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नीतीश को नेता बनाकर विपक्ष की लड़ाई मजबूत बन सकती है 

राष्ट्रपति चुनाव के लिए विपक्ष के पास क्या विकल्प है?

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ताजा हाथापाई या कहें कि राजनीतिक रस्साकशी राष्ट्रपति चुनाव में होनी है. हालांकि, अभी तक सत्ता पक्ष या फिर विपक्ष का कोई पक्का प्रत्याशी नजर नहीं आ रहा है. सबकुछ कयास ही लगाया जा रहा है. लेकिन, ये माना जा रहा है कि विपक्षी एकता के साथ इस राष्ट्रपति चुनाव से ये भी तय होगा कि 2019 की लड़ाई के लिए विपक्ष साथ-साथ कितना आगे तक जा पाएगा. मोटे तौर पर अगर कोई चमत्कार जैसा नहीं हो गया, तो ये तय माना जा रहा है कि नरेंद्र मोदी जिसे चाहेंगे, उसे रायसीना हिल्स पर बैठाने में सक्षम हैं.

उत्तर प्रदेश सहित 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे ने मोदी की अगुवाई वाले एनडीए की ताकत बहुत बढ़ा दी है. फिर भी विपक्ष इस कोशिश में लगा है कि एक मजबूत लड़ाई वो सत्तापक्ष के सामने वो राष्ट्रपति चुनाव में रख सके.

राष्ट्रपति का पद ऐसा है कि अगर सम्भव हो तो पक्ष-विपक्ष किसी एक नाम पर सहमत हो जाएं, ये आदर्श स्थिति होती. लेकिन, भारतीय राजनीति में आदर्श स्थितियों को कांग्रेस ने अपनी सत्ता रहते बखूबी ध्वस्त किया था. बीजेपी भी पहली बार राष्ट्रपति चुनाव के समय पूर्ण बहुमत के साथ सरकार में है। इसलिए बीजेपी रायसीना की पहाड़ी पर संविधान के लिहाज से सर्वोच्च सत्ता तय करने के मौके का पूरा इस्तेमाल करेगी.

नरेंद्र मोदी के मन में क्या चल रहा है, किसे राष्ट्रपति की कुर्सी पर वो देखना चाहते हैं, ये कयास लगाना भी समझदारी तो नहीं ही कही जा सकती. इसलिए सत्ता पक्ष किसे राष्ट्रपति बनाएगा, इस पर बात करना छोड़ देते हैं.

इससे भी शायद ही बहुत फर्क पड़े कि विपक्ष किसे राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाती है. लेकिन, राष्ट्रपति का चुनाव और इसमें विपक्ष के लड़ने का तरीका तय करेगा कि 2019 में नरेंद्र मोदी के सामने विपक्ष मजबूत लड़ाई पेश कर पाएगा या फिर ऐसे ही बिखरा हुआ दिखेगा.

विपक्ष सबसे पहले अपना नेता चुने

सबसे पहले तो विपक्ष को राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने के लिए तय करना होगा कि ये पूरी लड़ाई वो किसे नेता बनाकर लड़ने वाला है. नेता बनाकर राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने से मतलब राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी से कतई नहीं है. नेता बनाकर मतलब इस राष्ट्रपति चुनाव के दौरान पूरे विपक्ष की धुरी कौन होगा. किसके इर्द गिर्द विपक्षी एकता साथ-साथ आगे मजबूती से बढ़ती हुई दिखेगी. इस लिहाज से ये राष्ट्रपति का चुनाव बेहद अहम है.

मुझे लगता है कि राष्ट्रपति पद का चुनाव विपक्ष के लिए अपना अगुवा तय करने का जरिया हो सकता है. और वो अगुवा कम से कम कांग्रेस पार्टी नहीं हो सकती. उसके पीछे 2 बड़ी वजहें हैं।

पहली वजह

कांग्रेस ने भले ही पंजाब में सरकार बना ली हो और दिल्ली नगर निगम के चुनाव में उसका मत प्रतिशत काफी बढ़ गया हो. लेकिन, कांग्रेस को लेकर पूरे देश में आशान्वित होने की स्थिति नहीं बन पा रही है.

दूसरी वजह

पहली से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है. दूसरी- कांग्रेस के पास की भी नेता नहीं है, जिसके इर्द-गिर्द दूसरी विपक्षी पार्टियां सहजभाव से बैठ सकें. और इसलिए बड़ा जरूरी है कि 2019 की बड़ी लड़ाई लड़ने से पहले विपक्ष एक ऐसा नेता खोज ले, जिसके पीछे खड़े होने में दूसरे विपक्षी नेताओं को अपमान का अहसास न हो.

फिलहाल राहुल गांधी या फिर अरविंद केजरीवाल के पीछे इसी भाव की वजह से विपक्ष एकजुट नहीं हो पा रहा है. ममता बनर्जी और नवीन पटनायक ताकतवर मुख्यमंत्री होने के बावजूद राष्ट्रीय नेता के तौर पर विपक्ष को आगे ले जा पाते नहीं दिख रहे हैं. इसकी वजह ये भी है कि राष्ट्रीय मुद्दों पर इन नेताओं की प्रतिक्रिया देश में बहुत स्वीकार्य नहीं रही है. लेकिन, इस मामले में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपवाद नजर आ रहे हैं.

ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं, इसका आधार ताजा ईवीएम मशीन में गड़बड़ी की आशंका पर चुनाव आयोग के साथ हुई बैठक के बाद जेडीयू की प्रतिक्रिया है. जनता दल यूनाइटेड ने ईवीएम हटाकर बैलट पेपर की ओर लौटने पर विरोध जताते हुए कहा है कि बैलट पेपर के जरिए होने वाली मतपत्रों की लूट भला कौन भूल सकता है? वैसे तो पूरे देश में बैलट पेपर के जमाने में मतपत्रों की लूट से लेकर बूथ कब्जे तक की खबरें आती रही हैं. लेकिन, बिहार ने इस मामले में खास बदनामी अर्जित की है. इसलिए नीतीश कुमार की पार्टी का ईवीएम के साथ रहना बड़ा महत्वपूर्ण है. क्योंकि, बीएसपी, टीएमसी और पीएमके के अलावा नीतीश की सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल ने भी बैलट पेपर से चुनाव कराने की मांग की है.

इसके पहले विमुद्रीकरण के मुद्दे पर भी नीतीश कुमार ने बहुत सधा हुआ रुख अपनाया था. वो विपक्षी नेता की तरह तर्क के साथ नोटबंदी पर सवाल खड़ा कर रहे थे लेकिन, दूसरे विपक्षी नेताओं की तरह सिर्फ विरोध के लिए इसे खारिज नहीं कर रहे थे. नीतीश कुमार भले ही बिहार के मुख्यमंत्री हैं और लालू शहाबुद्दीन टेप या फिर दूसरे कानून व्यवस्था के मामलों पर बिहार सरकार की किरकिरी होती रही हो लेकिन, ये भी सच है कि नीतीश की कमाल की स्वीकार्यता पूरे देश में एक नेता के तौर पर है.

एकजुटता के लिए नीतीश की छवि का इस्तेमाल

विपक्ष राष्ट्रपति चुनाव के इस मौके का इस्तेमाल नीतीश की इसी छवि को और मजबूत करने के लिए कर सकता है. कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते हमेशा इस उम्मीद से रहेगी कि वही अगुवा पार्टी है. लेकिन, मोदी के सामने कांग्रेस इस बुरे हाल में है और नेता की कमी से उसका पक्ष बेहद कमजोर हो चला है.

इसी मौके का फायदा उठाकर विपक्ष नीतीश को मोदी के खिलाफ लड़ाई में अपना नेता बना सकता है. ईवीएम पर सन्देह को राजनीतिक मुद्दा बनाकर अरविन्द केजरीवाल अपने खांटी कैडर को भले ही कुछ उत्साह दे पा रहे हों. लेकिन, सच यही है कि मोदी के मुकाबले वाले नेता के तौर पर केजरीवाल की छवि तेजी से कमजोर हुई है. इन सब वजहों अरविन्द केजरीवाल, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और खुद सोनिया गांधी नीतीश को 2019 की लड़ाई के लिहाज से अभी नेता मान सकती हैं.

बस इसमें 2 बड़ी बाधाएं हैं.

पहली- जनता दल यूनाइटेड का पार्टी के तौर पर बिहार से बाहर शून्य प्रभाव और दूसरा पार्टी के नेता शरद यादव की खुद रायसीना हिल्स पर काबिज होने की महत्वाकांक्षा. लेकिन, इस सबके बावजूद आज की स्थिति में राष्ट्रपति चुनाव के बहाने विपक्ष नीतीश के नेतृत्व क्षमता का सही आंकलन कर सकता है.

(हर्षवर्धन त्रिपाठी वरिष्‍ठ पत्रकार और जाने-माने हिंदी ब्लॉगर हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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