ADVERTISEMENTREMOVE AD

राहत इंदौरी: "लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान...", शब्द 'बाण'-मोहब्बत का पैगाम वाला शायर

Rahat Sahab शायरी करने से पहले चित्रकारी किया करते थे, बाद में उन्होंने अल्फाज के जरिए तस्वीरें बनाना शुरू कर दिया.

छोटा
मध्यम
बड़ा

अभी ग़नीमत है सब्र मेरा, अभी लबालब भरा नहीं हूं

वो मुझको मुर्दा समझ रहा है, उसे कहो मैं मरा नहीं हूं

सभी का ख़ून है शामिल यहां की मिट्टी में

किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है

बुलाती है मगर जाने का नइं

वो दुनिया है उधर जाने का नइं

मुशायरों का मंच, राहत साहब की दहाड़ती आवाज, लोगों की भीड़, हर मिसरे पर सामईन का पागलपन, हर शेर में तिलिस्म और चमत्कार...राहत इंदौरी (Rahat Indori) साहब के शेर पढ़ने का अपना अलग अदाज था. जब वो मंच पर होते थे, तो सामने बैठी हजारों-हजार लोगों की भीड़ के एक-एक शख्स के अंदर एक अलग सुरूर नजर आता था. लोगों में राहत साहब के शेर सुनने की ललक और शायरी का खुमार देखते बनता था.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

शायरी से पहले चित्रकारी करते राहत इंदौरी

राहत इंदौरी साहब मध्य प्रदेश के इंदौर से ताल्लुक रखते थे, साल 1950 में 1 जनवरी को उनकी पैदाइश इसी शहर में हुई थी. राहत साहब की जिंदगी और शख्सियत ऐसी है कि इस छोटे से आर्टिकल में तो हम मुकम्मल तरीके से बयां नहीं कर सकते लेकिन समंदर के कुछ कतरों से आपका राब्ता जरूर करवाऊंगा.

राहत साहब शायरी करने से पहले पेंटिंग यानी चित्रकारी किया करते थे. लेकिन जल्दी ही उन्होंने ब्रश और रंगों से चित्र बनाना छोड़कर अल्फाज के जरिए तस्वीरें बनाना शुरू कर दिया और उनकी आवाज मुशायरों के मंच पर गूंजने लगी.

भूखे बुज़दिल शेर सजाकर पिंजरों में

एक सर्कस इस शहर में अक्सर आता है

टूट रही है मुझमें हर दिन एक मस्जिद

इस बस्ती में रोज़ दिसंबर आता है

- राहत इंदौरी

0

मुशायरों के मंचों पर राहत साहब का जादुई अंदाज

राहत साहब जब मुशायरों के दौरान मंच पर होते थे, तो उनके हाथ, पैर इस अंदाज में हरकत करते थे, जैसे कोई कैनवस उनके सामने हो और उस पर वो कोई तस्वीर उभार देना चाहते हों. उनका पूरा शरीर शायरी पढ़ा करता था और राहत साहब का यही अंदाज उनको 'राहत इंदौरी' बनाता था, जो सबसे जुदा था.

राहत साहब ने जम्हूरियत यानी लोकतंत्र के इस दौर में आम अवाम के हक में अपनी गजलों को चीख में तब्दील करने का काम किया.

उन्होंने खुद का ऐसा किरदार बनाया, जिनको हिंदुस्तान की पूरी जनता के गम को बयान करने वाले शायर के तौर पर पहचाना गया. इस बात का उदाहरण भी कई जगहों पर देखने को भी मिला.

नई हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है

कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है

जो जुर्म करते हैं, इतने बुरे नहीं होते

सज़ा न दे के अदालत बिगाड़ देती है

- राहत इंदौरी

ADVERTISEMENTREMOVE AD

राहत साहब के कुछ और बेहतरीन शेर इस तरह हैं...

Rahat Sahab शायरी करने से पहले चित्रकारी किया करते थे, बाद में उन्होंने अल्फाज के जरिए तस्वीरें बनाना शुरू कर दिया.
Rahat Sahab शायरी करने से पहले चित्रकारी किया करते थे, बाद में उन्होंने अल्फाज के जरिए तस्वीरें बनाना शुरू कर दिया.

दुनिया के कई देशों के मुशायरों में राहत इंदौरी

राहत साहब सिर्फ हिंदुस्तान की सरहदों तक महदूद नहीं रहे. उन्होंने दुनिया में कई देशों के इंटरनेशनल मुशायरों में शिरकत की. वो मुशायरों के सिलसिले में कई बार पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान भी गए लेकिन एक बार ऐसा भी हुआ कि उन्होंने पाकिस्तान के मुशायरे में शामिल होने से मना भी कर दिया था.

पाकिस्तान और हिंदुस्तान में राहत साहब के शायरी पढ़ने से जुड़ा एक किस्सा आपसे साथ साझा करता हूं.

राहत इंदौरी पर लिखी किताब 'राहत साहब' में डॉ. दीपक रूहानी कहते हैं कि

साल 1986 में राहत साहब पाकिस्तान के कराची गए और वहां के नेशनल स्टेडियम में हज़ारों के मज्मे में एक शेर पढ़ा. सारे सामईन खड़े होकर पांच मिनट तक तालियां बजाते रहे. उसी शेर को दिल्ली के एक मुशायरे में पढ़ने पर यहां भी उसी तरह की शोरअंगेज़ी हुई.

वो आगे कहते हैं कि किसी एक शेर पर दो मुल्कों के सामईन एक जैसी प्रतिक्रिया दें और मुल्क भी ऐसे जो आपस में एक दूसरे के विरोधी कहे जाते हों, तो ये प्रतिक्रिया एक मुश्तरका गम की प्रतिक्रिया बन जाती है. ये शेर सिर्फ मुस्लिम समुदाय तक सीमित रहने वाला शेर नहीं है.

वो शेर कुछ यूं है-

अब के जो फ़ैसला होगा वो यहीं पे होगा

हमसे अब दूसरी हिजरत नहीं होने वाली

ADVERTISEMENTREMOVE AD

"दोस्ताना व्यवहार के थे राहत साहब"

राहत इंदौरी की बायोग्राफी 'राहत साहब' किताब के लेखक डॉ. दीपक रूहानी क्विंट हिंदी से बात करते हुए कहते हैं कि

किताब लिखने के दरमियान राहत साहब से मेरी कई मुलाकातें हुईं और कई लंबी बैठकें भी हुईं. एक व्यक्ति के तौर पर मैंने राहत साहब के बारे में महसूस किया कि वो निहायत ही दोस्ताना व्यवहार के थे.

डॉ. दीपक रूहानी कहते हैं कि कई लोगों को दूर से देखकर लग सकता है कि राहत साहब बहुत अक्खड़ किस्म के शायर होंगे लेकिन मिलने-मिलाने में उनका बहुत अच्छा व्यवहार रहता था. कोई भी कभी भी उनसे मिला होगा तो मेरा दावा है कि 95 से 99 फीसदी लोगों ने कभी कोई शिकायत नहीं की होगी कि राहत साहब मुझसे ठीक से मिले या ठीक से बात नहीं की या ठीक से मेरी बात सुनी नहीं.

अगर राहत साहब अपनी शायरी को एक पॉलिटिकल टूल की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, एक सामाजिक जागरूकता की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, जो धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिका के के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे हैं या मुस्लिम समाज की पीड़ा को व्यक्त करने के लिए वो शायरी का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो मेरे ख्याल से मानव सभ्यता ने जो साहित्य, शब्दों, भाषा और छंद की खोज की है...अगर इसका प्रयोग मानवता को और सभ्य बनाने के लिए किया जा सकता है, तो मेरा ख्याल है कि करना चाहिए.
डॉ. दीपक रूहानी, शायर और लेखक

वो आगे कहते हैं कि शुद्ध और साफ तरीके से अगर कोई भी इस तरह से शायरी का पॉलिटकल और सोशल की टूल की तरह इस्तेमाल कर रहा है, तो राहत साहब इसके बेहतरीन उदाहरण हो सकते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

कैसी है राहत साहब के फिल्मी गीतों की दुनिया?

मुशायरों की दुनिया के अलावा उनकी कलम फिल्मी दुनिया में के लिए भी कमाल की चली. उन्होंने कई फिल्मों में शानदार गाने लिखे, जिसे हम और आप गाहे-ब-गाहे गुनगुनाते रहते हैं.

'खुद्दार' फिल्म का गाना "तुम सा कोई प्यारा कोई मासूम नहीं है..." आप जरूर सुनते होंगे, जिसमें गोविंदा और करिश्मा कपूर ने किरदार निभाया है.

काजोल और अजय देवगन स्टारर फिल्म 'इश्क़' का गाना "देखो-देखो जानम हम दिल अपना तेरे लिए लाए..."

'घातक' फिल्म का गाना "कोई जाए तो ले आए मेरी लाख दुआएं पाए..."

'मिशन कश्मीर' फिल्म का गाना 'बूमरो-बूमरो...' और फिल्म 'करीब' गाना 'चोरी-चोरी जब नज़रें मिलीं...'

ये गाने राहत साहब की कलम से निकले थे. इसके अलावा भी उन्होंने कई फिल्मों के लिए शानदार गाने लिखे.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
साहित्य और अदब में दिलचस्पी रखने वाले लोगों को अपनी शायरी के सुनाते-सुनाते 11 अगस्त 2020 में राहत साहब ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

लेकिन राहत साहब के दुनिया से चले जाने के बाद भी आज उन्हें हिंदुस्तान के साथ-साथ दुनिया भर के कई मुल्कों में सुना और पढ़ा जाता है. उनके इंतकाल के बाद राहत साहब के चाहने वाले लोग उनकी कलम से निकले इन मिसरों को बार-बार याद करते हैं.

ए वतन...

इक रोज़ तेरी ख़ाक में खो जायेंगे...सो जायेंगे

मर के भी, रिश्ता नहीं टूटेगा हिंदुस्तान से....ईमान से....!

- राहत इंदौरी

मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना

लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना

- राहत इंदौरी

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×