- एससी-एसटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ दलित समुदाय के लोगों का आंदोलन दिशाहीन था.-रामविलास पासवान,एससी-एसटी आंदोलन के दौरान
- दलितों-आदिवासियों को नाराज न करें.लावा जब धीरे-धीरे फूटता है तो ज्वालामुखी नहीं आता है लेकिन जब आप इसे दबाओगे तो इसका विस्फोट रोकना मुश्किल है. – रामविलास पासवान हिन्दुस्तान टाइम्स के इंटरव्यू में
- राजनीति में सबकुछ संभव हैं. दोनों लोग युवा हैं और मिल कर काम करने की संभावना असंभव नहीं है.-चिराग पासवान तेजस्वी के साथ मिल कर काम करने के सवाल पर
- दलितों का धैर्य अब जवाब दे रहा है. सरकार ने 9 अगस्त तक हमारी मांगें नहीं मानीं तो दलित सेना सड़कों पर उतरेगी. - चिराग पासवान,एससी-एसटी एक्ट में बदलाव को रद्द करने की मांग करते हुए
- मैंने ही कहा था कि जीतन राम मांझी एनडीए के साथ ज्यादा दिन नहीं रह पाएंगे. अब कह रहा हूं रामविलास चुनाव से पहले चुनाव से पहले आरजेडी से गठजोड़ कर लेंगे.- रघुवंश प्रसाद सिंह, वरिष्ठ नेता आरजेडी
इन बयानों को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि क्या रामविलास पासवान का पाला बदलने का वक्त आ गया है. लोक जनशक्ति पार्टी चीफ रामविलास पासवान सिर्फ 2009 को छोड़ कर 1996 से बनने वाली केंद्र की हर सरकार में रहे हैं. और ऐसा कहा जाता है कि भारतीय राजनीति में उनसे बड़ा ‘मौसम वैज्ञानिक’कोई नहीं है. तो क्या पासवान को हवा का रुख बीजेपी और एनडीए के खिलाफ लग रहा है.
क्या बिहार में अब एनडीए के साथ रहने में उन्हें जोखिम दिख रहा है. या फिर सीटों के बंटवारे को लेकर एनडीए के साथ उनकी गोटी फिट नहीं हो रही है. चार साल चुप रहने के बाद अचानक दलित मुद्दों पर पासवान की इस बेचैनी का सबब क्या है?
पासवान का ‘धर्मसंकट’
दरअसल पासवान इन दिनों गहरे ‘धर्मसंकट’ में हैं. चार साल तक सरकार में रहने के दौरान वह देश भर में दलितों और मुसलमानों पर हो रहे हमलों पर खुल कर नहीं बोल सके थे.
पिछले दिनों उन्होंने जो इंटरव्यू दिए उनमें भी मोदी सरकार को दलितों के लिए सबसे ज्यादा काम करने वाला बताया. लेकिन ये भी कहा कि मोदी जी ने इसका प्रचार नहीं किया. यह सरकार दलितों को लेकर ‘परसेप्शन प्रॉब्लम’की शिकार हो गई है. अगर सरकार दलितों के लिए अपने काम की पब्लिसिटी करती तो ऐसी स्थिति नहीं आती. लेकिन पिछले एक पखवाड़े से वह फिर दलित मुद्दों पर खासे मुखर होते दिख रहे हैं.
आधार खिसकने का डर
दरअसल पासवान यह देख रहे हैं कि बीजेपी दलित और मुस्लिम विरोधी छवि मजबूत कर अपने हिंदू वोट बैंक का आधार तो बढ़ाती जा रही है. और दलित और मुस्लिम आधार वाली पार्टी होने की वजह से उनकी लोक जनशक्ति पार्टी का आधार कमजोर होता जा रहा है. पासवान को लग रहा है कि 2019 के चुनाव में उनकी पार्टी को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है.
बिहार की छह संसदीय सीटों के साथ सरकार में शामिल उनकी पार्टी के लिए यह मुश्किल दौर है. बिहार में जिन छह सीटों पर लोकजनशक्ति पार्टी जीती है, वहां बड़ी तादाद में मुस्लिम वोटर हैं और हाल के दिनों में लिंचिंग की घटनाओं के बाद पासवान की इन पार्टी के वोटरों को लग सकता है कि लोकजनशक्ति पार्टी को जिताने का उनका फैसला गलत था.
सीटों का जटिल गणित लोक जनशक्ति पार्टी के खिलाफ
पासवान के हिस्से एक और बड़ा सिरदर्द है. बिहार में बीजेपी और नीतीश कुमार के जेडी(यू) के बीच सीट बंटवारे को लेकर कोई स्पष्ट तस्वीर अभी तक नहीं उभरी है. दोनों पार्टियां ज्यादा सीटें अपने पास रखने के लिए एक दूसरे पर दबाव डाल रही हैं.
रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी के पास लोकसभा की 6 सीटें हैं. लेकिन पार्टी विधानसभा की मात्र दो सीटें ही जीत पाई है. नीतीश कुमार के दोबारा बीजेपी के साथ आने के बाद हालात बदले हैं और इसका असर पासवान की सीटों पर पड़ सकता है. उनकी पार्टी को 2014 में बीजेपी से समझौते के तहत सात सीटें मिली थीं. लेकिन इस बार उन्हें कम सीटें दी जा सकती हैं. पासवान को यही चिंता सता रही है.
दरअसल जेडी (यू) ने बीजेपी को साफ कर दिया है कि उसका गठबंधन बीजेपी से है. एनडीए में शामिल दूसरी पार्टियों से नहीं. लिहाजा लोक जनशक्ति पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी को बीजेपी को अपने कोटे से सीटें देनी होंगी. पासवान और उपेंद्र कुशवाहा को सीटें देने के लिए जेडी(यू) अपनी सीटों में कटौती नहीं करेगी. अब ऐसा तो होगा नहीं कि बीजेपी 2014 में बिहार जीती हुईं 22 सीटों के सांसदों में आधे को बिठा दे.
पिछले दिनों रामविलास पासवान ने इस जटिल स्थिति के सुलझने की उम्मीद जताई थी और कहा था कि जब दल मिल गए हैं तो दिल भी मिल जाएंगे. कहा जा रहा है कि इस मामले में पासवान ने अमित शाह से बातचीत की थी. लेकिन एक पखवाड़े के भीतर पासवान के बदले हुए सुर से लगता है कि उनकी बात नहीं बन रही है.
पासवान ने अपने ऑप्शन खुले रखे हैं. बिहार में चिराग पासवान ने आरजेडी के साथ मिलकर काम करने के संकेत दे ही दिए हैं. इस बीच रामविलास पासवान ने नीतीश से अच्छे संबंध बना लिए हैं. और अगर कोई तीसरा मोर्चा बना तो उसमें भी शामिल होने की पासवान की दावेदारी मजबूत है.
पासवान 2002 में गुजरात दंगों का विरोध करते हुए एनडीए से अलग हुए थे और 2014 में फिर इसमें शामिल हो गए थे. अगर सीटों के बंटवारे पर बात नहीं बनी तो पासवान एक बार फिर मुसलमानों और दलितों पर होने वाले अत्याचारों का हवाला देकर एनडीए से अलग हो सकते हैं. और इस तरह वह अपने दलित-मुस्लिम समर्थन को बरकरार रखते हुए एक दूसरी राजनीतिक नाव में सवार हो सकते हैं.
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