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MP: मालवा और महाकौशल की जंग तय करेगी मुख्यमंत्री के तख्त का फैसला

मालवा की 57 में से 53 सीटों पर फिलहाल बीजेपी का कब्जा है.जानें मध्यप्रदेश के इन दो इलाकों की सियासी तस्वीर

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मध्यप्रदेश में चुनावों की तारीख के ऐलान के साथ ही चुनावी बिगुल बज चुका है. इस बार के चुनाव किसान आंदोलन, सवर्ण आंदोलन, अवैध उत्खनन और कुछ हद तक एंटी इंकमबेंसी की वजह से बेहद दिलचस्प हो चले हैं.

मध्यप्रदेश में मालवा और महाकौशल, दो बड़े इलाके हैं. इनमें अगर उठापटक होती है तो बीजेपी के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं. दोनों इलाकों में बीजेपी 2013 चुनावों में बेहद मजबूत स्थिति में थी.

मालवा-BJP का बेहद मजबूत गढ़

मालवा भौगोलिक तौर पर मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा इलाका है. इसमें लगभग पूरा पश्चिमी मध्यप्रदेश शामिल हैं, जिसमें करीब 13 जिले शामिल हैं. इन जिलों की विधानसभा स्थिति कुछ इस तरह है.

  • इंदौर- 9 सीटें
  • मंदसौर-4 सीटें
  • धार-7 सीटें
  • नीमच-3 सीटें
  • उज्जैन-7 सीटें
  • शाजापुर-3 सीटें
  • आगर-2 सीटें
  • रतलाम-5 सीटें
  • झाबुआ-3 सीटें
  • अलीराजपुर-2 सीटें
  • देवास-5 सीटें
  • सीहोर- 4 सीटें
  • राजगढ़-5 सीटें

मालवा बीजेपी का सबसे ताकतवर गढ़ है. उज्जैन, शाजापुर, आगर मालवा, रतलाम, झाबुआ, अलीराजपुर, देवास और सीहोर की सभी विधानसभा सीटों पर बीजेपी का कब्जा है. वहीं इंदौर की 9 सीटों में से 8, धार की 7 में से 5 सीटें और मंदसौर की 4 में से 3 सीटों पर बीजेपी का कब्जा है. सीहोर जिले की दो सीटें ही मालवा क्षेत्र की मानी जा सकती हैं. इन पर भी बीजेपी का कब्जा है.

मतलब 57 सीटों में से 53 बीजेपी के पास हैं. बताते चलें भौगोलिक तौर पर अलग निमाड़ को भी राजनीतिक तौर पर मालवा से प्रभावित माना जाता है. यहां भी 2013 में बीजेपी लगभग एकतरफा चुनाव जीती थी. मालवा-निमाड़ से ही प्रदेश की लगभग 75 से ज्यादा सीटें हो जाती हैं.

लेकिन इस बार मालवा का माहौल बीजेपी की बहुत ज्यादा पक्ष में दिखाई नहीं पड़ रहा है. कम से कम यह तो तय है कि बीजेपी 2013 जितनी मजबूत स्थिति में दिखाई नहीं दे रही है.

मंदसौर जिले से शुरू हुए किसान आंदोलन ने पूरे मालवा को अपने प्रभाव में ले लिया था. पुलिस फायरिंग में मारे गए 6 किसानों के कारण पूरे प्रदेश में बड़ा हंगामा हुआ. ऊपर से इन 6 में से 5 पाटीदार समुदाय से आते थे, जो दरबार समेत अन्य राजपूतों के साथ पारंपरिक तौर पर यहां का प्रभावशाली वर्ग है.

दूसरी ओर SC-ST एक्ट के खिलाफ चल रहे सवर्ण आंदोलन का जोर भी मालवा और चंबल इलाके में सबसे ज्यादा है. पिछले दिनों उज्जैन में इसके विरोध में मार्च निकाला गया. मार्च में आशा से बहुत ज्यादा करीब 70-80 हजार लोगों का जमावड़ा अलग-अलग मीडिया रिपोर्ट में बताया गया.

बुंदेलखंड और मालवा में दलित आबादी बहुत बड़ी है. उज्जैन जिले में प्रदेश के सबसे ज्यादा दलित रहते हैं. इनके कर्मचारी संगठन अजाक्स की सबसे ज्यादा सक्रियता भी मालवा में है. अजाक्स खुलकर शिवराज सरकार के विरोध में है. इन सब चीजों के चलते बीजेपी की राह बहुत आसान समझ नहीं आ रही है.

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महाकौशल- क्या कांग्रेस दे पाएगी कड़ी टक्कर!

प्रदेश के पूर्वी हिस्से में स्थित महाकौशल का इलाका, राज्य का दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है. जबलपुर इसका केंद्र है. फिलहाल प्रदेश की राजनीति में महाकौशल का दबदबा तेजी से बढ़ रहा है. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह और युवा मोर्चा अध्यक्ष अभिलाष पांडे महाकौशल से हैं. इसके अलावा दमोह सांसद और लोध समुदाय के दिग्गज नेता प्रहलाद पटेल भी इस क्षेत्र में दखल रखते हैं.

महाकौशल में जबलपुर, मंडला, डिंडौरी, नरसिंहपुर, छिंदवाड़ा, सिवनी, कटनी और बालाघाट जिले शामिल हैं. इलाके में 38 विधानसभा सीटें हैं.

देश की सबसे बड़ी आदिवासी संख्या मध्यप्रदेश में है. मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा आदिवासी महाकौशल में ही हैं. इसलिए इनका चुनावी वर्चस्व भी यहां ज्यादा है. 38 विधानसभा सीटों में से 13 ST और 2 SC के लिए रिजर्व हैं.

कांग्रेस की चुनावी कमान संभाले कमलनाथ भी इसी इलाके में छिंदवाड़ा से आते हैं. महाकौशल ही वह इलाका है जिसने भयानक चुनावी आंधी में भी कांग्रेस का साथ नहीं छोड़ा.

1977 के लोकसभा चुनावों में मध्यप्रदेश की 40 सीटों में से 39 सीट पार्टी हार गई. लेकिन छिंदवाड़ा में कांग्रेस का झंडा बुलंद रहा. यही कहानी 2014 में भी दोहराई गई, जब 29 सीटों में से पार्टी केवल छिंदवाड़ा और गुना से ही जीतने में कामयाब रही थी.

नर्मदा नदी सबसे ज्यादा इसी क्षेत्र में बहती है. नदी इस इलाके में आस्था का बड़ा प्रतीक है. पिछले कुछ समय से अवैध उत्खनन का मुद्दा महाकौशल में उभर रहा है. कांग्रेस ने भी इस बात को पहचाना है. इसलिए नर्मदा तट पर राहुल गांधी ने आज ही पूजा-अर्चना भी की है.

इसके अलावा नरसिंहपुर और जबलपुर जिले के पश्चिमी इलाके में गन्ना किसानों के साथ-साथ सवर्ण आंदोलन भी तेज है. चुनावी नतीजा जो भी हो, लेकिन इस बार शिवराज की राह 2013 से ज्यादा कठिन नजर आ रही है.

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