बिहार के विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज करने के बाद अब महागठबंधन की नजर पश्चिम बंगाल के आगामी विधानसभा चुनावों पर है. महागठबंधन अपने आकार और राजनीतिक रसूख में लगातार वृद्धि करते हुए 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को कड़ी टक्कर देना चाहता है. इस दिशा में पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव अहम भूमिका अदा करेंगे.
लालू ने किया ऐलान
महागठबंधन को बिहार की जनता का समर्थन मिलने के बाद राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने साफ-साफ कहा था कि उनका लक्ष्य केंद्र में सत्तारूढ़ दल बीजेपी को सत्ता से बाहर करना है. इसके लिए वे देशभर में आंदोलन करेंगे और बीजेपी के दावों की कलई खोलेंगे.
बिहार की राजनीति की कमान उन्होंने नीतीश कुमार के हाथों में सौंप दी है. ऐसे में अब वे महागठबंधन को मिली हालिया जीत से इसके राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने की कोशिश करेंगे.
हम बीजेपी के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखेंगे. इस जीत के दूरगामी परिणाम होंगे और वे परिणाम ऐसे होंगे जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते.लालू प्रसाद यादव (बिहार चुनाव में जीत के बाद का बयान)
लेकिन महागठबंधन के लिए पश्चिम बंगाल में बिहार की तरह सफलता का परचम लहराना इतना आसान नहीं है.
क्या वामपंथी पार्टियों ने खोया अवसर
राजद और जदयू बिहार का विधानसभा चुनाव वामपंथी पार्टियों के साथ लड़ना चाहती थीं. जदयू और राजद की ओर से सीपीआई (भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी) और सीपीआई (एम) को साथ लाने के लिए खास कोशिशें की गई. लेकिन, कुछ कारणों की वजह से बात नहीं बन पाई.
महागठबंधन के कई वरिष्ठ नेता वामपंथी पार्टियों को साथ लाना चाहते थे. उन्हें मनाने की पुरजोर कोशिश की गई ताकि बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के खिलाफ संयुक्त लड़ाई छेड़ी जा सके. लेकिन, वे अंत तक साथ आने को तैयार नहीं हुए.जदयू के करीबी सूत्र
महागठबंधन की तमाम कोशिशों के बावजूद वामपंथी पार्टियों ने अपना ही संगठन बनाकर चुनाव लड़ने का फैसला किया.
महागठबंधन की वजह से कांग्रेस को मिले फायदे को देखा जाए तो ऐसा लगता है कि अगर वामपंथी पार्टियां भी इसका हिस्सा बनतीं तो उन्हें भी इसका फायदा मिलता.
लेकिन, सीपीआई (एम) के लिए इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये है कि इन चुनावों में इनका प्रदर्शन काफी अच्छा रहा है. ये प्रदर्शन पश्चिम बंगाल के चुनाव में उनकी बड़ी मदद कर सकता है.
महागठबंधन से दूर क्यों है लेफ्ट?
महागठबंधन के साथ गठजोड़ न करने के लिए वामपंथी पार्टियों ने तरह-तरह के तर्क दिए हैं.
द क्विंट को दिए इंटरव्यू में सीपीआई (एम) के जनरल सेक्रेटरी सीताराम येचुरी ने कहा कि महागठबंधन जातिवादी राजनीति कर रही है. सीटों के बंटवारे पर कोई समझौता न होना भी एक बड़ा कारण बताया गया.
इसके साथ ही कहा गया कि वामपंथी पार्टियां राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे को खोने की कगार पर हैं ऐसे में उन्होंने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया जिससे वोट शेयर को बढ़ाए रखा जा सके.
बिहार के बाद पश्चिम बंगाल के आगामी चुनाव वामपंथी पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ममता बनर्जी पहले ही नीतीश कुमार और लालू यादव को अपने लिए चुनाव प्रचार करने के लिए बुला चुकी हैं.
पश्चिम बंगाल में लेफ्ट खो चुका है जमीन?
चूंकि, महागठबंधन को पहले ही वामपंथियों द्वारा खारिज किया जा चुका है ऐसे में महागठबंधन के लिए ममता बनर्जी के साथ कम्यूनिस्टों के खिलाफ चुनाव प्रचार करने में कोई समस्या नहीं होगी.
ममता बनर्जी इससे पहले भी बीजेपी के साथ काम कर चुकी हैं. ऐसे में इस समीकरण की संभावना के पैदा होने से इंकार नहीं किया जा सकता.
वहीं अगर कांग्रेस और इसके सहयोगी दल ममता के साथ पश्चिम बंगाल का चुनाव लड़ते हैं तो ऐसे में बीजेपी से ज्यादा बड़ा नुकसान वामपंथियों को होगा.
ऐसे में चाहें सीपीआई (एम) अन्य वामपंथी पार्टियों के साथ जुड़ भी जाए तो भी उन्हें एक मजबूत विपक्ष का सामना करना ही पड़ेगा.
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