टूटी सड़कें, खराब कानून व्यवस्था, बदहाल शिक्षा प्रणाली जैसे अभावों के लिए बदनाम नूंह पिछले एक साल से सांप्रदायिक अखाड़ा बन गया है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का हिस्सा होने के बावजूद जिले में विकास कहीं छू तक नहीं गया है. दंगे का दंश झेल चुकी इस जगह पर आज चुनाव है. जी हां, छठे चरण में हरियाणा की 10 सीटों में एक गुरुग्राम भी है.
क्विंट ने चुनावी माहौल में नूंह के मतदाताओं से जब उनकी राय जानने की कोशिश की तो ज्यादातर में बीजेपी के प्रति असंतोष दिखा. हालांकि, विकास के नाम पर वो कांग्रेस से भी खुश नहीं थे. कुछ के लिए नूंह दंगे का चुनाव में कोई प्रभाव नहीं था तो कई को उस घटना ने अंदर तक तोड़ दिया था.
ऐसे में आइए जानते हैं सीट का सियासी समीकरण और चुनाव में दंगों के अतीत का प्रभाव क्या है, प्रमुख प्रत्याशी कौन-कौन हैं और मुद्दों में खास क्या है...
कहीं जख्म हरे हैं, किसी के कुछ हद तक भरे हैं
‘भले ही उस घटना को एक साल होने को है लेकिन पूरा परिवार उसका दर्द अभी भी झेल रहा है. मेरे दो लड़के और एक लड़की है. दोनों बेटों को पुलिस जेल में रखे हुए हैं, पूछने पर सबूत भी नहीं बताती. अब चुनकर आने वाले प्रत्याशी का सहारा है कि कुछ न्याय हो. सांप्रदायिक हिंसा भुनाने वाली पार्टी के प्रत्याशी को बिलकुल वोट नहीं देंगे.’
ये कहना है साकिर खान का, जिनके दोनों बेटों को हिंसा के आरोपियों के तौर पर हिरासत में लिया गया था.
इकबाल कुरैशी की कहानी भी कुछ अलग नहीं रही. बस उनकी आवाज में आवेश था. कहते हैं,
"हिंसा के बाद मेरे पूरे परिवार को पुलिस ने निशाना बनाया, जबकि सारे लोग हिंसा के तीन दिन बाद आगरा से लौटे थे. जब एसपी से मिलकर वहां के टिकट और टोल की पर्चियां दिखाईं, तब कहीं जाकर तीन लोगों को तो रिहा कर दिया गया लेकिन बाकी लोगों की जमानत करवानी पड़ी. चुनाव ही ऐसा मौका है, जब ताकत हमारे हाथ में होती है.’
वहीं पूर्व नगरपालिका चेयरपर्सन सीमा सिंगला के मुताबिक, चुनावी मुद्दों में विकास शामिल रहा. उन्होंने कहा,
‘अब नूंह की जनता जागरूक हुई है और सांप्रदायिकता पर फोकस न करके उसका ध्यान विकास पर है. यहां बारहवीं के बाद की पढ़ाई तक के लिए पर्याप्त विकल्प नहीं हैं, पानी और बिजली की समस्याएं तो पता नहीं कब से हैं...ऐसे में लोगों को धर्म के नाम पर लड़ाकर सालों से वोट हासिल किए जाते हैं लेकिन अब जनता समझने लगी है.’
रिटायर्ड बैंक मैनेजर एजाज अहमद के लिए ये चुनाव भी आम चुनावों की तरह है. वो बताते हैं,
‘यहां जिस पार्टी के जो वोटर्स हैं, वो वैसे ही बने हुए हैं. दोनों संप्रदाय अपने-अपने प्रत्याशियों के हिसाब से मतदान करते हैं. दंगा मतदान पर हावी होता नहीं दिख रहा और न ही यहां विकास के मुद्दे पर कोई वोट करता है. सालों से जो परंपरा और तरीका चला आ रहा है, उसी आधार पर वोटर्स का रुख है. एक साल में कुछ खास नहीं बदला.’
बीजेपी और कांग्रेस के बीच मुख्य लड़ाई
'गुरुग्राम' लोकसभा सीट पर मुख्य मुकाबला, कांग्रेस और बीजेपी के बीच है. एक तरफ बीजेपी प्रत्याशी एवं केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह हैं जिन्हें राजनीति विरासत में मिली है. वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस ने राज बब्बर को मैदान में उतारा है, जो बाहरी हैं. बता दें, इंद्रजीत सिंह के पिता राव वीरेंद्र सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं. हालांकि, उनका कार्यकाल एक वर्ष से कम ही था. 2014 में इंद्रजीत ने कांग्रेस छोड़कर बीजेपी ज्वाइन कर ली थी. उन्होंने 2014 और 2019 के चुनाव में बीजेपी को जिताया था.
इसके अलावा, गुरुग्राम से जेजेपी ने राहुल यादव फाजिलपुरिया को चुनावी मैदान में उतारा है. फाजिलपुरिया लोकप्रिय सिंगर हैं और वे बिजनेस घराने से संबंध रखते हैं. दूसरी तरफ इनेलो की बात करें तो पार्टी ने यहां से सोहराब खान को मैदान में उतारा है. वहीं कुशेश्वर भगत भी यहां से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं.
शहर में सभी जातियों का मिश्रण है लेकिन यहां पर धार्मिक समीकरण ही हावी रहता है. नूंह में 80 प्रतिशत के करीब मुस्लिम आबादी है इसलिए वोटर्स के तौर पर उनका रुख मायने रखता है. इस चुनाव में 'स्थानीय बनाम बाहरी' का मुद्दा है लेकिन हार-जीत तय करने में मुसलमान ही अहम भूमिका निभाएंगे. कांग्रेस का फोकस मेव वोटरों पर हैं लेकिन अहीर और जाट भी जीत में रोल निभाएंगे.
क्या है ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
इस लोकसभा क्षेत्र में तीन जिले, गुरुग्राम, नूंह और रेवाड़ी आते हैं. नूंह और उसके आसपास के क्षेत्र को मेवात कहा जाता है. यहां रहने वाले मुसलमानों को मेव बोला जाता है. माना जाता है कि ये मेव, 11वीं सदी के राजपूत वंश से निकले हैं. इनमें कुछ जाट, गुर्जर और मीणा समुदाय के लोग भी हैं. उस वक्त रायसीना से लेकर खनवा तक करीब 1200 गांवों में सवा लाख 'मेव' बसा दिए गए थे.
दिल्ली-एनसीआर में शामिल इस लोकसभा क्षेत्र में 25 लाख से अधिक पंजीकृत मतदाता हैं. मेव मुस्लिमों की तादाद यहां सबसे ज्यादा है. दूसरे नंबर पर अहीर आबादी है. इनकी संख्या 17 फीसदी बताई जाती है. इसके बाद जाटों का नंबर, करीब आठ फीसदी आता है. इसके अलावा इस क्षेत्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, पंजाबी एवं अन्य जातियां भी वोटर्स हैं.
2019 में गुरुग्राम लोकसभा क्षेत्र में 21,39,788 मतदाता थे. इसमें 11,35,004 पुरुष व 10,04,749 महिला मतदाता थे.
ये है भौगोलिक स्थिति
गुरुग्राम लोकसभा क्षेत्र 1952 के पहले चुनाव से ही अस्तित्व में था लेकिन 1977 में इस सीट को खत्म कर दिया गया था. फिर परिसीमन आयोग की सिफारिशों के बाद 2008 में यह लोकसभा सीट अस्तित्व में आई.
बता दें, गुरुग्राम लोकसभा क्षेत्र में कुल नौ विधानसभा क्षेत्र हैं. नूंह जिले की तीन विधानसभा सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है. रेवाड़ी जिले की दो विधानसभा सीटें, बावल और रेवाड़ी, गुरुग्राम लोकसभा क्षेत्र में शामिल हैं. इनमें से एक सीट पर कांग्रेस और एक पर बीजेपी का कब्जा है.
गुरुग्राम में चार विधानसभा सीट हैं. इनमें पटौदी, गुड़गांव और सोहना विधासभा सीट पर बीजेपी काबिज है जबकि बादशाहपुर सीट पर कांग्रेस ने जीत दर्ज कराई थी.
अभी तक के चुनावी परिणाम
2009 में तीसरे नंबर पर रही थी बीजेपी
2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के राव इंद्रजीत सिंह ने जीत दर्ज की थी. उन्हें कुल 2,78, 516 वोट मिले थे. वहीं बीएसपी के जाकिर हुसैन कुल 1,93,652 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर थे, जबकि भारतीय जनता पार्टी की सुधा यादव करीब सवा लाख वोट ही हासिल कर पाईं थीं.
2014 का चुनाव परिणाम
2014 के लोकसभा चुनाव में राव इंद्रजीत सिंह ने पाला बदल लिया और बीजेपी में शामिल हो गए. इस चुनाव में भी राव इंद्रजीत सिंह को बंपर जीत मिली. उन्हें कुल 6,44,780 वोट मिले. वहीं प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार इनेलो के जाकिर हुसैन को कुल 3,70, 058 वोट मिले. वहीं कांग्रेस के धर्मपाल यादव 1,33, 713 वोट ही हासिल कर सके.
2019 के चुनाव में कौन जीता?
2019 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी ने राव इंद्रजीत सिंह को चुनाव मैदान में उतारा. इस बार उन्हें 2014 से भी ज्यादा कुल 8,81,546 वोट मिले जो कुल वोटिंग का 60.94 प्रतिशत रहा. वहीं कांग्रेस के कैप्टन अजय सिंह यादव को 4,95,290 वोटों पर सिमट गए.
दोनों पार्टियों में खास दिलचस्पी नहीं
अगर गुरुग्राम के नूंह की बात करें तो जनता के मुताबिक, दोनों ही बड़ी पार्टियों को इस क्षेत्र में विशेष दिलचस्पी नहीं है. न ही किसी खास मुद्दे को लेकर यहां चुनाव लड़ा जाता है और विकास में भी प्रत्याशियों की कोई रुचि नहीं है. कुल मिलाकर हिंदू-मुस्लिम के नाम पर वोट समेटने की कोशिश की जाती है, जनता इससे ऊपर उठने की कोशिश करती है तो क्षेत्र में दंगे जैसी स्थिति बना दी जाती है. इसी के चलते जनता की भी पार्टी के आधार पर वोट करने में रुचि रहती है, कैंडिडेट के वादों-इरादों में उन्हें दिलचस्पी नहीं होती है.
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