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UP: चंद्रशेखर का साथ मिला तो कितना सफल होगा Cong का ‘गुजरात मॉडल’

अगर कांग्रेस को मिला चंद्रशेखर का साथ तो यूपी की राजनीति में आ सकता है नया ट्विस्ट

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मायावती ने कांग्रेस को झटका देकर यूपी में विपक्षी दलों के गठबंधन की उम्‍मीद को धुंधला कर दिया है. चूंकि ये राजनीतिक तोल-मोल का धुंधलापन है, लिहाजा इसकी उम्र कम ही है. लोकसभा चुनाव में अभी वक्त है, लेकिन मायावती के लिए ये समय बड़ा ही चुनौती भरा है. उनका कोई भी दांव अगर गलत लगा, तो नुकसान विपक्षी गठबंधन से कहीं ज्यादा मायावती को उठाना पड़ सकता है.

पश्चिमी यूपी में जिस तरह चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण का वर्चस्व बढ़ रहा है और मायावती उसे आरएसएस का एजेंट बताने की कोशिश कर रही हैं, हकीकत में ये इतना आसान नहीं, जितना समझा जा रहा है.

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मायावती ने छत्‍तीसगढ़ में अजित जोगी से समझौता कर कांग्रेस को नया विकल्प तलाशने के लिए रास्ता दे भी दिया है. ऐसे में अगर कांग्रेस ने रावण पर अपना दांव खेल दिया, तो ये मायावती के लिए खतरे की घंटी हो सकती है.

रावण को पश्चिमी यूपी में रोकने की कोशिश

चंद्रशेखर आजाद को समय से पहले जेल से रिहा करवाकर बीजेपी ने दलितों को अपने पाले में खींचने के लिए पासा फेंका था, लेकिन रावण ने जेल से आजाद होते ही बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और मायावती के साथ रिश्ते को मजबूत करने के लिए अपनापन दिखाया. लेकिन मायावती ने इस रिश्ते को पूरी तरह खारिज कर दिया.

यह देखने में आ रहा है कि रावण के बढ़ते कद और दलितों के बीच प्रभाव से मायावती डरी हुई हैं, क्योंकि रावण की लोकप्रियता एक ऐसे वर्ग में सिर चढ़कर बोल रही है, जो सोशल मीडिया पर पूरी तरह सक्रिय है. इसका असर दूर-दूर तक होने वाला है. ये युवा पढ़ा लिखा है और चंद्रशेखर के साथ रहने में उसे अपना हित दिखाई दे रहा है, जहां उसे सम्मान के साथ ही ताकत मिलने की उम्मीद नजर आती है.

मायावती बखूबी जानती हैं कि अगर आजाद पश्चिमी यूपी से बाहर निकल गया, तो उसे कंट्रोल कर पाना मुश्किल होगा.

देश में दलितों की हिस्सेदारी

  • अनुसूचित जाति -16.63 फीसदी
  • अनुसूचित जनजाति- 8.6 फीसदी
  • 543 संसदीय सीटों में से करीब 28 प्रतिशत, यानी 150 से ज्यादा सीटें एससी-एसटी बहुल

अब अगर कांग्रेस कहीं गुजरात मॉडल के नक्शे कदम पर चल पड़ी (जिसे गठबंधन में सबसे निचले पायदान पर रखा गया है), जैसे कि गुजरात में दलित नेता जिग्नेश मेवाणी, पिछड़ा वर्ग के नेता अल्पेश ठाकोर और हार्दिक पटेल को अलग-अलग फ्रंट पर जोड़कर बीजेपी को कड़ी टक्कर दी थी, तो फिर ये सिर्फ मायावती को ही नहीं, बल्कि पूरे गठबंधन पर असर डालेगा.

लेकिन अभी इस यूथ ब्रिगेड पर बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता है, क्योंकि दलित वोटबैंक में सेंध लगाना आसान नहीं होगा. आज भी मयावती के एक इशारे पर दलितों का जनसैलाब उमड़ पड़ता है.

दूसरी ओर राजनीति के अनुभवी शख्‍स‍ियतों का कहना है कि यह भी नहीं भूलना चाहिये कि हर चीज की एक उम्र होती है और दलितों में ही एक नई पीढ़ी तैयार हो रही है, जो शायद मायावती से ज्यादा चंद्रशेखर पर भरोसा कर रही है.

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दलित को मायावती ने सम्मान दिलाया, अब ताकत चाहिए

एक बड़े ही सीनियर जर्नलिस्ट, जिनकी उम्र तकरीबन 85 साल होगी, उनसे मेरी मुलाकात हुई. दलित वोटों की टेंडेंसी पर चर्चा शुरू हुई, तो उन्होंने बहुत पुरानी कहानी सुनाई. उन्होंने बताया कि 1977 की इमरजेंसी के बाद कांग्रेस के खिलाफ जनता पार्टी बनी, जिसमें कांग्रेस से इस्तीफा देकर आये जगजीवन राम ने भी समर्थन दिया. जगजीवन राम दलितों के सबसे बड़े नेता थे. चूंकि सियासत में बहुत बड़ा बदलाव हो रहा था, तो हम लोग कानपुर जिले के हाइवे से सटे एक गांव में गये. वहां दलितों के रुझान के बारे में जानना चाहा.

वहां एक स्कूल टीचर से मुलाकात हुई, उनसे पूछने पर उस शिक्षक ने बताया कि अभी तय तो नहीं है, लेकिन कांग्रेस को ही वोट होगा. इस पर पत्रकार ने पूछा कि जगजीवन बाबू ने कांग्रेस छोड़ दी है. टीचर ने जवाब दिया कि कांग्रेस ने दलित का विकास जितना हो सका, किया है. जगजीवन बाबू को देखते हैं, वो क्या कर पाते हैं और फिर अगली बार सोचेंगे.

यही जर्नलिस्ट 1989 में फिर कानपुर के उसी गांव में पहुंचे. ये इत्तेफाक था कि उसी टीचर से मुलाकात हुई. ये वो दौर था जब मायावती तेजी से उभर रही थीं. “तिलक,तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार” जैसे उत्तेजक नारे उन्हें दलितों से कनेक्ट कर रहे थे. पत्रकार ने पूछा कि इस बार कहां जायेगा दलित? टीचर ने कहा कि दलित विकास के रास्ते पर है, बड़ी नौकरियों में भी दलितों की भागीदारी हो रही है. लेकिन अब उन्हें सम्मान चाहिये, जो मायावती दिला सकती हैं.

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दलित युवाओं का रोल मॉडल बन रहा है रावण

ये सही है कि दलित अब सम्मान के साथ ताकत चाहता है, जो उसे चन्द्रशेखर में दिखाई दे रही है. पश्चिमी यूपी में 38 साल का चन्द्रशेखर लंबी कद-काठी वाला युवा दलितों का रोल मॉडल बन रहा है. भीम आर्मी के जरिए वो दलितों को सवर्णों से लड़ने की हिम्मत दे रहा है. वॉट्सऐप, फेसबुक,ट्विटर चलाने वाली दलितों की युवा पीढ़ी आजाद की दीवानी है.

हां, यह जरूर है कि दलित बुद्धजीवी वर्ग आजाद को अब भी खारिज कर रहा है. उन्हें आजाद से बीएसपी के वोट बैंक पर कोई खतरा नहीं नजर आता. लेकिन शायद वो भूल गये कि “ट्रेडिशनल दलित पॉलिटिक्स” से हटकर 2 अप्रैल को भारत बंद कर “दलित यूथ” ने अपनी ताकत दिखाई थी, जिसका अंदाजा किसी को नहीं था.

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राजनीति में आ सकता है नया ट्विस्ट

कांग्रेस इसे भली भांति समझ रही है, लिहाजा वो इस दलित ताकत को अपने साथ जोड़ सकती है और सिर्फ पश्चिमी यूपी के चंद जिलों तक सीमित आजाद को दलितों के नेता के तौर पर मैदान में लाने की कोई कोशिश नहीं छोड़ेगी. हो सकता है कि चन्द्रशेखर भी गुजरात के जिग्नेश की तरह कांग्रेस के सिम्बल पर चुनाव न लड़ें, लेकिन अगर वह कांग्रेस के साथ सिर्फ खड़ा भी हो गया, तो यूपी की राजनीति में नया ट्विस्ट आ सकता है.

एक प्रयोग कांग्रेस कर सकती है जैसा उसने गुजरात में किया. जिस तरह से जिग्नेश मेवाणी के जरिए राज्य में बीजेपी का कड़ा मुकाबला किया था. हालांकि बीएसपी भी यहां अकेले चुनाव मैदान में उतरी थी. अब उसी तर्ज पर मध्य प्रदेश में दलित युवा नेता देवाशीष जरारिया को पार्टी ने अपने साथ मिला लिया है. प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ के नेतृत्व में जरारिया ने कांग्रेस का दामन थाम लिया है. जरारिया को मध्य प्रदेश का 'जिग्नेश मेवाणी' कहा जाता है. कुछ राजनीतिक विश्लेषक ऐसा ही कुछ उत्तर प्रदेश में भी होने की संभावना से इनकार नहीं कर रहे हैं.

दूसरी ओर आजाद का कहना है कि यूपी में करीब 21 फीसदी आबादी दलितों की है, यूपी में लोकसभा की कुल 80 सीटों में अनुसूचित जाति के लिए17 सीटें आरक्षित हैं. इन सभी सीटों पर सीधा प्रभाव है. आजादा का दावा है कि अगर दलितों के अलावा राज्य की 19 फीसदी मुस्लिम आबादी साथ आ गयी, तो बीजेपी कहीं दिखाई नहीं देगी.

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चंद्रशेखर अब रावण नहीं, आजाद बनना चाहता है

चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण का जन्म उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के चटमलपुर में हुआ. रावण ने कानून पढ़ाई की और उसने भीम आर्मी बनाई, जो कि दलितों के लिए पढ़ाई और अन्य सेवाएं मुहैया करवाती है.

चंद्रशेखर आजाद खुद को रावण कहलाना ज्यादा पसंद करते थे, लेकिन अब वो आजाद बनना चाहते हैं. वो जानते हैं कि रावण बनकर सीमित दायरे में प्रभाव बनाया जा सकता है, लेकिन अगर देश की राजनीति में बड़ा बनना है, तो छोटी चीजों से आजाद होना होगा. ऐसा दिख भी रहा है कि मायावती के बार-बार नकारने के बाद भी वो उन्हें देश के प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किये जाने की बात कह रहे हैं.

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