पंजाब में कांग्रेस पार्टी के भीतर चल रही कलह को शांतिपूर्वक निपटाने के लिए कांग्रेस हाई कमान ने कमर कस ली है. 31 मई कांग्रेसी पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मंत्रियों, विधायकों और पार्टी के सीनियर लीडर्स से मुलाकात की. पार्टी अध्यक्ष द्वारा इस विवाद को सुलझाने के लिए एक तीन सदस्यीय कमेटी का गठन भी कर दिया गया है.
इस बैठक की अगले कुछ दिनों तक चलने की संभावना है. इस कमेटी में राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे, पार्टी के जनरल सेक्रेटरी और पंजाब के प्रभारी हरीश रावत और पूर्व सांसद जय प्रकाश अग्रवाल शामिल हैं.
यह क्यों महत्वपूर्ण है?
कांग्रेस हाई कमान द्वारा जो यह तीन सदस्यीय कमेटी बनाई गई है वह इस महत्वपूर्ण घटनाक्रम के लिए काफी अहम है. उसके ये तीन प्रमुख कारण हैं.
मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे सीनियर नेता को कमेटी का हिस्सा बनाना यह दर्शाता है कि पंजाब का यह संकट कितना महत्वपूर्ण और गंभीर है. पंजाब से पहले जिन राज्यों में कलह के मामले सामने आए थे, वहां पार्टी में यह समस्या देखने को मिली कि जो जूनियर नेताओं को नोडल अधिकारी या पॉइंट पर्सन बनाया गया तो वह पार्टी के सीनियर पर ज्यादा प्रभावी नहीं रहे.
- कोविड-19 के डरावने माहौल के बीच भी कमेटी ने यह निर्णय लिया है कि वह रिमोटली बात करने के बजाय आमने-सामने जाकर सीधे बात करेंगे. कथित तौर पर ऐसा निर्णय इस बात को सुनिश्चित करने के लिए लिया गया है कि राज्य के नेता और विधायक ज्यादा स्वतंत्रता और बेहिचक होकर कमेटी के सामने अपनी बात रख सकें. ताकि आने वाले असेम्बली इलेक्शन में कोई भी मुद्दा अनसुलझा न रह जाए.
- कमेटी द्वारा यह एक्सरसाइज बड़े स्तर पर की जा रही है. यह तीन सदस्यीय कमेटी अधिकांश विधायकों के साथ-साथ पार्टी के सीनियर नेताओं से मिलेगी चाहे वे विधायक हो या न हों.
मतभेद के प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
पंजाब में कांग्रेस पार्टी के भीतर कलह की यह कोई नहीं घटना नहीं है. पुराने पन्ने पलटकर देखने पर हम पाएंगे कि अमरिंदर सिंह को पहले राजिंदर कौर भट्टल और बाद में प्रताप सिंह बाजवा जैसे नेताओं के विरोधों का सामना करना पड़ा है. बाजवा अभी भी कैप्टन विरोधी गुट में बने हुए हैं. लेकिन अब इस खेमे के प्रमुख किरदार नवजोत सिद्धू बन गए हैं.
कैप्टन Vs सिद्धू
पंजाब में कांग्रेस की सत्ता आने के बामुश्किल एक साल के बाद ही कैप्टन और सिद्धू के बीच मतभेद शुरू हो गए थे. 2017 के विधानसभा चुनावों के पहले जब सिद्धू ने कांग्रेस पार्टी ज्वाइन की थी, तब उनके मन में खुद के लिए एक बड़े ओहदे की उम्मीद थी. लेकिन बाद में उन्होंने खुद के लिए कैप्टन को इसमें बाधा के तौर पर पाया.
वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने यह महसूस किया कि उन्होंने पहले से ही सिद्धू को पर्यटन और लोकल सेल्फ गवर्नमेंट जैसे अहम मंत्रालय दिए थे. लेकिन बाद में वे सिद्धू के विरोधाभासी बयानों से नाराज हो गए. इन मतभेदों का ही परिणाम रहा कि सिद्धू ने जून 2019 में मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ सिद्धू की बातचीत ने 2019 में करतारपुर कॉरिडोर के उद्घाटन में योगदान दिया. हालांकि इसमें कैप्टन ने एक असहमतिपूर्ण टिप्पणी की और संभावित सुरक्षा खतरों के बारे में बात करते रहे.
हाल ही में सिद्धू ने बरगारी मामले और कोटकपुरा फायरिंग की जांच में ढ़िलाई बरतने का आरोप लगाते हुए कैप्टन सरकार पर निशाना साधा था. यह जांच मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में गृह मंत्रालय की ओर से की जा रही है.
स्पष्ट है कि सिद्धू बरगारी मामले पर सख्त और ठोस कार्रवाई और सत्ता में किसी तरह से सम्मानजनक गुंजाइश बनाना चाहते हैं.
सिद्धू जिस पद की लालसा रखते हैं वह पद पंजाब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का है. वर्तमान में यह जिम्मेदारी पार्टी के वरिष्ठ नेता सुनील कुमार जाखड़ के पास है, जो कैप्टन के खास और करीबी हैं.
बरगारी मामला और कोटकपुरा फायरिंग
2015 में फरीदकोट जिले के बरगारी में गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी यानी अपवित्र करने की कई घटनाएं हुईं. इसके बाद हजारों लोग प्रदर्शन करने उतर आए और घटना के पीछे जिन लोगों का हाथ था उनके खिलाफ कार्रवाई करने की मांग करने लगे. वहीं पुलिस ने कोटकपुरा में प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलावा दी. जिसमें दो लोगों की मौत हो गई. इस घटना के बाद आरोप लगाया गया कि गोलियां चलाने के निर्देश तत्कालीन डिप्टी सीएम सुखबीर सिंह बादल और शीर्ष पुलिस अधिकारियों के द्वारा दिए गए थे.
कांग्रेस ने 2017 में चुनाव प्रचार के दौरान इस घटना के दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का वादा किया था और बाद में इसके लिए एक एसआईटी का गठन भी किया गया.
हालांकि इसी साल अप्रैल में पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने एसआईसी की रिपोर्ट को रिजेक्ट कर दिया था. इसके बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ तेजी से आलोचना होने लगी और सिद्धू ने उन पर सुस्त और घटिया काम करने का आरोप लगाया.
कैप्टन को निशाना बनाने वाले अब अकेले सिद्धू ही नहीं हैं. सुखजिंदर रंघावा जैसे कुछ सीनियर मंत्री भी अब सिद्धू के सुर में सुर मिलाने लगे हैं.
पंजाब की राजनीति के लिए इसके क्या मायने हैं?
यह समय पंजाब की राजनीति के लिए किसी अप्रत्याशित परिस्थिति से कम नहीं है. इसमें कोई शक नहीं है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के खिलाफ काफी नाराजगी है. बगरारी मामले में होने वाली कार्रवाई में ढिलाई, सरकार की भ्रष्ट्राचार को लेकर कमजोर पकड़, रेत और ड्रग्स माफियों से निपटने में नाकाफी प्रयास और राज्य में बेरोजगारी को दूर करने की दिशा में सरकार के प्रयास अप्रभावी दिख रहे हैं.
हालांकि प्रदेश में विपक्ष की स्थिति और भी ज्यादा बदतर है. आम आदमी पार्टी दलबदली और गुटबाजी से परेशान है. वहीं शिरोमणि अकाली दल अभी भी बरगारी और शुरुआती दौर में कृषि कानूनों को समर्थन देने के लिए आलोचना का सामना कर रहा है. इसके अलावा बीजेपी जो हिंदू वोटों के लिए कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी है, वह कृषि कानूनों की वजह से यहां सिमट सी गई है. बीजेपी के नेताओं का जनसभाओं में जाना भी मुश्किल हो रहा है.
शुरुआती कुछ सालों के कार्यकाल के दौरान लोगों ने कांग्रेस को अन्य खराब विकल्पों की तुलना में सबसे कम खराब विकल्प के तौर पर देखा है. इसने कैप्टन को बिना कुछ किए ही उनको सुरक्षित कर दिया है.
एक आम धारणा बनी कि "कैप्टन ने भले ही कुछ नहीं किया, लेकिन उसने कम से कम किसी को बहुत ज्यादा परेशान तो नहीं किया."
अब कांग्रेस के लिए जो समस्या है वह यह कि अन्य पार्टियों में अव्यवस्था के चलते अब विपक्ष दो तरीके से सामने आ रहा है. पहला आंतरिक रूप से सिद्धू, परगट सिंह और अन्य के तौर पर. वहीं दूसरा जरिया यानी बाहरी तौर पर किसान समूहों के प्रर्दशन, पंथिक संगठन और अन्य के माध्यम से.
अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले कृषि विरोधी कानून के खिलाफ होने वाला प्रदर्शन विशेष तौर पर एक प्रमुख एक्स फैक्टर के रूप में उभरा है.
अब तक इसमें कोई शक नहीं है कि बीजेपी और उसके बाद अकाली दल के खिलाफ सबसे ज्यादा गुस्सा है. लेकिन कांग्रेस के अंदरुनी सूत्रों को इस बात का भी डर है कि एक बार सत्ता विरोधी माहौल बन जाने के बाद विश्वास दिलाना कठिन होगा कि राज्य सरकार इससे अछूती रहेगी.
अब आगे क्या?
2 या 3 दिन तक कमेटी की यह बातचीत चलने की संभावना है. अभी कैप्टन के विरोधियों का तीन सदस्यीय कमेटी से मिलना बाकी है. उम्मीद जताई जा रही है कि जल्द ही यह मुलाकात होगी.
अभी तक कांग्रेस की सेंट्रल लीडरशिप से मिले सूत्रों इशारा कर रहे हैं कि सीएम की पोजीशन में बदलाव करने का कोई विचार नहीं किया जा रहा है.
टाइम्स ऑफ इंडिया की एक स्टोरी के मुताबिक कैप्टन अमरिंदर सिंह के कैंपेन पेज द्वारा उन्हें 2022 के लिए सीएम कैंडीडेट घोषित कर दिया गया है.
हालांकि संभावना जताई जा रही है कि कैप्टन अपने विरोधियों के साथ ज्यादा पावर साझा कर सकते हैं. एक या दो डिप्टी सीएम की संभावनाओं पर विचार किया जा रहा है. इसके लिए सिद्धू, रंघावा और एक दलित प्रतिनिधि के नामों की चर्चा है.
विवाद की मुख्य वजह प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद होगा. क्योंकि जो भी इस पद पर कब्जा जमाएगा, उसकी टिकट सलेक्शन में काफी प्रभाव पड़ेगा. इसके साथ ही वह पंजाब का अगला सीएम बनने या चुनने के लिए सबसे अच्छी पोजीशन में रहेगा.
इन सबके बीच विपक्षी दल आप, अकाली दल और बीजेपी साथ मिलकर काम करने का प्रयास करेंगे. इनके अलावा एक और प्रमुख विपक्षी दल बीएसपी है जिसने लोकसभा चुनाव के दौरान दोआबा क्षेत्र में दलितों के बीच खास जगह बनायी है. ऐसी अटकलें भी लगाई जा रही हैं कि चुनाव से पहले बीएसपी अकाली दल के साथ गठबंधन कर सकती है.
बड़े पैमाने पर पार्टियों में मंथन और दलबदल होने की संभावना है. अफवाह है कि पूर्व विपक्ष के नेता और आप में रह चुके सुखपाल सिंह खैरा अपने कुछ वफादार विधायकों के साथ कांग्रेस का दामन थाम सकते हैं.
वहीं दूसरी ओर कांग्रेस में जो सत्ता में दबदबा नहीं हासिल नहीं कर पाएं वे दूसरी जगह अपनी तलाश पूरी कर सकते हैं.
इन सबके बीच सबकी नजरें किसानों के विरोध प्रदर्शन पर भी रहेंगी. हालांकि यूनियनों द्वारा किसी भी पार्टी को समर्थन देने की संभावना नहीं है. लेकिन यह संभव है कि लाखा सिदाना और दीप सिद्धू जैसे स्वतंत्र संस्थाएं मैदान में उतरने की कोशिश कर सकती हैं.
फिलहाल पंजाब में पॉलिटिकल वैक्यूम बन गया है. अब यह देखना बाकी है कि सुलह के बाद कांग्रेस किसी नई ताकत के साथ सामने आता है या किसी विपक्षी दल की तरह.
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