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संडे व्यू : व्हाइट हाउस पर फेंकी गईं ईंट-बोतल, लाचार क्यों सरकार?

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व्हाइट हाउस पर चलीं ईंट-बोतल, ट्रंप ने दी सेना की धमकी!

पीटर बेकर ने न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा है कि एक देश जो बीमारी से परेशान है, आर्थिक पतन की ओर है, लॉकडाउन और फेस मास्क पर पर बंटा हुआ है, वह एक बार फिर नस्लीय हिंसा में झुलस रहा है और राष्ट्रपति की पहली कोशिश लड़ने-झगड़ने की दिख रही है. एक अश्वेत की पुलिस पिटाई के मौत के बाद हिंसा भड़क उठी है. मगर, राष्ट्रपति ट्रंप चीन, डब्ल्यूएचओ, बिग टेक, पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा, टीवी होस्ट और मेयर से लड़ते दिख रहे हैं. ऐसे में दूसरे राष्ट्रपति मामले को शांत कराने की कोशिश करते हैं मगर लेखक का कहना है कि ट्रंप की कोशिश माचिस जलाकर आग भड़काने की है.

पीटर बेकर लिखते हैं कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने शांति बनाए रखने की कोई अपील करने के बजाए देश में अशांति के लिए डेमोक्रैट्स पर ठीकरा फोड़ दिया है. ट्रंप ने कहा है कि लिबरल गवर्नर्स और मेयर्स को चाहिए कि वे कड़ा रवैया दिखलाएं. उन्होंने देश की सेना के पास असीमित ताकत की भी चेतावनी दे दी है.

स्थिति यहां तक आ पहुंची कि सैकड़ों लोग अश्वेत फ्लॉयड की मौत के विरोध में ह्वाइट हाउस के बाहर जमा हो गये और ईंटें और बोतलें फेंकी. राष्ट्रपति ने अपने समर्थकों को भी राष्ट्रपति भवन के बाहर पहुंचने की अपील कर डाली. अपने चुनाव अभियान का स्लोगन भी उन्होंने जारी कर दिया, “मेक अमेरिका ग्रेट अगेन”.

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मजदूरों पर सरकार क्यों रही लाचार?

तवलीन सिंह ने जनसत्ता में कोविड-19 को लेकर दुनिया के स्तर पर लापरवाही के तीन बड़े उदाहरणों को रखते हुए लिखा है कि लापरवाही हमारे देश में भी हुई है. इन उदाहरणों में शामिल हैं- अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कोरोना को सामान्य फ्लू मानना और आरंभिक दिनों में कोई व्यवस्था नहीं करना, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के करीबी का लॉकडाउन की पाबंदियां तोड़ना और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की सरकार का उन वैज्ञानिकों और चिकित्सकों को दंडित करना, जिन्होंने नये वायरस से दुनिया को आगाह करने की कोशिश की थी.

तवलीन सिंह लिखती हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के महामारी घोषित कर देने के 10 दिन बाद तक तबलीगी जमात के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को गृहमंत्री ने क्यों नहीं रोका, यह बात समझ से परे है. वह लिखती हैं कि यह बात भी समझ में नहीं आयी कि लॉकडाउन के बाद सड़क पर चलते बेबस मजदूरों को उनके घर पहुंचाने की जल्दी सरकार ने क्यों नहीं दिखलायी. सुप्रीम कोर्ट का इन मामलों में कुछ कहने से इनकार करना और फिर आखिरकार संज्ञान लेने का भी जिक्र लेखिका ने किया है.

लेखिका का कहना है कि जब कर्नाटक के छात्र चंदा इकट्ठा कर मजदूरों को हवाई जहाज से झारखण्ड फेज सकते हैं, फिल्म अभिनेता सोनू सूद व्यक्तिगत स्तर पर मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचने की व्यवस्था करा सकते हैं तो सरकार यही काम क्यों नहीं कर सकती थी? वह लिखती हैं कि पहले लॉकडाउन में हो सकता है कि चार घंटे भर की मोहलत मजबूरी रही हो, लेकिन बाद के दौर में समय की कोई कमी नहीं थी. लेखिका ने इस बात पर चिंता जतायी है कि अब भी नेता एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में लगे हैं.

देश को पहरेदार की दरकार

पी चिदंबरम ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि 1950 में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे पतंजलि शास्त्री ने एक खंडपीठ का नेतृत्व करते हुए लिखा था कि अदालतों की भूमिका पहरेदार की होती है. वह मामला वामपंथी उदारवादी नेता वीजी रो की संस्था पीपुल्स एजुकेशन सोसायटी पर मद्रास राज्य की सरकार द्वारा प्रतिबंध का था. सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिबंध हटा लिया था. लेखक ने नोटबंदी और जम्मू-कश्मीर में धारा 370 को प्रभावहीन बनाने से जुड़े मामलों के लंबित रहने पर सुप्रीम कोर्ट को उसकी पहरेदार वाली भूमिका की याद दिलायी है.

लेखक ने बताया है कि नोटबंदी के बाद 2016-17 की तिमाही से देश की अर्थव्यवस्था गिरनी शुरू हुई थी जो गिरावट आज तक जारी है और यह 5 प्रतिशत से कम के स्तर पर आ चुकी है. तब नोटबंदी को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी थी.

16 दिसंबर 2016 को चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने नोटबंदी से 9 महत्वपूर्ण सवालों वाली याचिका विचार के लिए स्वीकार की थी और हाईकोर्ट में नोटबंदी से जुड़े सभी मामलों की सुनवाई पर रोक लगा दी थी. पिछले चार साल से नोटबंदी के उस मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है.

लेखक ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को प्रभावहीन बनाने के मामले में लिखा है कि 2 मार्च 2020 को इसे मौखिक रूप से सूचीबद्ध करने को कहा गया, मगर लॉकडाउन आ जाने के कारण यह अब तक सूचीबद्ध भी नहीं हो पाया है. लेखक ने आशा जतायी है कि अदालतें हमेशा जीवित रहें और चीफ जस्टिस पतंजलि शास्त्री के कहे अनुसार पहरेदार की भूमिका निभाएं.

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लॉकडाउन में हास्य-विनोद, मुहावरे

करण थापर ने हिन्दुस्तान टाइम्स में लिखा है कि लॉकडाउन के आखिरी दिन उन्हें ख्याल आया कि वे इसे किस रूप में याद रख सकेंगे. उन्हें लगा कि हंसी-मजाक और हास्य के रूप में लॉकडाउन को याद रखा जा सकेगा. लॉकडाउन लिंगो, कोविडिएट, कोरोनायल्स, क्वारंटाइनिस, लॉकटेल आवर जैसे शब्द लॉकडाउन के माहौल को व्यक्त करते हैं. बर्तन बजाना भी याद रहेगा ताकि पड़ोसी को प्रभावित कर सकें और देशभक्ति दिखा सकें. मित्रों से बचने के लिए ‘एंटी सोशल डिस्टेंसिंग’ भी मजेदर संबोधन है.

लेखक ने कई मुहावरे भी कोरोना काल में बनते देखे. हिन्दी में कुछ ऐसे पढ़ें- बंट कर रहो, इकट्ठे मरोगे; वक्त पर छींको बीमार करो 9 को; जैसा स्प्रे करोगे वैसा पाओगे, दूरी रखना ही बहादुरी है, आवश्यकता संक्रमण की जननी है; जो रात में नहीं, दिमाग में नहीं; बगैर मेहनत के संक्रमण नहीं आता, रोम में रहोगे तो रोमन की मौत मरोगे, कोविड कभी दोबारा हमला नहीं करता.

कई अहतियात भी खूब प्रचलित हुए. जैसे, आप घर से बाहर नहीं जाएंगे अगर जरूरत ना हो; घर पर रहें मगर बाहर जाना भी जरूरी है; आप डॉक्टर के पास या अस्पताल न जाएं जब तक कि आप पहुंच न जाएं; सुरक्षित दूरी रखें तो आप सुरक्षित हैं मगर मित्रों के साथ सुरक्षित दूरी पर भी न चलें; ग्लोव्स का फायदा नहीं है, फिर भी पहनें; दुकानें बंद हैं मगर उन्हें छोड़कर जो खुली हैं; बुजुर्गों के पास न जाएं, मगर जाकर सेवा जरूर करें; स्वास्थ्य सचिव लव अग्रवाल के इस बयान पर लेखक अपनी बात खत्म करते हैं- “अगर हम कर्व फ्लैटेन रखने में कामयाब रहते हैं तो बीमारी को पीक पर पहुंचने से रोक सकते हैं.

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लॉकडाउन के दौरान रिलेशनशिप : रिव्यू, रिफ्लेक्ट, रीफॉर्म जरूरी

पूजा बेदी टाइम्स ऑफ इंडिया में लॉकडाउन 4 के बाद रिव्यू, रिफ्लेक्ट और रीफॉर्म की सलाह देती हैं. वह लिखती हैं कि अपने आपसे पूछें कि लॉकडाउन ने आपको कितना बदला, इससे पहले आपकी भावनाएं क्या थीं. फ्रस्ट्रेशन, इरिटेशन, डिप्रेशन, कन्फ्यूजन, गुस्सा जैसी भावनाएं हैं या कि आप रैडिएंट हैं, प्रॉडक्टिव, ऊर्जा से ओतप्रोत, खुश और शांत हैं? वह लिखती हैं कि स्थिति चाहे जो हो न तो आप किसी से श्रेष्ठ हो गये हैं और न ही कमतर. सच यह है कि इनमें से हर एक भावना आपकी कहानी कहती है. आपने लॉकडाउन बिताने का क्या तरीका चुना.

कुछ लोगों के वैवाहिक संबंध अच्छे नहीं हैं फिर भी लॉकडाउन में साथ रहे और कुछ ऐसे हैं जो अपनी मोहब्बत से इस दौरान दूर रहे. ऐसे भी उदाहरण हैं कि प्रवासी सैकड़ों मील की दूरी पैदल चले, कई लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे.

मगर, यह अलग किस्म का उदाहरण है. कैद में जिन्दगी ने ‘कैद’ को लेकर हमारी सोच बदल दी है. इससे जिन्दगी में मजबूत तरीके से बदलाव आएगा. सवालों के जवाब देते हुए पूजा लिखती हैं कि लॉकडाउन में पति का साथ में रहना और ‘उससे’ फोन पर बात करने की स्थिति से निबटने की हकीकत महत्वपूर्ण है. मगर, साथ रहना है और कैसे रहना है यह चुनने का अवसर भी है. दोनों के लिए जीवन को नए सिरे से देखने के अवसर हैं.

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कुरान : जितना पढ़ेंगे उतना समझेंगे

आकार पटेल ने द हिन्दू में कुरान को लेकर एक समीक्षा लिखी है और कहा है कि इसे जितने अच्छे से पढ़ा जाए समझ उतना बेहतर होगा. अरबी भाषा मोरक्को से इराक तक बोली जाती है और इसके जिन्दा रहने की वजह है कुरान. आकार लिखते हैं कि 632 ईस्वी में मोहम्मद की मौत के कुछ साल बाद शास्त्रीय अरबी भाषा आम लोगों के बीच पहुंची और उसका वही रूप आज भी है. यह इस्लाम मानने वाले लोगों को जोड़ता है. कुरान का मतलब होता है सस्वर पाठ. इसे स्मरण रखने को कहा जाता है हफीजा. कुछ लोग जो खुद को हाफिज कहते हैं उनका दावा कुरान को याद रखने का होता है.

दूसरे खलीफा उमर के समय में यह महसूस किया गया कि कुरान को याद रखने वाले कम होते जा रहे हैं. ऐसे में मोहम्मद के सचिव जैद इब्ब थाबित को पुस्तक लिखने की जिम्मेदारी दी गयी. वर्तमान में यही पुस्तक नजर आता है. कुरान का विश्लेषण करने को तफसीर कहते हैं. सबसे मशहूर तफसीर अबुल कलाम आजाद ने लिखी थी जो तीन वॉल्यूम में है. औरंगाबाद के अबुल अला मौदुदी ने भी तफसीर लिखी.

उन्होंने 1941 में लाहौर में जमात-ए-इस्लामी का गठन किया था. जब इस्लाम जन्म ले रहा था तब मक्का में मोहम्मद से मिले लोगों में कुरान के चैप्टर बांटे गये हैं. मदीना आने वाले भी उनमें शामिल हैं. लेखक का कहना है कि कुरान के कई वर्जन हैं लेकिन सबसे बेहतरीन है द ग्लोरियस कुरान जिसका संकलन डॉ शहनाज शेख और कौसर खत्री ने किया है. द कुरान : ए मॉडर्न इंग्लिश को भी उन्होंने बेहतरीन बताया है.

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