भारतीय कुश्ती महासंघ (WFI) के पूर्व अध्यक्ष और बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह के करीबी संजय सिंह WFI के नए अध्यक्ष चुने गए हैं. इसके विरोध में पहलवान बजरंग पूनिया ने शुक्रवार, 22 दिसंबर को अपना पद्मश्री पुरस्कार लौटाने का ऐलान किया. इसके एक दिन बाद यानी शनिवार, 23 दिसंबर को पहलवान वीरेंद्र सिंह यादव ने भी अपना पद्मश्री पुरस्कार लौटाने की बात कही है. 'गूंगा पहलवान' के नाम से मशहूर वीरेंद्र ने 2005 समर डेफलंपिक्स में स्वर्ण पदक जीता था. 2021 में उन्हें प्रतिष्ठित पद्म श्री पुरस्कार मिला था. इससे पहले, उन्हें 2015 में प्रतिष्ठित अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
ऐसा पहली बार नहीं है जब मशहूर हस्तियों ने अवॉर्ड वापस करते हुए सरकार के खिलाफ अपना गुस्सा हाजिर किया है. बल्कि इससे पहले भी साहित्य जगत से लेकर सामाजिक कार्यकर्ता तक सरकार को अपना अवॉर्ड वापस कर चुके हैं.
अवॉर्ड वापसी नई बात नहीं
आजादी के बाद के शुरुआती उदाहरणों में से एक वाकया 1954 का है. 1974 में पूर्व सांसद ओपी त्यागी ने राज्यसभा में पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में कहा था कि, "स्वतंत्रता सेनानी आशादेवी आर्यनायकम और सामाजिक कार्यकर्ता अमलप्रोवा दास ने व्यक्तिगत आधार पर पुरस्कार (पद्म श्री) स्वीकार करने से इनकार कर दिया था."
पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह को 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था लेकिन उन्होंने 1984 में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में हुए 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' के विरोध में इसे वापस कर दिया. उन्हें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने राज्यसभा के लिए नामांकित किया था और वह 1980 से 1986 तक सांसद रहे थे.
रामकृष्ण मिशन के स्वामी रंगनाथानंद ने साल 2000 में पुरस्कार अस्वीकार कर दिया था क्योंकि यह उन्हें एक व्यक्ति के रूप में प्रदान किया गया था, बल्कि उनके मिशन को नहीं.
इतिहासकार रोमिला थापर के लिए सरकारी सम्मान स्वीकार न करना सिद्धांत का मामला था, विरोध का नहीं. उन्होंने दो बार पद्म भूषण लेने से इनकार कर दिया: 1992 में और बाद में 2005 में. उन्होंने यह कहते हुए इसे अस्वीकार कर दिया कि वह केवल "शैक्षणिक संस्थानों या मेरे पेशेवर काम से जुड़े लोगों से" पुरस्कार स्वीकार करेंगी.
साहित्य जगत की अवॉर्ड वापसी
नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के एक साल बाद सितंबर से नवंबर 2015 के बीच लेखकों और बुद्धिजीवियों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने के 33 मामले सामने आए थे. इसकी शुरुआत हिंदी लेखक उदय प्रकाश के साथ हुई थी, जिन्होंने विद्वान एमएम कलबुर्गी की हत्या पर अकादमी की "उदासीनता" के विरोध में अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया था. बता दें कि उदय प्रकाश को उपन्यास मोहनदास के लिए साल 2010 साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
इसके करीब एक महीने बाद, लेखिका नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी ने अपने पुरस्कार लौटा दिए और उनके बाद लेखिका कृष्णा सोबती और शशि देशपांडे ने भी पुरस्कार लौटा दिए.
सहगल ने तब कहा था कि “भारत की विविधता की संस्कृति” और “असहमति के अधिकार” पर “भयानक हमला” किया जा रहा है.
सहगल के साथ ही कई अन्य लोगों ने भी अपने-अपने पुरस्कार लौटा दिए. लगभग हर दिन विद्रोह में शामिल होने वाले नए लेखक अपने पुरस्कार लौटा रहे थे. पंजाबी लेखिका दलीप कौर तिवाना ने भी अपना पद्मश्री लौटा दिया था.
सईद मिर्जा, कुंदन शाह, दिबाकर बनर्जी और डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता आनंद पटवर्धन जैसे निर्देशकों ने भी यही किया और अपने राष्ट्रीय पुरस्कार छोड़ दिए. साहित्यिक हस्तियों और भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (FTII) के छात्रों के समर्थन में फिल्म निर्माताओं ने ये कदम उठाया था. बता दें कि तब FTII के छात्र अध्यक्ष के रूप में गजेंद्र चौहान की नियुक्ति का विरोध कर रहे थे.
कुछ और नेताओं ने भी लौटाए अवार्ड
जनवरी 2022 में पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री और CPI(M) नेता बुद्धदेव भट्टाचार्य ने घोषणा के कुछ घंटों बाद पद्म भूषण सम्मान ठुकरा दिया था. Indian Express की रिपोर्ट के मुताबिक, नई दिल्ली में CPI(M) के शीर्ष नेतृत्व ने फोन पर बात की थी और भट्टाचार्य के परिवार को बताया था कि पार्टी की परंपरा ऐसे सम्मान स्वीकार करने की नहीं है.
इसके साथ ही भट्टाचार्य केरल के पहले सीएम और कम्युनिस्ट आइकन ईएमएस नंबूदरीपाद की फेहरिस्त में शामिल हो गए, जिन्होंने पीवी नरसिम्हा राव सरकार द्वारा दिए गए पद्म विभूषण को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि राज्य सम्मान स्वीकार करना उनके स्वभाव के खिलाफ है.
पंजाब के पूर्व सीएम प्रकाश सिंह बादल ने तीन केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ राज्य में किसानों के विरोध के मद्देनजर 2020 में अपना पद्म विभूषण लौटा दिया था. बाद में कानूनों को निरस्त कर दिया गया.
(इनपुट्स - Indian Express)
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