6 राज्यों की 7 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव नतीजे (Bypoll Results) किसी एक पार्टी के पक्ष में नहीं गए. बीजेपी ने चार सीटें जीतीं और प्रादेशिक पार्टियों ने तीन. आरजेडी, भारत राष्ट्र समिति और शिवसेना उद्धव गुट को एक सीट मिली. हालांकि उपचुनाव हमेशा कोई राष्ट्रीय ट्रेंड नहीं बताते हैं लेकिन नतीजे हर पार्टियों के लिए अहम संदेश जरूर देते हैं.
यहां हम बीजेपी, कांग्रेस, प्रादेशिक पार्टियों, आम आदमी पार्टी और AIMIM के लिए क्या सबक हैं ये बता रहे हैं. एक सबक गैर बीजेपी पार्टियों के लिए भी है.
यहां हम AAP और AIMIM को अलग कैटेगरी में रख रहे हैं क्योंकि दोनों की अलग राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं.
1. BJP के लिए सबक: क्षेत्रीय दलों को कम न आंकें
इसका सबसे बड़ा उदाहरण तेलंगाना में मुनुगोड़े विधानसभा क्षेत्र का उपचुनाव है जिसे बीआरएस ने जीता था. बीजेपी ने सोचा कि ये सीट उसके बैग में है, खासकर पिछले साल हुजुराबाद उपचुनाव और 2020 में दुबक में जीत के बाद. बीजेपी का फॉर्मूला हुजूराबाद के समान था - किसी अन्य पार्टी के एक मजबूत नेता को हथियाना, उससे इस्तीफा दिलवाना और फिर उपचुनाव में अपनी ताकत दिखाना.
हुजुराबाद में उसने टीआरएस के पूर्व नेता एटाला राजेंदर के माध्यम से इसे सफलतापूर्वक किया था और कांग्रेस विधायक कोमातीरेड्डी राजगोपाल रेड्डी के माध्यम से मुनुगोडे में इसे दोहराने की कोशिश कर रही थी. पार्टी ने तो यह दावा भी करना शुरू कर दिया था कि मुनुगोड़े में जीत का अंतर हुजूराबाद से ज्यादा होगा. ऐसा करने के लिए बीजेपी ने बहुत सारे संसाधन भी लगाए थे.
हुजुराबाद में उसने टीआरएस के पूर्व नेता एटाला राजेंदर के माध्यम से इसे सफलतापूर्वक किया था और कांग्रेस विधायक कोमातीरेड्डी राजगोपाल रेड्डी के माध्यम से मुनुगोडे में इसे दोहराने की कोशिश कर रही थी. पार्टी ने तो यह दावा भी करना शुरू कर दिया था कि मुनुगोड़े में जीत का अंतर हुजूराबाद से ज्यादा होगा. ऐसा करने के लिए बीजेपी ने बहुत सारे संसाधन भी लगाए थे.
हालांकि, भारत राष्ट्र समिति एक चतुर प्रतिद्वंद्वी साबित हुई. पैसे पहुंचाने का आरोप लगाने से लेकर कथित विधायक खरीद घोटाले तक.. बीआरएस ने बीजेपी को बैकफुट पर ला दिया. मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की आक्रामकता ने बीजेपी को भी हैरान कर दिया.
अंधेरी पूर्व सीट उपचुनाव में शिवसेना उद्धव बालासाहेब ठाकरे भी उतरी थी. बीजेपी और उसके सहयोगी - बालासाहेबंची शिवसेना - ने पहले कथित तौर पर मृतक शिवसेना विधायक रमेश लटके की पत्नी रुतुजा लटके को चुनाव लड़ने से रोकने की कोशिश की. तब बीजेपी ने उनके खिलाफ उम्मीदवार उतारा था. लेकिन बाद में दिवंगत विधायक के समर्थन का हवाला देते हुए इसे वापस ले लिया.
रुतुजा लटके ने करीब 65,000 वोटों के भारी अंतर से जीत हासिल की. वास्तव में नोटा को सीट पर दूसरे सबसे ज्यादा वोट मिले - 12806.
फिर बिहार में, राष्ट्रीय जनता दल ने मोकामा सीट जीती और गोपालगंज में दूसरे स्थान पर रही. हालांकि आरजेडी गोपालगंज हार गई, लेकिन 2020 के विधानसभा चुनावों की तुलना में इसके वोट शेयर में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई. 2020 में, आरजेडी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने कांग्रेस को सीट आवंटित की थी जिसे लगभग 20 प्रतिशत वोट मिले थे. इस उपचुनाव में आरजेडी इससे दोगुने वोट हासिल करने में कामयाब रहा.
आरजेडी ने 20 वर्षों में सीट नहीं जीती है, इसलिए उसका प्रदर्शन तारीफ लायक है.
2. कांग्रेस के लिए सबक: जहां बचा सकते हैं मुख्य विपक्षी का तमगा बचाएं
इन उपचुनावों में जिन सात सीटों पर मतदान हुआ था, उनमें से कांग्रेस ने चार सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा. जिन लोगों ने चुनाव लड़ा, उनके लिए इसमें एक महत्वपूर्ण सबक था. तेलंगाना में मुनोगोडे और ओडिशा के धामनगर दोनों का संदेश है कि कांग्रेस बीजेपी के लिए रास्ता दे रही है, मुनुगोड़े में अपनी जमानत नहीं बचा पाना कई कारणों से पार्टी के लिए निराशाजनक है.
सबसे पहले, परिणाम ने इस धारणा को और बल दिया कि बीजेपी तेलंगाना में सत्तारूढ़ बीआरएस के मुख्य विपक्ष के रूप में उभर रही है. दूसरा, परिणाम इस तथ्य के बावजूद है कि राज्य में कांग्रेस, विशेष रूप से इसकी राज्य इकाई के प्रमुख रेवंत रेड्डी और मुख्य रणनीतिकार सुनील कानूनगोलू के आसपास बहुत प्रचार किया गया है. कम से कम कनुगोलू के प्रदर्शन को लेकर कुछ सवाल उठ सकते हैं.
तीसरा, मुनुगोड़े अभियान ऐसे समय में आया है जब राहुल गांधी के नेतृत्व वाली भारत जोड़ो यात्रा तेलंगाना से होकर गुजर रही है. हालांकि यात्रा मुनुगोड़े या आसपास के इलाकों से नहीं गुजरी, लेकिन पार्टी को उम्मीद थी कि यात्रा उसे सीट पर कुछ लाभ दे सकती है. लेकिन स्पष्ट रूप से ऐसा नहीं हुआ.
वास्तव में कथित विधायक खरीद कांड यात्रा पर नहीं बल्कि राजनीतिक विमर्श पर हावी था.
ओडिशा के धामनगर में परिणाम अपेक्षित तर्ज पर है. पूरे राज्य में कांग्रेस का पतन हो रहा है, और विशेष रूप से इस सीट पर, पिछले एक दशक से अधिक समय से. पार्टी पिछले दो चुनावों में 10 प्रतिशत वोटों को पार करने में विफल रही है और अब यह केवल दो प्रतिशत रह गई है.
ओडिशा में, कांग्रेस स्पष्ट रूप से पिछले कुछ समय से मुख्य विपक्ष के रूप में अपनी स्थिति खो चुकी है. ये सुनिश्चित करने के लिए कड़ी मेहनत करने की जरूरत है कि तेलंगाना में उसका वैसा ही हश्र न हो जाए.
एक राज्य जहां पार्टी खुद को मुख्य विपक्षी बनाये रखने में कामयाब रही, वह था हरियाणा, जहां पार्टी 39 प्रतिशत वोट शेयर के साथ दूसरे स्थान पर रही. यह सीट कांग्रेस नेता कुलदीप बिश्नोई के बेटे भव्य बिश्नोई ने जीती थी, जो हाल ही में बीजेपी में शामिल हुए थे.
बिश्नोई का सीट जीतना कोई आश्चर्य की बात नहीं है. कई बार दल बदलने के बावजूद भजनलाल परिवार 1968 से आदमपुर जीत रहा है. उन्होंने चार अलग-अलग दलों - कांग्रेस, जनता पार्टी, हरियाणा जनहित कांग्रेस और अब बीजेपी के टिकट पर सीट जीती है.
ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने INLD और बीजेपी की सहयोगी जेजेपी के होने के बावजूद लगभग पूरे जाट वोट पर कब्जा कर लिया है. यह राज्य में पार्टी के लिए शुभ संकेत हैं.
3. क्षेत्रीय दलों के लिए सबक: BJP हमेशा गेम में रहती है
ओडिशा की धामनगर सीट पर बीजेपी ने जीत हासिल की. ये जीत सत्तारूढ़ बीजू जनता दल के लिए के चेतावनी भी है. हालांकि, इस सीट पर बीजेपी का ही विधायक थे, क्योंकि बीजेपी ने 2019 के विधानसभा चुनावों में यह सीट BJD से छीनी थी. इस लिहाज से ओडिशा में सत्तारूढ़ दल के लिए कोई नुकसान नहीं है, लेकिन बीजेपी जितना अधिक BJD विरोधी वोट को मजबूत करेगी, BJD लिए यह उतना ही मुश्किल होता जाएगा.
बिहार में महागठबंधन को भी यही सबक लेने की जरूरत है. गोपालगंज की हार, वोट शेयर में वृद्धि के बावजूद, यह दर्शाती है कि अकेले जातीय समीकरण जीत की गारंटी नहीं दे सकता. उन्हें गठबंधन के भीतर और अपनी-अपनी पार्टियों में भी मतभेदों को दूर करने की जरूरत है. कहा जाता है कि लालू प्रसाद के साले साधु यादव ने पार्टी की हार में भूमिका निभाई थी.
तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार दोनों को यह समझना चाहिए कि बीजेपी उनके हर कमजोरी का फायदा उठाएगी.
BRS को भी सावधान रहना चाहिए. मुनुगोड़े में उसकी जीत का अंतर कम था और राज्य सरकार के खिलाफ स्पष्ट रूप से कुछ सत्ता विरोधी लहर है. इसका फायदा उठाने की कोशिश करने के लिए बीजेपी अपने विशाल संसाधनों को लगाना जारी रखेगी.
अंधेरी ईस्ट में 14 प्रतिशत NOTA वोट भी बीजेपी की करतूत बताया जा रहा है.
4. मुस्लिम वोटों को जागीर न समझें
AIMIM ने बिहार के गोपालगंज में 7 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल किए और RJD की हार का एक कारण भी हो सकती है. लेकिन RJD वास्तव में AIMIM को हार के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकती. स्पष्ट रूप से सरकार में इसके प्रदर्शन में कुछ कमी थी कि 7 प्रतिशत मतदाताओं - जो गोपालगंज में मुसलमानों के एक तिहाई से थोड़ा कम हैं - ने इसके बजाय AIMIM को वोट देने का विकल्प चुना.
साथ ही यहां में महागठबंधन ने पिछले दो चुनावों में भी एक मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में उतार रहा था. इस बार उन्होंने जाति से एक बनिया उम्मीदवार को मैदान में उतारा और हो सकता है कि कुछ मुस्लिम वोट AIMIM की ओर चले गए हों और कुछ यादव वोट BSP के यादव उम्मीदवार को.
5. AIMIM के लिए सबक: अपनी लड़ाई समझदारी से चुनें
AIMIM के लिए भी गोपालगंज का चुनावी नतीजा एक सबक लेकर आया है. जरूर, पार्टी ने बिहार में अपने चार विधायकों के RJD में दलबदल के लिए उससे इस तरह बदला ले लिया होगा, लेकिन यह भी सच है कि यह ऐसी सीट नहीं थी जिसे AIMIM जीत सकती थी. यहां की मुस्लिम आबादी 30 फीसदी से कम है और 50 फीसदी से ज्यादा नहीं है, जैसे सीमांचल में उसने जीती थी.
इसलिए, यह स्पष्ट है कि AIMIM ने सिर्फ अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और RJD के सामने खुद को साबित करने के लिए चुनाव लड़ा था. AIMIM को 'बी-टीम' का टैग देना अन्य पार्टियों द्वारा की गयी सिर्फ एक आलसी व्याख्या है, फिर भी यह सच है कि गोपालगंज के नतीजे का इस्तेमाल इन पार्टियों द्वारा गुजरात में मुस्लिमों को यह बताने के लिए किया जाएगा कि AIMIM को वोट देने से बीजेपी को मदद मिल सकती है.
अंत में, यह जमीन पर मौजूद मुसलमान ही किसी पार्टी के सत्ता में आने और न आने की कीमत चुकाएंगे - विशेष रूप से यह देखते हुए कि प्रशासन उनके खिलाफ बुलडोजर का उपयोग कैसे कर रहा है.
6. AAP के लिए सबक: हरियाणा के नतीजे उम्मीद तोड़ते हैं
पंजाब में जीत के बाद, पड़ोसी राज्यों जैसे हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में आम आदमी पार्टी के आसपास काफी चर्चा थी. इस साल जून में, AAP कुरुक्षेत्र जिले में इस्माइलाबाद नगर पालिका को जीतने में कामयाब रही और कथित तौर पर निकाय चुनावों में 10 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल किए.
यह पार्टी के लिए उत्साहजनक संकेत था, लेकिन आदमपुर उपचुनाव के नतीजे उसके लिए बड़ी निराशा के तौर पर सामने आए हैं. जोरदार अभियान चलाने के बावजूद पार्टी को इस सीट पर केवल 2.6 फीसदी वोट ही मिल सके.
ऐसा लगता है कि केजरीवाल के जन्म वाले राज्य में AAP के लिए ज्यादा जगह नहीं है. जैसे हिमाचल में विपक्ष के रूप में कांग्रेस की मौजूदगी से AAP के लिए पैठ बनाना मुश्किल बना रहा है.
साथ ही लगता है AAP को राज्य की जातिगत गतिशीलता का पता नहीं चल पाया है.
कांग्रेस स्पष्ट रूप से राज्य के छोटे मुस्लिम अल्पसंख्यकों के समर्थन के अलावा जाट और दलित वोटों को मजबूत करने की कोशिश कर रही है. राज्य स्तर पर बीजेपी ज्यादातर गैर जाटों को एकजुट करने की कोशिश कर रही है. INLD और जेजेपी दोनों जाट बहुल दल हैं. यह स्पष्ट नहीं है कि आम आदमी पार्टी हरियाणा में खुद को कैसे खड़ा कर रही है. आप के हरियाणा प्रभारी सुशील गुप्ता की तरह केजरीवाल बनिया हैं, लेकिन बनिया समुदाय फिलहाल बीजेपी के साथ मजबूती से खड़ा है.
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