उत्तर प्रदेश चुनाव के पांचवें चरण में 57% वोट पड़े, जिसमें अयोध्या की 5 सीटें भी थीं, जहां 60% मतदान हुआ. हालांकि जहां पर राम मंदिर का निर्माण हो रहा है उस अयोध्या सदर सीट पर अन्य सीटों की तुलना में सबसे कम 58% वोट पड़े. ये तब हुआ, जब राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया. साल 2017 और 2012 में अबकी बार से ज्यादा वोट पड़े थे. ऐसे में समझते हैं कि आखिर अयोध्या में मतदाताओं ने क्या संदेश देने की कोशिश की है?
अयोध्या सीट पर 10 साल में सबसे कम वोट पड़े
अयोध्या सीट पर साल 2012 में 60% और साल 2017 में 62% वोट पड़े, लेकिन अबकी बार जब राम मंदिर पर फैसला आ गया है तो सिर्फ 58% ही मतदान हुआ. ऐसे में सवाल उठता है कि कम वोटिंग से क्या संकेत मिल रहे हैं. क्या अबकी बार राम मंदिर मुद्दे का तेज थोड़ा कम हुआ है? अयोध्या में बीजेपी को लेकर पहले जैसा उत्साह नहीं रहा?
अयोध्या सदर सीट पर मुख्य मुकाबला एसपी और बीजेपी के बीच माना जा रहा था. बीजेपी ने सिटिंग विधायक वेद प्रकाश गुप्ता को टिकट दिया. एसपी ने तेज प्रताप पांडेय उर्फ पवन पांडेय को मैदान में उतारा. पवन पांडेय वे उम्मीदवार हैं जो साल 2012 में इसी सीट से जीतकर विधायक बने थे और फिर अखिलेश यादव ने मंत्री बना दिया.
31 साल में सिर्फ एक बार एसपी जीत सकी है
अयोध्या सीट पर 1991 से बीजेपी काबिज है. सिर्फ साल 2012 में एसपी के टिकट पर तेज नारायण पांडे ने जीत हासिल की. उसके अलावा इस विधानसभा सीट से बीजेपी को कोई हरा नहीं पाया. हर बार बीजेपी उम्मीदवार को औसत 40% से ज्यादा वोट ही मिले. हालांकि ये असर सिर्फ अयोध्या में ही दिखा. आस-पास की सीटों पर नहीं.
लेकिन अबकी बार के चुनाव में रिवर्स असर हुआ. अयोध्या की सीट पर कम वोट पड़े और बाकी की चार सीटों पर ज्यादा. बीकापुर में 62%, गोसाईगंज में 60%, मिल्कीपुर में 60% और रुदौली में 60% वोट पड़े. अब सवाल की आखिर जहां पर मंदिर का निर्माण हो रहा है, वहां सबसे कम मतदान क्यों? शायद एक बड़ी वजह वोटर में उत्साह की कमी है.
अयोध्या के जरिए पांचवां चरण बीजेपी के लिए लिटमस टेस्ट माना जा रहा था, लेकिन उसमें कहीं न कहीं बीजेपी को झटका लगता दिख रहा है. अगर ये अनुमान सही साबित होता है तो 2024 में लोकसभा के चुनाव में बीजेपी के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती है.
अयोध्या के जरिए यूपी का मिजाज भी जान लेते हैं
अयोध्या सीट छोड़कर आस-पास की सीटों पर बीजेपी खूब हारती रही है
अयोध्या में मिल्कीपुर सीट है, जहां से 1977 के बाद बीजेपी सिर्फ दो विधानसभा चुनाव जीत सकी. इस सीट को 1977 से 1985 तक कम्युनिस्ट पार्टी ने तीन बार जीता. 1989 में कांग्रेस और 1991 में बीजेपी आई. 1993 में फिर से कम्युनिस्ट पार्टी ने वापसी की. 1996, 2002 और 2012 में एसपी, 2007 में बीएसपी और 2017 में बीजेपी आई.
मिल्कीपुर की तरह ही बीकापुर भी अयोध्या से सटा है. 1990 के बाद से यहां सिर्फ 2 बार बीजेपी जीती. एसपी को 4 बार और बीएसपी को साल 2007 में जीत मिली. यानी अयोध्या (फैजाबाद) जैसी जगह पर बीजेपी का कभी भी एकतरफा राज नहीं रहा. इसकी एक बड़ी वजह ओबीसी वोट बैंक है.
यूपी में मंदिर का मुद्दा धीरे-धीरे कमजोर पड़ता दिखा
1992 में विवादित ढांचा तोड़ा गया. इसके बाद अवध सहित प्रदेश की राजनीति बदल गई. 1993 में चुनाव हुए और 422 सीटों में से बीजेपी को सबसे ज्यादा 177(33%), एसपी को 109 (17%) और बीएसपी को 67(11%) सीट मिली. 1996 के चुनाव में बीजेपी को 174(32%), एसपी को 110 (21%) और बीएसपी को 67(19%) सीट मिली. लेकिन 2002 के बाद यूपी में बीजेपी का वोट शेयर लगातार घटा. 2002 में 20%, 2017 में 17%, 2012 में 15% रहा. यानी धीरे-धीरे मंदिर के मुद्दा फीका पड़ता गया और पिछड़ों की राजनीति हावी होती गई. यही असर अवध में भी दिखा. लेकिन जब धर्म की राजनीति के साथ बीजेपी ने पिछड़ों को जोड़ा तब वोटों की संख्या में भारी इजाफा हुआ. 2017 में बीजेपी को यूपी में 40% वोट मिले.
अयोध्या से निकले राम मंदिर के मुद्दे पर सवार होकर बीजेपी सत्ता पर काबिज हुई. वोटर में उत्साह भी रहा, लेकिन अबकी बार जब मंदिर बन रहा है तो कम वोटिंग क्यों? सवाल के जवाब में बीजेपी की आगे की रणनीति छुपी है. पार्टी के लिए चिंता का विषय भी है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लोगों में मंदिर मुद्दे का उत्साह कम पड़ता जा रहा है.
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