नीतीश कुमार के मुख्य रणनीतिकार और विश्वासपात्र प्रशांत किशोर ने निश्चित रूप से अपने क्लायंट के लिए इस दिन के बारे में नहीं सोचा होगा. लेकिन, नीतीश के शपथ ग्रहण के एक दिन बाद ही उनका बड़े से बड़ा समर्थक इस बात को लेकर अवाक रह गया कि कैसे लालू और उनके बेटों ने उप-मुख्यमंत्री के पद के साथ-साथ मंत्रालय के 16 अहम पदों पर अपना कब्जा जमा लिया. यही, वजह रही कि कश्मीर से केरल तक फैली नीतीश की जयगाथा कुछ धीमी पड़ गई.
नीतीश ने अपनी नई पारी (मुख्यमंत्री के पद पर लगातार तीसरी बार) एक नए तेवर में शुरू करने के बारे में सोचा होगा. लेकिन, कहीं न कहीं उन्हें अपने पूर्व सहायक सुशील कुमार मोदी की कमी भी जरूर खली होगी जो तुलनात्मक रूप से कहीं ज्यादा मिलनसार, उत्तरदायी और सक्षम नेता थे.
मोदी ने न सिर्फ राज्य के आर्थिक मामलों का बेहतर तरीके से प्रबंधन किया था बल्कि वह गठबंधन की राजनीति की बारीकियों से भी अच्छी तरह वाकिफ थे. उन्होंने कभी भी अपने सहयोगी के लिए परेशानी खड़ी नहीं की.
मोदी की विश्वसनीयता ऐसी थी कि यूपीए की सरकार ने बिहार का वित्तमंत्री रहते हुए उन्हें जीएसटी (गुड्स ऐंड सर्विस टैक्स) के मामले को देख रही एम्पावर्ड कमेटी ऑफ स्टेट फाइनेंस मिनिस्टर्स का चेयरमैन बनाया था.
मोदी 2005 में नीतीश के डिप्टी बने थे और 2010 तक भी इस पद पर बने रहे थे. उनकी तुलना में नीतीश के नए डिप्टी तेजस्वी पहली बार विधायक बने हैं और उनके पास विधायी तौर पर कोई अनुभव नहीं है.
नीतीश भले ही इस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार न करें. लेकिन जो लोग उन्हें जानते हैं वे समझ सकते हैं कि उनके पास लालू की इस बात को मानने के अलावा कोई चारा नहीं था कि वह उनके बेटे को अपना डिप्टी बनाएं.
राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा
अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को पालते हुए नीतीश 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए कहीं न कहीं खुद को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पुनर्स्थापित किए जाने का ख्वाब देख रहे होंगे. अपने शपथ ग्रहण समारोह को उन्होंने एक ऐसे मौके के तौर पर इस्तेमाल करने के बारे में सोचा होगा जिसकी मदद से वह संदेश दे सकें कि उनके लिए गैर-बीजेपी नेताओं, जिनमें ममता बनर्जी और सीताराम येचुरी भी थे, को एक मंच पर लाना कोई बड़ी बात नहीं है.
वह फारुख अब्दुल्ला जैसे कद्दावर नेताओं के जरिए, ‘अब नीतीश को दिल्ली की लड़ाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए’ जैसी बहस शुरू करवा सकते हैं. नीतीश, जिन्हें एक सुलझा हुआ और दबाव में न टूटने वाला राजनीतिज्ञ माना जाता है, को यह सोचना होगा कि क्या ये शुरुआत वैसी ही है जैसा उन्होंने सोचा था.
क्या वे मुट्ठीभर समर्थक, जो नीतीश को 2019 के चुनावों में मोदी के विकल्प के तौर पर देखते हैं, उनसे पूछेंगे कि क्यों और कैसे उन्होंने लालू को अपने अनुभवहीन बेटे को बिहार का उपमुख्यमंत्री बनाने की सहमति दी, वह भी तब जब 243-सदस्यीय विधानसभा में 178 विधायक सत्तारुढ़ गठबंधन के हैं?
सवाल तो उठेंगे ही, कि यदि नीतीश अपने दमदार सहयोगी लालू के दबाव को नहीं सह पाते हैं. इसकी पहली झलक हम देख ही चुके हैं (सूत्र बताते हैं कि नीतीश तेजस्वी को अपना डिप्टी नहीं बनाना चाहते थे, लेकिन लालू के आगे उनकी एक न चली), तो वह राष्ट्रीय स्तर के कहीं ज्यादा गंभीर समस्याओं को कैसे झेल पाएंगे?
अपनी अनकही राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा की राह पर आगे बढ़ने से पहले नीतीश को यह साबित करना होगा कि वह बगैर रीढ़ के नेता नहीं हैं, और उनमें अपने गठबंधन (जो नरेंद्र मोदी के विरोध के लिए ही अस्तित्व में आया है) को सही दिशा दिखाने और प्रतिकूल परिस्थितियो में भी टिके रहने का दम है.
सबसे बड़ी बात है कि उन्हें अपनी भावनाओं पर काबू रखना होगा. (नीतीश एक भावुक व्यक्ति हैं जिन्होंने मई 2014 में बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था और 1999 में किशनगंज के पास हुई एक रेल दुर्घटना के बाद रेलमंत्री का पद छोड़ दिया था.)
यदि वह खुद को 2019 की जंग के लिए तैयार कर रहे हैं, तो अभी इस मृदुभाषी नेता के पास यह साबित करने के लिए लगभग चार साल हैं कि वह बुरे से बुरे दौर में से भी अच्छी चीजें बाहर लाने का माद्दा रखते हैं. उन्हें साबित करना होगा कि वह एक पिछड़े राज्य को विकास की राह पर ले जाने में सक्षम हैं. उन्हें यह भी बताना होगा कि वह अभी भी वही नेता हैं जो सिर्फ कुर्सी के लिए किसी गलत बात का समर्थन नहीं करेगा. यदि ऐसा होता है, तभी वह अपनी महात्वाकांक्षा को यथार्थ के धरातल पर उतरता हुआ देख पाएंगे.
(लेखिका बिहार में पत्रकार हैं)
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