गुजरात के वडगाम से निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी को 2017 में मेहसाणा में हुई एक रैली के सिलसिले में तीन महीने जेल की सजा सुनाई गई है. उनको अवैध रूप से भीड़ जमा करने के आरोप में दोषी ठहराया गया है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ कथित टिप्पणी को लेकर असम पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद मेवाणी हाल ही में जमानत पर बाहर आए थे.
मेवाणी और कांग्रेस, जिसने 2017 के विधानसभा चुनावों में वडगाम से उनकी उम्मीदवारी का समर्थन किया था, दोनों ने आरोप लगाया है कि उन्हें बीजेपी परेशान कर रही है और सत्तारूढ़ दल उन्हें एक राजनीतिक खतरे के रूप में देखती है।
दो सवाल उठते हैं:
क्या इस साल के अंत में होने वाले चुनावों में गिरफ्तारी का असर मेवानी पर पड़ सकता है ?
क्या जिग्नेश मेवाणी बीजेपी के लिए खतरा हैं?
मेवाणी की गिरफ्तारी का असर
यह संभव है कि जिग्नेश मेवाणी के अपील करने पर भी सजा खत्म हो सकती है. और अगर ऐसा नहीं भी होता है, तो यह उन्हें चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य नहीं ठहराता है, क्योंकि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत, दोषी ठहराए गए और दो या अधिक वर्षों के लिए कारावास की सजा पाने वाले लोगों को दोषसिद्धि के दिन से उनकी रिहाई के छह साल बाद तक सार्वजनिक पद पर रहने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता है. यह उन लोगों पर लागू नहीं होता जिन्हें कम अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया है.
अगर मेवाणी को तीन महीने के लिए जेल जाना पड़ता है, तो उन्हें इस साल दिसंबर में गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव के प्रचार में कुछ दिक्कत जरूर आएगी.
उनकी गिरफ्तारी उनके निर्वाचन क्षेत्र और गुजरात के अन्य हिस्सों में उनके पक्ष में या उनके खिलाफ भावनाओं को बदल देगी या नहीं, यह कहना मुश्किल होगा.
हालांकि, ऐसा लगता है कि सत्ताधरी पार्टी बीजेपी को जरूरत महसूस हो रही है कि वो मेवाणी को राजनीतिक रूप से बेअसर करे.
क्या मेवाणी बीजेपी के लिए खतरा हैं?
एक और महत्वपूर्ण घटना लगभग उसी समय हुई जब असम में मेवाणी के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था.
इसी साल 24 अप्रैल को कांग्रेस नेता मणिलाल वाघेला बीजेपी में शामिल हुए थे. वाघेला 2012 और 2017 के बीच वडगाम से विधायक थे. 2017 के चुनावों में पार्टी द्वारा उम्मीदवार नहीं उतारने और इसके बजाय मेवाणी को समर्थन देने के फैसले से वाघेला टिकट पाने से वंचित हो गए थे.
उस समय वाघेला ने पार्टी के फैसले को स्वीकार कर लिया और बगावत नहीं की. लेकिन उन्होंने अब कांग्रेस छोड़ दी है और विधानसभा चुनाव में वडगाम से मेवाणी के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे.
वाघेला के बीजेपी में शामिल होने का समय और मेवाणी के खिलाफ मामला, इस बात को बल देता है कि बीजेपी निर्दलीय विधायक को राजनीतिक खतरे के रूप में देखती है.
हम ऐसा क्यों कह रहे हैं?
इसके दो पहलू हैं- पहला गुजरात के लिए खास है और दूसरा इससे आगे जाता है.
गुजरात
गुजरात में मुसलमानों के साथ-साथ दलित भी बीजेपी के खिलाफ सबसे मजबूत वोटिंग ब्लॉक बने हुए हैं.
2017 के विधानसभा चुनाव के तुलना में कांग्रेस ने 2019 के मोदी लहर में ओबीसी और आदिवासियों के बीच अपनी जमीन खो दी. हालांकि, इसके विपरीत इसने दलितों के बीच अच्छी पकड़ बनाई.
लोकनीति CSDC के चुनाव के बाद हुए सर्वेक्षण के अनुसार, दलितों के बीच कांग्रेस का समर्थन विधानसभा चुनाव में 53 प्रतिशत से बढ़कर लोकसभा चुनाव में 67 प्रतिशत हो गया, जबकि बीजेपी का 39 प्रतिशत से गिरकर 28 प्रतिशत हो गया.
तब विधानसभा क्षेत्रों के हिसाब से 2019 के आम चुनाव में गुजरात की 182 विधानसभा सीटों में से केवल नौ सीटों पर कांग्रेस बीजेपी से आगे थी. इनमें से पांच एसटी आरक्षित सीटें थी और दो बड़ी मुस्लिम आबादी वाली सीटें थी. हालांकि इस संदर्भ में दो अन्य सीटें महत्वपूर्ण थीं.
एक था जिग्नेश मेवाणी का निर्वाचन क्षेत्र वडगाम और दूसरा गिर सोमनाथ जिले का अनुसूचित जाति आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र कोडिनार. यह उना से सटा हुआ है, जहां 2016 की कुख्यात मारपीट की घटना हुई थी, जिसका राज्य भर में दलितों ने विरोध किया था. मेवाणी ने विरोध प्रदर्शन में अहम भूमिका निभाई.
पिछले हफ्ते असम से अपनी रिहाई के तुरंत बाद, मेवाणी ने 1 जून को गुजरात बंद का आह्वान किया था. मांग है कि उना आंदोलन के बाद दलित प्रदर्शनकारियों के खिलाफ दर्ज मामले वापस लिए जाएं.
गुजरात में दलित आबादी सिर्फ 7 प्रतिशत है, तो ऐसा नहीं है कि बीजेपी दलितों के समर्थन के बिना नहीं जीत सकती.
लेकिन बीजेपी के खिलाफ और कांग्रेस के समर्थन में दलितों की स्पष्ट प्राथमिकता बीजेपी के पक्ष में व्यापक हिंदू एकीकरण के लिए एक बड़ी बाधा है.
दलितों के कांग्रेस समर्थन के लिए पूरा श्रेय मेवाणी को देना गलत होगा, क्योंकि कांग्रेस के लिए दलित समर्थन मेवाणी के एक नेता और एक कार्यकर्ता के रूप में उभरने से पहले भी था. लेकिन वह गुजरात के दलितों के बीच, भूमि अधिकारों की अपनी मजबूत वकालत और अत्याचारों के खिलाफ लड़ाई के साथ, बीजेपी विरोधी राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण उत्प्रेरक बने हुए हैं.
ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर जो बीजेपी में शामिल हो गए और हार्दिक पटेल जो पाटीदारों का कांग्रेस की ओर बड़े पैमाने पर समर्थन सुनिश्चित नहीं कर सके, उसके विपरीत मेवाणी यह सुनिश्चित करने के लिए दृढ़ता से प्रतिबद्ध हैं कि गुजरात में दलित बीजेपी के खिलाफ रहें.
राष्ट्रीय
यूएपीए के तहत बुक किए गए मुस्लिम और सिख कार्यकर्ताओं के साथ-साथ, पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक सक्रियता का सबसे बड़े शइकार वो रहे हैं जो अम्बेडकरवादी और वामपंथी राजनीति के चौराहे पर आते हैं. पूरा भीमा कोरेगांव मामला अनिवार्य रूप से दलित राजनीति के इस पहलू पर एक कड़ी कार्रवाई है.
मेवाणी आनंद तेलतुंबड़े के विचारों से काफी प्रभावित हैं, जो लगातार हाशिए पर पड़े समूहों के बीच एकजुटता के लिए खड़े रहे हैं.
ज्ञात हो कि मेवाणी ने खुद अतीत में कहा था कि सामाजिक-सांस्कृतिक से परे जाति के लिए एक "मजबूत भौतिक पहलू" है और जाति, वर्ग और फासीवाद के खिलाफ संघर्ष को एक साथ चलने की जरूरत है.
इसी विश्वास के कारण मेवाणी ने अपनी सक्रियता को भूमि अधिकार और श्रम अधिकार जैसे मुद्दों पर केंद्रित किया है.
राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से एक और पहलू महत्वपूर्ण है और वह है मेवाणी का कांग्रेस से दूरी बनाने से इनकार. हालांकि वह आधिकारिक तौर पर पार्टी में शामिल नहीं हुए हैं और उन्होंने अतीत में गैर-कांग्रेसी उम्मीदवारों के लिए प्रचार किया है - जैसे कन्हैया कुमार (तब सीपीआई के साथ) और AAP की आतिशी - लेकिन मोटे तौर पर वो कांग्रेस के समर्थक रहे हैं.
लेकिन पार्टी में शामिल नहीं होने से मेवाणी का कद और भी बड़ा हो गया है. अगर वो सिर्फ एक कांग्रेस विधायक रहते तो शायद कद ऐसा नहीं होता.
ये सभी कारण मिलकर मेवाणी को बीजेपी के लिए एक राजनीतिक कांटा बना देता है. जाहिर है इसका अंदाजा बीजेपी को भी होगा.
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