कम्युनिस्ट धड़े को 2005 में बिहार विधानसभा में बस एक सीट मिली थी. इस बार 6
वामपंथी पार्टियों ने अपने गठबंधन को चुनावी मैदान में उतारा. और उन्हें इसका फायदा
भी मिला.
एक ओर जहां महागठबंधन (जेडीयू+आरजेडी+कांग्रेस) की लहर ने एनडीए, असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम, मुलायम सिंह, पप्पू यादव और एनसीपी को धो दिया, वहीं कम्युनिस्टों की सीटें बढ़ी है.
तीन सीटों के साथ वाम गठबंधन राम विलास पासवान और जीतन राम माझी की संयुक्त सीटों की बराबरी पर है.
हालांकि, तीनों सीटें सीपीआई (एमएल) लिबरेशन को मिली हैं, और पारंपरिक रूप से मजबूत सीपीआई और सीपीआई (एम) के लिए, परिणाम अच्छे नहीं रहे हैं.
कम नहीं वामपंथियों की आपसी प्रतिद्वंद्विता
हम में से अधिकतर को सारे कम्युनिस्ट एक जैसे लगते हैं. पर वैचारिक और सांप्रदायिक आधार पर इन पार्टियों के लाल रंग की कई छटाएं देखने को मिलती हैं जिसमें हिंसा का गहरा लाल रंग भी शामिल है.
कम्युनिस्ट पार्टियों के आपसी मतभेदों की जड़े बहुत पीछे तक जाती हैं. भारत को 1947 में मिली स्वतंत्रता के क्या अर्थ निकाले जाएं, अन्य कम्युनिस्ट देशों से कैसे संबंध रखे जाएं या फिर देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया से किस हद तक जुड़ा जाए, जैसे मुद्दों पर इनके विचार अलग-अलग हैं.
चुनाव लड़ने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों (माओवादी और नक्सलवादी पार्टियां चुनाव नहीं लड़तीं) में सीपीआई (एमएल) लिबरेशन सबसे उग्र है. ये पार्टी नक्सलियों का राजनैतिक चेहरा है, और उनसे अच्छे रिश्ते रखती है.
इस बार बिहार के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सीपीआई (एमएल) लिबरेशन सबसे सफल कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में उभरी है. और यह एक ऐसी पार्टी है जो लोकतांत्रिक प्रणाली में सबसे कम यकीन रखती है.
क्या यह एनडीए के खिलाफ दिया गया वोट था? शायद नहीं.
सीपीआई (एमएल) लिबरेशन ने सभी सीटों पर एनडीए के ही उम्मीदवारों को हराया है. बांका जिले के तरारी में सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के सुदामा प्रसाद सिर्फ 289 वोट के मार्जिन से जीते जो बिहार में सबसे कम था. इस रिजर्व सीट पर कम्युनिस्ट उम्मीदवार ने एलजेपी उम्मीदवार को हराया जबकि बाकी दो सीटों पर बीजेपी उम्मीदवारों को बड़े अंतर से दूसरा स्थान मिला.
पर इसका मतलब यह नहीं निकाला जा सकता कि इन्हें बीजेपी की केन्द्र सरकार के खिलाफ वोट मिला.
सीपीआई (एमएल) लिबरेशन और इसकी वामपंथी विचारधारा का बिहार में पुराना इतिहास है. ग्रामीण बिहार और पड़ोसी राज्य झारखंड पिछले कई दशकों से नक्सलवाद के गढ़ रहे हैं.
माले के नाम से भी जानी जाने वाली इस पार्टी की गरीब तबके पर मजबूत पकड़ है.
इसके उम्मीदवार भी एक लंबे समय से राज्य में काम कर रहे हैं, जिनमें से कुछ अनुभवी विधायक भी हैं. एक बड़े अंतर से बलरामपुर में जीतने वाले महबूब आलम दो बार विधानसभा के लिए चुने जा चुके हैं.
बनी रहेगी पड़ोसी बंगाल में कम्युनिस्टों की एकता?
बिहार चुनावों के बाद अब सभी की नजरें 2016 में होने वाले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों पर टिक गई हैं. बीजेपी को जहां सीपीआई (एम) के साथ संबंध मजबूत करने की फिक्र है वहीं सीताराम येचुरी ममता बनर्जी का सामना करने के लिए अपनी पार्टी को पुनर्जीवित करने की कोशिश में लगे हैं.
नंदीग्राम और सिंगुर में सीपीआई (एम) के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों में नक्सली और उनके मोर्चें ही थे.
बिहार चुनाव में माले की सफलता बंगाल में ‘चरम वामपंथी’ को मजबूत कर इसे अकेले चुनाव लड़ने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है.
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