‘जब नरेंद्रभाई मुख्यमंत्री थे, तो हमने 120 सीटें जीतीं. अब जबकि वो प्रधानमंत्री हैं, तो हमें 150 सीटें जीतनी हैं.’
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी की बंपर जीत के करीब दो महीने बाद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने ये बात गुजरात के छोटा उदयपुर जिले के देवलिया गांव में कही थी. आदिवासी आबादी के उस इलाके में कांग्रेस पार्टी का खासा असर माना जाता है. शायद इसीलिए शाह ने कार्यकर्ताओं के सामने जोर देकर ये बात दोहराई.
गुजरात चुनावों के लिए भारतीय जनता पार्टी का ‘मिशन 150’ एक रुटीन टारगेट नहीं है. ये एक सपना है, जो बीजेपी आलाकमान के दिल में कई बरसों से पल रहा है. एक ऐसा ख्वाब, जो साल 2002 से 2014 के उस वक्त में पूरा नहीं हो पाया, जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और बीजेपी की लोकप्रियता अपने शबाब पर थी.
क्या है ‘मिशन 150’ का राज?
‘मिशन 150’ का राज छुपा है 32 साल पहले, साल 1985 के चुनाव नतीजों में.
1985 में दिग्गज नेता माधव सिंह सोलंकी की अगुवाई में कांग्रेस(आई) ने गुजरात की 182 में से 149 सीटें और 55.55% वोट शेयर हासिल कर वो रिकॉर्ड कायम किया था, जो आज तक नहीं टूट पाया.
उस साल बीजेपी को सिर्फ 11 सीटें मिली थीं. नंबर दो पर जनता पार्टी थी, जिसके हिस्से 14 सीटें आई थीं.
लेकिन 1985 के बाद चुनाव-दर-चुनाव बीजेपी ने अपने प्रदर्शन में जबरदस्त सुधार किया और 1995 में 121 सीटें जीतकर सूबे की सत्ता पर काबिज हो गई.
ग्राफ से साफ है कि बीजेपी का बेस्ट स्कोर यानी 127 सीट साल 2002 में था. यानी गुजरात दंगों का वो साल, जब हिंदुत्व की भगवा लहर के दम पर कमल खिलखिला रहा था.
जानकारों का मानना है कि पूर्व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के उफान के दौर में भी बीजेपी 150 का असंभव सा दिखने वाला टारगेट सेट नहीं कर पाई.
लेकिन 2014 के आम चुनाव में बीजेपी को 282 और यूपी विधानसभा में 309 सीटें जीतकर अमित शाह को कोई भी लक्ष्य पहुंच से बाहर नहीं लगता.
यूपी की जीत की खुमारी कुछ ऐसी है कि गुजरात में जीत का टारगेट तय करने के बाद पीएम मोदी और अमित शाह की तस्वीरों के साथ ‘यूपी में 300, गुजरात में 150’ के होर्डिंग सूबे में जगह-जगह दिखने लगे.
‘मिशन इंपॉसिबल’ पूरा कर पाएगी बीजेपी?
पिछले 22 साल में बीजेपी की जीत का आंकड़ा 115 से नीचे नहीं गिरा. लेकिन इस बार चुनौती जरा मुश्किल है. 2014 के बाद पीएम मोदी के दिल्ली जाने के बाद से गुजरात बीजेपी से ‘मोदी टच’ गायब है.
पाटीदारों का आंदोलन, ओबीसी की नाराजगी, किसानों-युवाओं का गुस्सा, कारोबारियों पर जीएसटी और नोटबंदी के असर जैसे स्पीड-ब्रेकरों पर बीजेपी के प्रचार की गाड़ी हिचकोले खा रही है.
‘विकास गांडो थ्यो छै’ यानी ‘विकास पागल हो गया है’ जैसे सोशल मीडिया कैंपेन का जोर पकड़ना बीजेपी के लिए अपने ही हथियार से घायल होने की तरह है. शायद यही वजह है कि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने भले ही 150 सीटों का टारगेट तय कर दिया हो, लेकिन पिछले कई दिनों से बीजेपी नेता अपने भाषणों में उसे बार-बार नहीं दोहरा रहे.
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के दौरे के दौरान ही गुजरात में पेट्रोल-डीजल का सस्ता होना और नई कपड़ा नीति से व्यापारियों को लुभाने जैसे कदम भी बीजेपी खेमे में घबराहट की गवाही देते हैं.
बीजेपी के प्लस प्वाइंट
लेकिन बीजेपी का एक मजबूत पक्ष है, वो है वोटर को उसके घर से निकालर पोलिंग बूथ तक लाना.
पिछले साल गुजरात में 71.32% पोलिंग हुई थी और कुल वोटिंग का 47.85% बीजेपी ने हासिल किया था. माना जाता है कि इसमें पार्टी के तौर पर बीजेपी की लोकप्रियता के अलावा पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की बूथ लेवल प्लानिंग का बड़ा हाथ था.
अभी प्रचार में बीजेपी का 'ट्रंप कार्ड' यानी पीएम नरेंद्र मोदी का निकलना भी बाकी है. पार्टी के नेता दावा करते हैं कि मोदी की रैलियां हवा का रुख पूरी तरह बीजेपी के पक्ष में करने की ताकत रखती हैं.
लेकिन गुजरात की पॉलिटिक्स पर बारीक नजर रखने वालों का मानना है कि बीजेपी पिछले 15 सालों के सबसे खराब वक्त से गुजर रही है. ऐसे में अगर वो कंफर्टेबल जीत हासिल करती है, तो वो बीजेपी की जीत कम, कांग्रेस की हार ज्यादा होगी.
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