सूरत के कारोबारियों की नाराजगी और फिर हार्दिक पटेल की रैली में भारी भीड़, अति आत्मविश्वास से भरी बीजेपी के लिए गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले ये दोहरा झटका था. यही वजह है कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को चुनाव प्रचार के पहले दौर से दूर रखा गया था, आखिरी एक महीने में उसी का सहयोग लेना पड़ा.
संघ के नेताओं का क्या कहना है?
चार बड़े संघ से जुड़े नेताओं से बातचीत में ये बात सामने आई है कि RSS और इसके सहयोगी संगठन चुनाव प्रचार के शुरुआती दौर में कार्यक्रम से दूर ही रहे. लेकिन जैसे-जैसे कांग्रेस और उसके सहयोगी तीन नेताओं हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर की आवाज बुलंद होती दिखी, बीजेपी नेताओं का टेंशन बढ़ने लगा. सबसे ज्यादा घबराहट इस बात से थी कि बीजेपी के शहरी गढ़ में सेंध न लग जाए. आरएसएस से जुड़े एक वरिष्ठ पदाधिकारी बताते हैं-
बीजेपी की जमीन बचाने में ‘व्यापारी या गद्दारी’ नारे का अहम योगदान रहा है. इस नारे को व्यापारी और पाटीदार समाज के बीच बुलंद किया गया, आखिरी दौर में इसी नारे ने जमीन बचाकर दिखाई.
दरअसल, सूरत और आसपास के इलाकों में बीजेपी की हालत ठीक नहीं थी, हार्दिक की सूरत में हुई रैली भी इस बात की ओर इशारा कर रही थी. कहा जा रहा था कि सूरत की 12 में से आधे से ज्यादा सीटें बीजेपी को गंवानी पड़ सकती हैं.
लेकिन नतीजों से ये साफ है कि सूरत ने तो बीजेपी का साथ दिया है. इसी तरह कुछ हद तक शहरों में रहने वाले पाटीदार समाज ने भी बीजेपी पर अपना भरोसा दिखाया है.
संवाद यात्रा भी रही पार्टी के लिए फायदेमंद
संघ परिवार ने परिवार संवाद यात्रा के जरिए भी कई परिवारों को बीजेपी के साथ, फिर एक बार खड़े होने में बड़ी भूमिका निभाई, इसके लिए गुजरात के हर कोने में संघ के स्वयंसेवकों के साथ 'वनवासी कल्याण आश्रम' के लोगों ने ज्यादा से ज्यादा घरों तक पहुंचने की कोशिश की.
ये बात किसी से छिपी नहीं है कि मोदी सरकार की कार्यशैली पर संघ परिवार के कई सहयोगी संगठन नाराज हैं. भारतीय मजदूर संघ समेत दूसरे संगठनों ने भी कई बार मोदी सरकार की नीतियों का विरोध किया है. वीएचपी के एक बड़े पदाधिकार कहते हैं-
खास तौर पर गौरक्षकों को लेकर प्रधानमंत्री के बयान से विश्व हिंदू परिषद नाराजगी जता चुका है लेकिन जब चारों ओर से मुसीबत आ जाए तो अपने ही काम आते हैं. नतीजा सामने है कि 22 साल से सत्ता में रहने के बावजूद भी पार्टी सरकार बचाने में कामयाब हो सकी है.
संघ की कमी क्यों खलने लगी?
विधानसभा चुनाव के पहले बीजेपी गुजरात में अपनी संगठन शक्ति को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त थी और यही वजह है कि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह राज्य में 150 से ज्यादा सीटें जीतने का भरोसा दिखा रहे थे. लेकिन गुजरात चुनाव से पहले केंद्र सरकार ने जीएसटी का फैसला लेकर लंबे समय से पार्टी का साथ देने वाले कारोबारी वर्ग को नाराज कर दिया. हालांकि, मुसीबत को भांपते हुए सरकार ने कई बार जीएसटी की दरों में बदलाव भी कर डाले.
दूसरी तरफ गुजरात फतह करने के लिए कांग्रेस ने हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश के आंदोलन को अपना बना लिया. इसका असर ये हुआ कि कारोबारी वर्ग के साथ ही पाटीदार समुदाय भी बीजेपी से दूर होते दिखने लगा.
फिर...
ऐसे में हिंदुत्व की लेबोरेटरी माने जानी वाली गुजरात में बीजेपी को प्रचार में पाकिस्तान, अफजल गुरु और गुजरात की अस्मिता जैसे मुद्दे उछालना पड़ा. पार्टी को 'चक्रव्यूह' में फंसता देख बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम जैसी सभी ईकाइयां बीजेपी के लिए आखिरी दिनों में जमीन तैयार करने में जुट गईं. संघ परिवार ने सबसे ज्यादा मेहनत गुजरात की आर्थिक राजधानी सूरत और सौराष्ट्र के इलाकों में की.
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