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मध्य प्रदेश: क्यों ‘उस’ CM ने शपथ लेने के अगले दिन दिया इस्तीफा?

कहानी एक ऐसे सीएम की, जो केवल एक दिन के लिए बना मुख्यमंत्री 

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सोचिए ऐसा कौन सा मुख्यमंत्री हो सकता है, जिसे शपथ ग्रहण के अगले दिन ही इस्तीफा देना पड़े. पर ऐसा हुआ है. ऐसा हुआ है अजब-गजब मध्य प्रदेश में.

साल 1985. प्रदेश में चुनावों के नतीजे आ चुके थे. कांग्रेस को तीन चौथाई बहुमत मिला था. मतलब 320 में से 250 सीट पर जीत. दावेदारों में बहुत सारे नाम नहीं थे. जो नाम सबसे आगे था, हम आपको उसके बारे में बताएंगे, पर उसके पहले आपको कुछ जानना जरूरी है...

कहानी एक ऐसे सीएम की, जो केवल एक दिन के लिए बना मुख्यमंत्री 
इस फोटो में मध्यप्रदेश के पांच मुख्यमंत्री हैं. बैठे हुए, दाएं श्यामाचरण शुक्ल, बीच में मोतीलाल वोरा, सबसे बाएं हैं अर्जुन सिंह. वहीं ऊपर खड़े हैं दिग्विजय सिंह और कमलनाथ
फोटो: सोशल मीडिया
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सुलगता पंजाब...

कहते हैं राजनीति किसी की परवाह नहीं करती. ये भावनाओं के ज्वार को सुनामी में बदलने की ताकत रखती है.

पंजाब में 1972 के चुनावों में अकाली दल की हार हुई और कांग्रेस की सत्ता में वापसी. आलम ये था कि अकाली दल 104 में से महज 24 सीटों पर सिमट कर रह गया. ज्ञानी जैल सिंह सीएम बनाए गए. अकाली दल और प्रकाश सिंह बादल की राजनीति कमजोर हो गई.

इसी पृष्ठभूमि में अकाली दल ने 1973 में आनंदपुर रेजोल्यूशन पास किया. इस रेजोल्यूशन में बहुत सारी मांगे थीं, लेकिन पंजाब के लिए ऑटोनॉमी की मांग ने सबको चौंका दिया.

इंदिरा सरकार ने इसे अलगाववादी दस्तावेज मानकर खारिज कर दिया. पर समझ आ चुका था कि पंजाब में अलगाववादी भावना कितनी घर कर चुकी है कि, एक मुख्य विपक्षी पार्टी ऑटोनॉमी की मांग करने पर अमादा है.

कहानी एक ऐसे सीएम की, जो केवल एक दिन के लिए बना मुख्यमंत्री 
पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उनके बेटे सुखबीर बादल. सुखबीर बादल भी अकाली दल की ओर से उपमुख्यमंत्री रह चुके हैं
फोटो: PTI

अगले दो दशकों में पंजाब में अलग खालिस्तान के नाम पर जो खून-खराबा मचा, वो इतिहास की तारीखों में दर्ज है. जरनैल सिंह भिंडरावाले का आतंक, ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गांधी की हत्या, निरंकारियों और दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ हिंसा ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया.

लेकिन इतना ही काफी नहीं था कि खालिस्तानी आतंकियों ने एयर इंडिया फ्लाइट 182 को उड़ा दिया, घटना में 300 से ज्यादा लोग मारे गए. मतलब 80 के दशक में पंजाब जल रहा था, जिसकी आंच दिल्ली का सुकून भी छीन रही थी.

प्रधानमंत्री राजीव गांधी को स्थिति से निपटने के लिए काबिल सिपहसालार की जरूरत थी. बस, यहीं से जुड़ती है 1985 के मध्यप्रदेश चुनाव की राजनीतिक कड़ी.

और एक दिन के मुख्यमंत्री की कहानी...

मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह को विधायक दल का नेता चुना गया. निर्वतमान मुख्यमंत्री होने के नाते उनका दावा मजबूत और स्वाभाविक भी था. चुरहट के रहने वाले और रविशंकर शुक्ल के शागिर्द रहे, अर्जुन सिंह का पहला कार्यकाल 1980 से 1985 के बीच पूरा हो चुका था.

कहानी एक ऐसे सीएम की, जो केवल एक दिन के लिए बना मुख्यमंत्री 
सोनिया गांधी और प्रणब मुखर्जी के साथ अर्जुन सिंह
फोटो: रॉयटर्स

खास बात ये है कि इस दौर में उनके मुख्य प्रतिद्वंदी रविशंकर शुक्ल के बेटे, पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल और मोतीलाल वोरा ही थे. खैर राजनीति के इस चाणक्य ने दोनों से आराम से पार पा लिया.

11 मार्च 1985 को अर्जुन सिंह ने दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. सबको लगा अब अर्जुन सिंह अगले पांच साल के लिए फिर निजाम बन चुके हैं. लेकिन किस्मत को अभी पलटी खानी थी.

12 मार्च को पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से बुलावा आ गया. अर्जुन सिंह को पंजाब गवर्नर बनाकर भेजा जाना था. उन्हें किसी भी तरह अलगाववाद पर कंट्रोल पाने का मैंडेट मिला था. कोई विकल्प नहीं था. राजीव गांधी का बुलावा था.

कहानी एक ऐसे सीएम की, जो केवल एक दिन के लिए बना मुख्यमंत्री 
अर्जुन सिंह के बाद मोतीलाल वोरा को मुख्यमंत्री बनाया गया था. फिलहाल उन्हें गांधी परिवार, खासकर सोनिया गांधी का बेहद करीबी माना जाता है. हाल में वे पार्टी के ट्रेजरी पद से भी रिटायर हुए हैं
फोटो: फेसबुक/ सोशल मीडिया

आखिरकार 12 मार्च को अर्जुन सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. 13 मार्च को दुर्ग से विधायक मोतीलाल वोरा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई. इस तरह अर्जुन सिंह एक दिन के मुख्यमंत्री के तौर पर इतिहास में दर्ज हो गए.

जाते-जाते...

बताते चलें अर्जुन सिंह ने मध्यप्रदेश की राजनीति में तीन साल बाद फिर वापसी की और फरवरी 1988 में वापस मुख्यमंत्री बने. हालांकि अगले साल मतलब, जनवरी 1989 में मोतीलाल वोरा को दोबारा मुख्यमंत्री बना दिया गया.

अर्जुन सिंह ने पहला चुनाव, रविशंकर शुक्ल के कहने पर लड़ा. 1957 में पहली बार विधायक चुने गए. डी पी मिश्र की सरकार में कृषि राज्य मंत्री, संचार मंत्री रहे. बाद में भी कई मंत्रालयों का काम संभाला.

नरसिम्हा राव से अर्जुन सिंह की कभी पटरी नहीं बैठ सकी. उन्हीं के प्रधानमंत्री रहते, एनडी तिवारी के साथ मिलकर ‘तिवारी कांग्रेस’ बनाई. सतना से चुनाव लड़े और हार गए. वापस कांग्रेस आए, पर होशंगाबाद से फिर चुनाव हार गए. तब राज्यसभा से संसद भेजा गया.

मनमोहन सरकार में मानव संसाधन मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाली. उन्हें पिछड़ों की राजनीति के लिए याद किया जाता है. 2006 में सिंह के मंत्री रहते OBC को उच्च शिक्षा संस्थानों में 27 फीसदी आरक्षण दिया गया. 2011 में 81 साल की उम्र में अर्जुन सिंह ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

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