. 2. Uniform Civil Code क्या है और इसमें क्या नियम शामिल हैं?

    समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) पूरे देश के लिए एक समान कानून बनाने की प्रक्रिया है, जो सभी धार्मिक समुदायों पर उनके व्यक्तिगत मामलों जैसे विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने आदि में लागू होगा.

    आसान भाषा में कहा जाए तो समान नागरिक संहिता किसी भी धर्म की परवाह किए बिना सभी नागरिकों के व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने के लिए कानूनों का एक सेट रखती है.

    संविधान का अनुच्छेद 44, राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत का हिस्सा है. इसके मुताबिक राज्य, भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुरक्षित करने की कोशिश करेगा.

    जैसा कि अनुच्छेद 37 में इस बात का जिक्र है कि यह न्यायसंगत नहीं हैं (किसी भी अदालत द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है) लेकिन इसमें निर्धारित सिद्धांत शासन में मौलिक हैं. मौलिक अधिकार कानून की अदालत में लागू करने योग्य हैं. अनुच्छेद 44 में "राज्य प्रयास करेगा" शब्दों का प्रयोग किया गया है, जबकि 'निर्देशक सिद्धांतों' अध्याय के अन्य आर्टिकल में "विशेष रूप से प्रयास करें", "विशेष रूप से अपनी नीति को निर्देशित करेगा" और "राज्य का दायित्व होगा" जैसे शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है.

    अनुच्छेद 43 में "उपयुक्त कानून द्वारा राज्य प्रयास करेगा" जोड़ा गया है जबकि "उपयुक्त कानून द्वारा" अनुच्छेद 44 में नहीं है. इससे पता चलता है कि राज्य का कर्तव्य अनुच्छेद 44 की तुलना में अन्य निर्देशक सिद्धांतों में अधिक है.

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  3. 3. आर्टिकल 44 इतना अहम क्यों है?

    भारतीय संविधान में निर्देशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 44 का उद्देश्य कमजोर समूहों के खिलाफ भेदभाव को दूर करना और देश भर में तमाम सांस्कृतिक समूहों के बीच सामंजस्य स्थापित करना था. डॉ बी आर अम्बेडकर ने संविधान बनते वक्त कहा था कि एक UCC की मांग की जा सकती है लेकिन फिलहाल यह स्वैच्छिक रहना चाहिए और इस तरह संविधान के मसौदे के अनुच्छेद 35 को भाग IV में राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के हिस्से में अनुच्छेद 44 के रूप में जोड़ा गया था.

    इसे संविधान में एक पहलू के रूप में शामिल किया गया था, जो तब पूरा होगा जब देश इसे स्वीकार करने के लिए तैयार होगा और UCC को सामाजिक स्वीकृति दी जा सकती है.

    डॉ भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में स्पीच देते हुए ये भी कहा था कि

    किसी को भी आशंकित होने की जरूरत नहीं है कि अगर राज्य के पास ताकत है, तो राज्य तुरंत इसको लागू कर देगा. उस शक्ति को एक तरह से मुसलमानों, ईसाइयों या किसी अन्य समुदाय द्वारा आपत्तिजनक बताया जा सकता है. मुझे लगता है कि यह एक पागल सरकार होगी अगर वो इसके बाद भी लागू करेगी.
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  4. 4. Law Commission इससे पहले किन मुद्दों पर सिफारिशें भेज चुका है?

    युनिफॉर्म सिविल कोड पर लोगों की राय मांगने से पहले लॉ कमीशन यानी विधि आयोग ने कई अन्य मसलों पर भी सिफारिशें करने की वजह से सुर्खियों में रहा है.

    • 2 जून 2023 को 22वें विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि राजद्रोह के अपराध से निपटने वाली भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A (जो देशद्रोह कानून से संबंधित है) को "आंतरिक सुरक्षा खतरों" की वजह से बरकरार रखा जाए और अपराध के लिए न्यूनतम जेल की अवधि को तीन साल से बढ़ाकर सात साल कर दिया जाए.

    • जस्टिस ए.पी. शाह की अध्यक्षता में भारत के विधि आयोग ने भारत में 'मौत की सजा' के मुद्दे पर 31 अगस्त 2015 को अपनी 262वीं रिपोर्ट प्रस्तुत की. संतोष कुमार सतीशभूषण बरियार बनाम महाराष्ट्र (2009) 6 एससीसी 498 और शंकर किसानराव खाड़े बनाम महाराष्ट्र, (2013) 5 एससीसी 546 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे को विधि आयोग को भेजा था. विधि आयोग ने अपनी इस रिपोर्ट में आतंकवाद से संबंधित अपराधों और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने को छोड़कर सभी अपराधों के लिए मौत की सजा को खत्म करने की सिफारिश की थी.

    • मार्च 2015 में विधि आयोग ने सुधाव दिया था कि शासन और स्थिरता में सुधार के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों को एक साथ करवाया जाना चाहिए.

    • आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम ( Criminal Procedure (Identification) Act, 2022), जो कैदियों की पहचान अधिनियम ( Identification of Prisoners Act,1920) की जगह ले चुका है. इसको भी भारत के विधि आयोग द्वारा ही प्रस्तावित किया गया था.

    • साल 2018 में 21वें विधि आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा था कि समान नागरिक संहिता (UCC) इस स्तर पर न तो जरूरी है और न ही डिजायरेबल है.

    इसके बाद नवंबर 2022 में केंद्र सरकार ने भारत के 22वें विधि आयोग से इससे संबंधित विभिन्न मुद्दों की जांच करने की गुजारिश की थी.

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  5. 5. Law Commission यानी विधि आयोग क्या है और इसका क्या काम होता है?

    भारत का विधि आयोग यानी लॉ कमीशन भारत सरकार द्वारा गठित एक गैर-सांविधिक निकाय है. स्वतंत्र भारत का पहला विधि आयोग 1955 में तीन साल के कार्यकाल के लिए बनाया गया था.

    भारत का पहला विधि आयोग 1834 में 1833 के चार्टर अधिनियम द्वारा ब्रिटिश सरकार के दौरान स्थापित किया गया था और इसकी अध्यक्षता लॉर्ड मैकाले ने की थी.

    विधि आयोग कानून और न्याय मंत्रालय के सलाहकार निकाय के रूप में काम करता है और भारत के संविधान में मौजूद कानूनों की समीक्षा करता है. यह करने का मकसद कानूनों में वक्त के हिसाब से जरूरी सुधार लाना है. विधि आयोग की समीक्षा और सिफारिश भेजे जाने के बाद केंद्र सरकार द्वारा नए कानून बनाए जाते हैं.

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  6. 6. 22वें विधि आयोग का गठन कब हुआ और इसके सदस्यों में कौन लोग शामिल हैं?

    22वें विधि आयोग का गठन 21 फरवरी 2020 को तीन साल के लिए किया गया था. इसके अध्यक्ष जस्टिस ऋतुराज अवस्थी (रिटायर्ड) ने 9 नवंबर, 2022 को पदभार ग्रहण किया.

    केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फरवरी 2023 में 22वें विधि आयोग के कार्यकाल को 31 अगस्त 2024 कर के लिए बढ़ा दिया गया.

    केंद्रीय कानून मेंत्री किरेन रिजिजू ने 7 नवंबर 2022 को अपने ट्वीट के जरिए जानकारी दी थी कि कर्नाटक हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस (रिटायर्ड) ऋतुराज अवस्थी 22वें विधि आयोग के अध्यक्ष होंगे. इसके अलावा केरल हाईकोर्ट के पूर्व जज केटी शंकरन, एम करुणानिधि और कानून के प्रोफेसर आनंद पालीवाल, डीपी वर्मा और राका आर्य सहित कुल पांच लोगों को पैनल का सदस्य नियुक्त किया गया था.

    कौन हैं ऋतुराज अवस्थी?

    जस्टिस ऋतुराज अवस्थी ने अक्टूबर 2021 में कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के रूप में पदभार संभाला और जुलाई 2022 में रिटायर हुए. उन्होंने पिछले साल मार्च में उस बेंच की अध्यक्षता की थी, जिसने शैक्षणिक संस्थानों में महिलाओं और लड़कियों के हिजाब पहनने पर राज्य सरकार के प्रतिबंध को सही ठहराया था.

    विधि आयोग के सदस्यों में शामिल जस्टिस शंकरन ने 2005 से 2016 तक केरल हाईकोर्ट में जज के रूप में काम किया. साल 2009 में जस्टिस शंकरन ने "लव जिहाद" के सिद्धांत को वैधता देते हुए प्रेम की आड़ में महिलाओं को इस्लाम धर्म में परिवर्तित करने की कथित प्रथा की निंदा की थी.

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  7. 7. Law Commission ने अपनी आखिरी रिपोर्ट में क्या पेश किया?

    22वें विधि आयोग ने 24 मई को राजद्रोह कानून पर अपनी रिपोर्ट कानून मंत्रालय को सौंपी, जिसमें आईपीसी की धारा 124ए में संशोधन पर सिफारिशें दी गई थीं.

    22वें विधि आयोग ने सिफारिश की है कि केदार नाथ सिंह बनाम बिहार मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1962 के फैसले को तथाकथित रूप से शामिल करने के लिए प्रावधान में संशोधन किया जाना चाहिए, जिसमें कहा गया था कि नियम केवल उन मामलों में लागू किया जा सकता है, जहां कथित देशद्रोही कार्य हिंसा या अव्यवस्था की वजह बने हों या बन सकते हों.

    हालांकि सिफारिश किया गया संशोधन व्यापक है और अगर यह स्वीकार कर लिया जाता है, तो हिंसा भड़काने की स्थिति भी दंडनीय होगी, भले ही ऐसी कोई हिंसा या अव्यवस्था हुई हो या नहीं. यह कानून को उसके मौजूदा स्वभाव से ज्यादा कठोर बनाता है.

    यह सिफारिश बलवंत सिंह बनाम पंजाब में सुप्रीम कोर्ट के 1987 के फैसले के विपरीत भी है, जहां यह माना गया था कि केवल राज्य के खिलाफ शब्द या नारे जो हिंसा का कारण नहीं बनते हैं, आईपीसी की धारा 124ए को लागू नहीं कर सकते हैं.

    (इनपुट- Indian Express, NDTV, Business Standard, Economic Times)

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Law Commission ने क्या कहा है?

पैनल ने एक पब्लिक नोटिस में कहा है कि 2018 में जारी किए गए परामर्श पत्र को तीन साल से ज्यादा दिन गुजर चुके हैं. मुद्दे की प्रासंगिकता और महत्व का खयाल रखते हुए और इस पर तमाम अदालती आदेशों को ध्यान में रखते हुए, भारत के 22वें विधि आयोग ने इस पर नए सिरे से विचार-विमर्श करने का फैसला लिया है.

Uniform Civil Code पर राय मांगने वाले Law Commission ने अपनी आखिरी रिपोर्ट में क्या पेश किया?

लॉ कमीशन की पब्लिक नोटिस

(फोटो- https://lawcommissionofindia.nic.in)

भारत के 22वें विधि आयोग ने फिर से समान नागरिक संहिता (UCC) के बारे में बड़े पैमाने पर और मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों के विचारों को जानने का फैसला किया है. इच्छुक लोग विधि आयोग को नोटिस की तारीख से 30 दिनों के अंदर अपने विचार भेज सकते हैं. जरूरत पड़ने पर आयोग व्यक्तिगत सुनवाई या चर्चा के लिए किसी व्यक्ति या संगठन को बुला सकता है.
पब्लिक नोटिस में कहा गया

बता दें कि समान नागरिक संहिता (UCC) लागू करना भारतीय जनता पार्टी (BJP) के चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा रहा है. पिछले दिनों बीजेपी ने कर्नाटक चुनाव के दौरान भी UCC लागू करने का वादा किया था.

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समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) पूरे देश के लिए एक समान कानून बनाने की प्रक्रिया है, जो सभी धार्मिक समुदायों पर उनके व्यक्तिगत मामलों जैसे विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने आदि में लागू होगा.

आसान भाषा में कहा जाए तो समान नागरिक संहिता किसी भी धर्म की परवाह किए बिना सभी नागरिकों के व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करने के लिए कानूनों का एक सेट रखती है.

संविधान का अनुच्छेद 44, राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत का हिस्सा है. इसके मुताबिक राज्य, भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुरक्षित करने की कोशिश करेगा.

जैसा कि अनुच्छेद 37 में इस बात का जिक्र है कि यह न्यायसंगत नहीं हैं (किसी भी अदालत द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है) लेकिन इसमें निर्धारित सिद्धांत शासन में मौलिक हैं. मौलिक अधिकार कानून की अदालत में लागू करने योग्य हैं. अनुच्छेद 44 में "राज्य प्रयास करेगा" शब्दों का प्रयोग किया गया है, जबकि 'निर्देशक सिद्धांतों' अध्याय के अन्य आर्टिकल में "विशेष रूप से प्रयास करें", "विशेष रूप से अपनी नीति को निर्देशित करेगा" और "राज्य का दायित्व होगा" जैसे शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है.

अनुच्छेद 43 में "उपयुक्त कानून द्वारा राज्य प्रयास करेगा" जोड़ा गया है जबकि "उपयुक्त कानून द्वारा" अनुच्छेद 44 में नहीं है. इससे पता चलता है कि राज्य का कर्तव्य अनुच्छेद 44 की तुलना में अन्य निर्देशक सिद्धांतों में अधिक है.

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आर्टिकल 44 इतना अहम क्यों है?

भारतीय संविधान में निर्देशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 44 का उद्देश्य कमजोर समूहों के खिलाफ भेदभाव को दूर करना और देश भर में तमाम सांस्कृतिक समूहों के बीच सामंजस्य स्थापित करना था. डॉ बी आर अम्बेडकर ने संविधान बनते वक्त कहा था कि एक UCC की मांग की जा सकती है लेकिन फिलहाल यह स्वैच्छिक रहना चाहिए और इस तरह संविधान के मसौदे के अनुच्छेद 35 को भाग IV में राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के हिस्से में अनुच्छेद 44 के रूप में जोड़ा गया था.

इसे संविधान में एक पहलू के रूप में शामिल किया गया था, जो तब पूरा होगा जब देश इसे स्वीकार करने के लिए तैयार होगा और UCC को सामाजिक स्वीकृति दी जा सकती है.

डॉ भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में स्पीच देते हुए ये भी कहा था कि

किसी को भी आशंकित होने की जरूरत नहीं है कि अगर राज्य के पास ताकत है, तो राज्य तुरंत इसको लागू कर देगा. उस शक्ति को एक तरह से मुसलमानों, ईसाइयों या किसी अन्य समुदाय द्वारा आपत्तिजनक बताया जा सकता है. मुझे लगता है कि यह एक पागल सरकार होगी अगर वो इसके बाद भी लागू करेगी.
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युनिफॉर्म सिविल कोड पर लोगों की राय मांगने से पहले लॉ कमीशन यानी विधि आयोग ने कई अन्य मसलों पर भी सिफारिशें करने की वजह से सुर्खियों में रहा है.

  • 2 जून 2023 को 22वें विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि राजद्रोह के अपराध से निपटने वाली भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A (जो देशद्रोह कानून से संबंधित है) को "आंतरिक सुरक्षा खतरों" की वजह से बरकरार रखा जाए और अपराध के लिए न्यूनतम जेल की अवधि को तीन साल से बढ़ाकर सात साल कर दिया जाए.

  • जस्टिस ए.पी. शाह की अध्यक्षता में भारत के विधि आयोग ने भारत में 'मौत की सजा' के मुद्दे पर 31 अगस्त 2015 को अपनी 262वीं रिपोर्ट प्रस्तुत की. संतोष कुमार सतीशभूषण बरियार बनाम महाराष्ट्र (2009) 6 एससीसी 498 और शंकर किसानराव खाड़े बनाम महाराष्ट्र, (2013) 5 एससीसी 546 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे को विधि आयोग को भेजा था. विधि आयोग ने अपनी इस रिपोर्ट में आतंकवाद से संबंधित अपराधों और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने को छोड़कर सभी अपराधों के लिए मौत की सजा को खत्म करने की सिफारिश की थी.

  • मार्च 2015 में विधि आयोग ने सुधाव दिया था कि शासन और स्थिरता में सुधार के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों को एक साथ करवाया जाना चाहिए.

  • आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम ( Criminal Procedure (Identification) Act, 2022), जो कैदियों की पहचान अधिनियम ( Identification of Prisoners Act,1920) की जगह ले चुका है. इसको भी भारत के विधि आयोग द्वारा ही प्रस्तावित किया गया था.

  • साल 2018 में 21वें विधि आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा था कि समान नागरिक संहिता (UCC) इस स्तर पर न तो जरूरी है और न ही डिजायरेबल है.

इसके बाद नवंबर 2022 में केंद्र सरकार ने भारत के 22वें विधि आयोग से इससे संबंधित विभिन्न मुद्दों की जांच करने की गुजारिश की थी.

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भारत का विधि आयोग यानी लॉ कमीशन भारत सरकार द्वारा गठित एक गैर-सांविधिक निकाय है. स्वतंत्र भारत का पहला विधि आयोग 1955 में तीन साल के कार्यकाल के लिए बनाया गया था.

भारत का पहला विधि आयोग 1834 में 1833 के चार्टर अधिनियम द्वारा ब्रिटिश सरकार के दौरान स्थापित किया गया था और इसकी अध्यक्षता लॉर्ड मैकाले ने की थी.

विधि आयोग कानून और न्याय मंत्रालय के सलाहकार निकाय के रूप में काम करता है और भारत के संविधान में मौजूद कानूनों की समीक्षा करता है. यह करने का मकसद कानूनों में वक्त के हिसाब से जरूरी सुधार लाना है. विधि आयोग की समीक्षा और सिफारिश भेजे जाने के बाद केंद्र सरकार द्वारा नए कानून बनाए जाते हैं.

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22वें विधि आयोग का गठन कब हुआ और इसके सदस्यों में कौन लोग शामिल हैं?

22वें विधि आयोग का गठन 21 फरवरी 2020 को तीन साल के लिए किया गया था. इसके अध्यक्ष जस्टिस ऋतुराज अवस्थी (रिटायर्ड) ने 9 नवंबर, 2022 को पदभार ग्रहण किया.

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फरवरी 2023 में 22वें विधि आयोग के कार्यकाल को 31 अगस्त 2024 कर के लिए बढ़ा दिया गया.

केंद्रीय कानून मेंत्री किरेन रिजिजू ने 7 नवंबर 2022 को अपने ट्वीट के जरिए जानकारी दी थी कि कर्नाटक हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस (रिटायर्ड) ऋतुराज अवस्थी 22वें विधि आयोग के अध्यक्ष होंगे. इसके अलावा केरल हाईकोर्ट के पूर्व जज केटी शंकरन, एम करुणानिधि और कानून के प्रोफेसर आनंद पालीवाल, डीपी वर्मा और राका आर्य सहित कुल पांच लोगों को पैनल का सदस्य नियुक्त किया गया था.

कौन हैं ऋतुराज अवस्थी?

जस्टिस ऋतुराज अवस्थी ने अक्टूबर 2021 में कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के रूप में पदभार संभाला और जुलाई 2022 में रिटायर हुए. उन्होंने पिछले साल मार्च में उस बेंच की अध्यक्षता की थी, जिसने शैक्षणिक संस्थानों में महिलाओं और लड़कियों के हिजाब पहनने पर राज्य सरकार के प्रतिबंध को सही ठहराया था.

विधि आयोग के सदस्यों में शामिल जस्टिस शंकरन ने 2005 से 2016 तक केरल हाईकोर्ट में जज के रूप में काम किया. साल 2009 में जस्टिस शंकरन ने "लव जिहाद" के सिद्धांत को वैधता देते हुए प्रेम की आड़ में महिलाओं को इस्लाम धर्म में परिवर्तित करने की कथित प्रथा की निंदा की थी.

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Law Commission ने अपनी आखिरी रिपोर्ट में क्या पेश किया?

22वें विधि आयोग ने 24 मई को राजद्रोह कानून पर अपनी रिपोर्ट कानून मंत्रालय को सौंपी, जिसमें आईपीसी की धारा 124ए में संशोधन पर सिफारिशें दी गई थीं.

22वें विधि आयोग ने सिफारिश की है कि केदार नाथ सिंह बनाम बिहार मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1962 के फैसले को तथाकथित रूप से शामिल करने के लिए प्रावधान में संशोधन किया जाना चाहिए, जिसमें कहा गया था कि नियम केवल उन मामलों में लागू किया जा सकता है, जहां कथित देशद्रोही कार्य हिंसा या अव्यवस्था की वजह बने हों या बन सकते हों.

हालांकि सिफारिश किया गया संशोधन व्यापक है और अगर यह स्वीकार कर लिया जाता है, तो हिंसा भड़काने की स्थिति भी दंडनीय होगी, भले ही ऐसी कोई हिंसा या अव्यवस्था हुई हो या नहीं. यह कानून को उसके मौजूदा स्वभाव से ज्यादा कठोर बनाता है.

यह सिफारिश बलवंत सिंह बनाम पंजाब में सुप्रीम कोर्ट के 1987 के फैसले के विपरीत भी है, जहां यह माना गया था कि केवल राज्य के खिलाफ शब्द या नारे जो हिंसा का कारण नहीं बनते हैं, आईपीसी की धारा 124ए को लागू नहीं कर सकते हैं.

(इनपुट- Indian Express, NDTV, Business Standard, Economic Times)

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