हाल की कई घटनाओं ने बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के सिख समुदाय के साथ संबंधों को नए निचले स्तर पर पहुंचा दिया है. इन पर दौर कीजिये:
किसानों के चल रहे विरोध प्रदर्शन के दौरान पंजाब-हरियाणा सीमा पर 21 वर्षीय किसान शुभकरण सिंह (Shubhkaran Singh) की मौत हो गई. प्रदर्शनकारी किसानों का आरोप है कि हरियाणा पुलिस ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी. शुरूआती निष्कर्षों से ऐसा प्रतीत होता है कि शुभकरण सिंह की मौत गोली लगने से हुई है. हरियाणा सरकार ने कुछ प्रदर्शनकारी किसानों पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत मामला दर्ज करने का भी फैसला किया, जिसे बाद में वापस ले लिया गया.
एक अन्य किसान, 62 वर्षीय करनैल सिंह की कथित तौर पर पंजाब-हरियाणा सीमा पर आंसू गैस की गोलीबारी का सामना करने के बाद फेफड़ों के संक्रमण के कारण मृत्यु हो गई है.
पश्चिम बंगाल के एक सिख आईपीएस अधिकारी, जसप्रीत सिंह का आरोप है कि राज्य में बीजेपी के विपक्ष के नेता सुवेंदु अधिकारी ने उन्हें "खालिस्तानी" कहा था. जसप्रीत सिंह का एक वीडियो वायरल है, जिसमें वह कह रहे हैं, "क्या आप मुझे सिर्फ इसलिए खालिस्तानी कह रहे हैं क्योंकि मैं पगड़ी पहनता हूं?"
केंद्र सरकार के आदेश के तहत भारत में किसानों से जुड़े एक्टिविस्ट सहित सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में सिख एकाउंट्स पर रोक लगा दी गई है. सिख समुदाय की शीर्ष संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) ने सरकार पर उसके सोशल मीडिया कंटेंट को भी सेंसर करने का आरोप लगाया है, जिसमें पूरी तरह से पूजा-पाठ से संबंधित पोस्ट भी शामिल हैं.
आईपीएस अधिकारी जसप्रीत सिंह पर कथित टिप्पणी और शुभकरण सिंह की मौत- दोनों घटना एक के बाद एक दिन में हुई. कई सिखों के लिए, इससे यह संकेत गया कि एक सिख किसान की हत्या की जा सकती है और एक सिख पुलिस अधिकारी पर पूरी छूट के साथ खालिस्तानी का लेबल लगाया जा सकता है.
अब, सर्वे के आंकड़ें बताते हैं कि 2014 और 2019, दोनों लोकसभा चुनावों में अधिकांश सिखों ने बीजेपी के खिलाफ मतदान किया था. लेकिन इन घटनाओं ने बीजेपी के नेतृत्व वाले केंद्र और सिख समुदाय के बीच पहले से ही तंग रिश्ते को और खराब कर दिया है.
आखिर चीजें कहां गलत हो रही हैं? इसके तीन पहलू हैं
1. सिखों को केवल राष्ट्रीय सुरक्षा के चश्मे से देखना
बीजेपी वही गलती कर रही है जो इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पीवी नरसिम्हा राव और बेअंत सिंह ने 1980 और 1990 के दशक की शुरुआत में की थी - सिखों के राजनीतिक बुलंद आवाज को पूरी तरह से राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से देखना.
यह याद रखना चाहिए कि ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद, केंद्र और पंजाब सरकार ने लगभग एक दशक तक पंजाब में किसानों, छात्रों या ट्रेड यूनियनों सहित किसी भी प्रकार के विरोध प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया था.
यह मूल रूप से पंजाब के लोगों को उन अधिकारों से वंचित करने जैसा है जिनका लाभ देश के अन्य हिस्सों के लोगों को मिलता था. कश्मीर में भी यही किया गया.
वही सोच वर्तमान में भी चल रही है - जैसा कि अमृतपाल सिंह के खिलाफ कार्रवाई के दौरान और अब चल रहे किसानों के विरोध के दौरान स्पष्ट है. प्रदर्शनकारियों के खिलाफ अत्यधिक बल का प्रयोग - छर्रों, आंसू गैस और कथित तौर पर गोलियों तक का प्रयोग - इसका स्पष्ट प्रमाण है.
फिर आरोप हैं कि भारत सरकार ने कनाडा में हरदीप सिंह निज्जर की हत्या की और संयुक्त राज्य अमेरिका में गुरपतवंत सिंह पन्नून के साथ भी ऐसा ही करने की कोशिश की.
अब, अधिकांश सिख निज्जर या पन्नून के प्रति सहानुभूति नहीं रखते हैं. लेकिन इन आरोपों के बीच, विशेष रूप से निज्जर को अब एक न्यायपालिका की परिधि से बाहर हुई हत्या के शिकार के रूप में देखा जा रहा है. यही बात अमृतपाल सिंह के लिए भी सच है. उसके लिए सहानुभूति उसकी गिरफ्तारी के बाद पहले की तुलना में ज्यादा है.
इसके जड़ में एक बात छिपी है कि मोदी सरकार ने किसानों के विरोध का गलत निचोड़ निकाल लिया है. सरकार और बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व का मानना है कि विरोध प्रदर्शन को राष्ट्र-विरोधी तत्वों ने हाईजैक कर लिया है.
यहां तक कि जब केंद्र ने कृषि कानूनों को वापस ले लिया, तो भी उसने यह तर्क दिया कि यह "राष्ट्रीय हित" में किया गया था क्योंकि "भारत विरोधी ताकतें" पंजाब में परेशानी पैदा करने के लिए विरोध का दुरुपयोग कर रही थीं.
यही सोच है जो किसानों के खिलाफ अत्यधिक बल प्रयोग को सरकार के नजर में उचित बनाती है.
2. सिख विचारों के अधिकांश पहलुओं से जुड़ने में असमर्थता
अब, यह सच है कि संघ परिवार का सिखों के प्रति वैसा वैचारिक विरोध नहीं है, जैसा मुसलमानों या ईसाइयों के प्रति है. वास्तव में, संघ के दृष्टिकोण में, सिख व्यापक हिंदू दायरे में आते हैं. यह एक ऐसी अवधारणा है जिसका सिख संस्थानों को गहरा विरोध है.
हालांकि, उनकी यही सोच सिखों के बारे में उनकी समझ को आकार देती है. वे सिखों की अपनी अलग पहचान बनाए रखने की वास्तविक इच्छा को "कट्टरपंथ" के संकेत के रूप में देखते हैं.
हिंदुत्व इकोसिस्टम में आम धारणा यह है कि सिख धर्म को "निहित स्वार्थों" द्वारा "हाईजैक" किया जा रहा है, जिन्हें "निकालने" या "खामोश" करने की आवश्यकता है.
सोशल मीडिया पर खामोश किए गए सिख एकाउंट्स की विविधता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि न केवल खालिस्तान समर्थक तत्वों को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है, बल्कि किसानों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और कलाकारों को भी संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है.
यहां तक कि एसजीपीसी ने भी आरोप लगाया है कि उसके सोशल मीडिया पोस्ट को सेंसर किया जा रहा है.
यह एक खतरनाक पैटर्न है और यह दर्शाता है कि केंद्र सिखों के किसी भी प्रकार के विचारों के साथ जुड़ने में पूरी तरह असमर्थ है, सिवाय उन मुट्ठी भर लोगों के, जो उनकी विचारधारा का पालन करते हैं.
दुर्भाग्य से, यहां तक कि कैप्टन अमरिन्दर सिंह, हरिंदर सिंह खालसा और कुछ हद तक मनजिंदर सिंह सिरसा जैसे अपेक्षाकृत स्वतंत्र दृष्टिकोण रखने वाले नेता भी अब केंद्र और सिखों के बीच एक पुल के रूप में कार्य करने के बजाय ज्यादातर चुप हैं या पार्टी लाइन का पालन कर रहे हैं.
इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण डेवलपमेंट हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में सिख संस्थानों को प्रभावित करने के लिए बीजेपी सरकारों के प्रयास हैं.
एक जहरीला इकोसिस्टम
एक और समस्या है - हिंदुत्व इकोसिस्टम, जो पीएम मोदी के शासन में फल-फूल रहा है. यह कट्टरपंथी आधार 1980 के दशक में कांग्रेस के साथ था और अब बीजेपी के पास है.
सिखों के खिलाफ ऑनलाइन नफरत कई गुना बढ़ गई है. 2020-21 के किसानों के विरोध प्रदर्शन के दौरान "1984 को दोहराने" की धमकियां बेहद आम हो गईं और तब से वास्तव में कम नहीं हुई हैं.
हिंदुत्व ऑनलाइन इकोसिस्टम ने शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति और अकाल तख्त जैसे शीर्ष सिख निकायों के खिलाफ भी टारगेट करके कैंपेन शुरू किया है.
कई दक्षिणपंथी प्रभावशाली लोग गायक सिद्धू मूस वाला की हत्या के आरोपी लॉरेंस बिश्नोई का गुणगान करते हैं.
यह इकोसिस्टम निज्जर की हत्या को भी उचित ठहरा रहा है- यह एक ऐसा आरोप है जिसे मोदी सरकार लगातार नकार रही है. समस्या यह है कि ये धमकियां सिर्फ आम ट्रोल नहीं दे रहे हैं. यहां तक कि एक बीजेपी विधायक ने भी 1984 को फिर से दोहराने की धमकी देते हुए ट्वीट किया था. उनकी निंदा नहीं की गई और वास्तव में कुछ महीने बाद उन्हें फिर से बीजेपी का उम्मीदवार बना दिया गया.
2023 के राजस्थान चुनाव के दौरान भी एक बीजेपी नेता ने सिखों के खिलाफ नफरत भरा भाषण दिया था, हालांकि बाद में उन्होंने माफी मांगी और उन्हें निलंबित कर दिया गया था.
इस जहर को देखते हुए, यह किसी के लिए आश्चर्य की बात नहीं थी जब एक सिख पुलिस अधिकारी ने एक वरिष्ठ बीजेपी नेता पर उन्हें "खालिस्तानी" कहने का आरोप लगाया.
ऊपर बताए पहले और तीसरे पहलू को खत्म करने में बहुत देर हो चुकी है क्योंकि न तो राष्ट्रीय सुरक्षा से प्रेरित सोच और न ही अल्पसंख्यकों को अपने अधीन करने की हिंदुत्व इकोसिस्टम की इच्छा को रातोंरात खत्म किया जा सकता है.
सिर्फ दूसरे पहलू - सिखों के साथ जुड़ना - पर कदम उठाए जा सकते हैं. एक अच्छी शुरुआत किसानों के साथ बातचीत फिर से शुरू करना और बंदी सिंहों (सिख कैदियों) के लंबे समय से लंबित मुद्दे का समाधान करना हो सकती है.
लेकिन अभी तक कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नजर नहीं आती.
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