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उपेन्द्र कुशवाहा: 8 'घाट' का पानी पीकर भी 1 सीट पर सिमटे, बिहार की राजनीति में कहां खड़े?

बिहार में NDA के सीट शेयरिंग फॉर्मूले के तहत उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी - राष्ट्रीय लोक मोर्चा को 1 सीट की दावेदारी मिली है.

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लोकसभा चुनाव 2024 के लिए बिहार एनडीए में 37 सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा हो चुकी है. सीट बंटवारे (NDA Seat Sharing in Bihar) के तहत बीजेपी को 17, जेडीयू को 16, LJP (रामविलास) को 5 सीट मिलीं. वहीं जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा (Upendra Kushwaha) की पार्टी राष्ट्रीय लोक मोर्चा को 1-1 सीट मिली.

सवाल है कि 2019 में 5 और 2014 के चुनाव में 3 लोकसभा सीटों पर लड़ने वाले उपेन्द्र कुशवाहा 2024 के चुनाव में सिर्फ 1 लोकसभा सीट पर कैसे मान गए? दलित-पिछड़ा और समाजवाद की राजनीति करने वाले लालू, नीतीश और पासवान की तरह एक ही राजनीतिक पाठशाला के छात्र होने के बावजूद भी बिहार की राजनीति में उपेन्द्र कुशवाहा कैसे पिछड़ गए?

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पिछले दिनों बिहार के लिए एनडीए के सीट बंटवारे के फॉर्मूले की घोषणा की गई थी, तब कुशवाहा की अनुपस्थिति से ऐसी अटकलें लगाई जा रही थीं कि कम हिस्सेदारी मिलने से वह नाराज हैं. हालांकि, अगले ही दिन दिल्ली में बीजेपी के बिहार प्रभारी विनोद तावड़े से दिल्ली में उन्होंने मुलाकात की. जिसके बाद तावड़े ने ट्वीट कर बताया कि "यह पहले से ही तय था कि 1 लोकसभा सीट के साथ-साथ 1 विधान परिषद सीट (जो अब खाली है) आरएलएम को आवंटित की जाएगी"

बिहार लौटने पर राष्ट्रीय लोक मोर्चा अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा ने भी कहा,

"यह सच है कि हर दूसरी पार्टी की तरह हम भी अधिक सीटों की मांग कर रहे थे. लेकिन गठबंधन में सभी घटकों को समायोजित करना पड़ता है. अब हमारा ध्यान एनडीए को बिहार की सभी 40 सीटें जीतने में मदद करने की ओर है."

'कुशवाहा लैंड' से टिकट

लोकसभा चुनाव में लगातार कुशवाहा जाति के उम्मीदवार के जीतने की वजह से 'कुशवाहा लैंड' कहे जाने वाले काराकाट लोकसभा सीट से जेडीयू सांसद महाबली सिंह का टिकट काटकर उपेन्द्र कुशवाहा को यह सीट दिया गया है.

2014 के चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा ने यहां से जीत हासिल की थी. काराकाट लोकसभा क्षेत्र में सबसे अधिक यादव जाति के मतदाता हैं. यहां यादव वोटर्स 3 लाख से अधिक हैं. साथ ही कुशवाहा और कुर्मी जाति के वोटर्स लगभग ढाई लाख हैं.

हालांकि, बिहार के वरिष्ठ पत्रकार रवि उपाध्याय का कहना है कि, "एक तरफ जहां इंडिया गठबंधन में सीट को लेकर आपसी विवाद चल रहा है, वहीं उपेन्द्र कुशवाहा को लग रहा है कि एनडीए में रहकर मोदी मैजिक की वजह से कम से काम अपना सीट निकाल लेंगे. ऐसे में उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है, वरना कुशवाहा एक सीट पर नहीं मानने वाले थे."

एनडीए के पास कुशवाहा के 'विकल्प' मौजूद ?

नीतीश कुमार की एक बार फिर एनडीए में वापसी हो गई है. दूसरी तरफ बीजेपी ने कुशवाहा जाति से आने वाले सम्राट चौधरी को बिहार इकाई के अध्यक्ष के रूप में खड़ा किया है. ऐसे में बीजेपी और नीतीश के नए हालात में पुरानी दोस्ती की पटरी पर लौटने से नीतीश का लव-कुश का पुराना सामाजिक फॉर्मूला अब मजबूत होता नजर आ रहा है. नीतीश कुमार जहां कुर्मी समुदाय से हैं, वहीं सम्राट चौधरी कोईरी समुदाय से आते हैं. इन दोनों जातियों के सामाजिक समीकरण को लव-कुश समीकरण कहा जाता है.

बिहार में हुई नई जाति जनगणना के मुताबिक, कोइरी समुदाय की आबादी 4.21 फीसदी है, जबकि कुर्मी की आबादी 2.87 फीसदी है. दोनों को मिला दें तो यह 7 फीसदी से ऊपर हो जाता है.

वरिष्ठ पत्रकार रवि उपाध्याय कहते हैं,

"बिहार में बीजेपी और JDU के कई कुशवाहा नेता हैं. लेकिन जहां एक तरफ आरजेडी कोइरी वोट बैंक में डेंट लगाने के लिए कई सारे कुशवाहा उम्मीदवार को खड़ा कर रही है, तो ऐसे में बीजेपी उपेन्द्र कुशवाहा को एनडीए में रखकर लव-कुश वोट बैंक समीकरण मजबूत करने की कोशिश कर रही है."

वहीं पटना में एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं, "बिहार की जातीय गणना में कुशवाहा की संख्या कुर्मी से भी ज्यादा है. ऐसे में लोकसभा चुनाव में तो नहीं, लेकिन आगामी विधानसभा चुनाव में उपेन्द्र कुशवाहा इसका फायदा उठा सकते हैं."

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बिहार की राजनीति में उपेन्द्र कुशवाहा

कर्पूरी ठाकुर से प्रभावित होकर 1985 में लोकदल से राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाले उपेंद्र कुशवाहा ने अब तक आपने राजनीतिक करियर में 8 बार 'पलटी' मारी है. वह 1985 से 1988 तक युवा लोकदल के प्रदेश सचिव रहे. उसके बाद वे जनता दल का हिस्सा बन गये और 1988 से 1993 तक वे युवा जनता दल के राष्ट्रीय महासचिव की भूमिका में रहे.

इसके बाद साल 1994 से 2002 तक उन्होंने समता पार्टी के जनरल सेक्रेटरी का पद संभाला. कुशवाहा ने 2000 में जंदाहा से जीतकर चुनावी करियर की शुरुआत की और जल्द ही नीतीश के चहेते बन गए. 2004 में समता पार्टी का JDU में विलय होने और सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के रूप में उभरने के बाद, नीतीश कुमार ने कुशवाहा को विपक्ष का नेता बना दिया.

तब राज्य में राबड़ी देवी की सरकार थी. मकसद था, आरजेडी के MY समीकरण के मुकाबले लव-कुश (कुर्मी-कोइरी) समीकरण बनाना. लेकिन उपेन्द्र कुशवाहा की महत्वाकांक्षाओं ने उन्हें नीतीश कुमार से दूर कर दिया.

साल 2007 में उन्हें JDU से बर्खास्त कर दिया गया. 2009 में उन्होंने ने राष्ट्रीय समता पार्टी बनाई और लोकसभा चुनाव लड़ा. पार्टी जब बुरी तरह हार गई तो वो दोबारा नीतीश कुमार से मिल गए और नीतीश कुमार ने उन्हें राज्य सभा भेज दिया. लेकिन फिर दोनों के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर मतभेद शुरू हो गए. 2014 में उन्होंने राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (RLSP) बना ली.

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2014 के मोदी लहर में मिली थी बड़ी सफलता

2014 के लोकसभा चुनाव में उपेन्द्र कुशवाहा ने एनडीए को अपना समर्थन दे दिया. बिहार की तीन लोकसभा सीट पर उनकी पार्टी ने चुनाव लड़ा और कुशवाहा की पार्टी तीनों सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही थी. कुशवाहा काराकाट निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव जीतकर पहली बार लोकसभा पहुंचे थे. इसके इनाम में उन्हें मोदी कैबिनेट में जगह मिली और वो मानव संसाधन राज्य मंत्री बने. इस चुनाव में RLSP को मात्र 2.99 फीसदी वोट हासिल हुआ था, इसके बावजूद इस पार्टी ने 100 फीसदी जीत हासिल की थी. यानी पार्टी को मिले 3 लोकसभा सीटों में उसने सभी सीटें जीत ली.

दरअसल यूपीए और जेडीयू के बीच वोट बंटने का लाभ एनडीए को मिला था. यूपीए गठबंधन को 29.7 फीसदी वोट मिले थे. वहीं नीतीश की पार्टी को करीब 16 फीसदी वोट मिले थे. एनडीए को करीब 39 फीसदी वोट मिले थे. एनडीए के खिलाफ पड़ने वाले वोट के दो खेमे में बंटने की वजह से 2014 में बिहार में एनडीए ने बड़ी जीत हासिल की थी और इस समीकरण का फायदा उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी को भी मिला था.
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लालू-नीतीश के साथ आने से बिगड़ा खेल

2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू-नीतीश ने कांग्रेस से साथ मिलकर महागठबंधन बनाया. वहीं बीजेपी, आरएलएसपी, एलजेपी और हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा ने एनडीए के बैनर तले चुनाव में उतरे. बीजेपी ने सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी को 243 में से 23 विधानसभा सीटें दी. 2.56 फीसदी वोट के साथ इनमें से सिर्फ दो सीटों पर ही उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी जीत सकी. वहीं नीतीश-लालू के साथ ने बिहार में महागठबंधन को भारी जीत दिला दी.

बीजेपी-JDU के बिना कोई आधार नहीं?

2017 में नीतीश कुमार महागठबंधन का साथ छोड़कर एकबार फिर से एनडीए का हिस्सा बन गए. जिसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए सीट शेयरिंग की बात शुरू हुई और कथित तौर पर बीजेपी ने कुशवाहा की पार्टी को 2 सीटों का ऑफर दिया. लेकिन उपेन्द्र कुशवाहा दिसंबर 2018 में मोदी पर बिहार के संबंध में अपने चुनावी वादों को पूरा नहीं करने का आरोप लगाते हुए केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा देकर महाठबंधन में चले गए. आरजेडी और कांग्रेस ने 2019 के लोकसभा चुनाव में उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी को 5 सीटों पर लड़ने का मौका दिया.

आरएलएसपी के उम्मीदवार सभी पांच सीटों पर हार गए. पार्टी के मुखिया उपेन्द्र कुशवाहा ने काराकाट और उजियारपुर, दो जगहों से अपनी किस्मत आजमाया था, लेकिन उनको दोनों सीटों पर हार का सामना करना पड़ा. वहीं बीजेपी, नीतीश और रामविलास पासवान के गठजोड़ ने ऐसा कमाल कर दिखाया कि बिहार की 40 में 39 लोकसभा सीटें एनडीए के खाते में चली गई. महागठबंधन में से सिर्फ कांग्रेस ही एक सीट (किशनगंज) जीतने में कामयाब हो पाई.

डीएम दिवाकर कहते हैं, "आज की तारीख में उपेन्द्र कुशवाहा का अपना कोई राजनीतिक औचित्य नहीं है. बार-बार पाला बदलने की वजह से इनके पार्टी के सारे लोग दल बदल कर आरजेडी में चले गए तो अंत में नीतीश कुमार ने इनको पनाह दी थी."

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तीसरा मोर्चा बनाने में विफल रहे कुशवाहा

सितंबर 2020 में, बिहार विधानसभा चुनाव से पहले कुशवाहा ने तेजस्वी यादव के नेतृत्व को अस्वीकारते हुए आरजेडी और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन से किनारा कर लिया. कुशवाहा ने बहुजन समाज पार्टी के साथ साझेदारी में ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट (जीडीएसएफ) नामक गठबंधन की घोषणा की. जीडीएसएफ ने बिहार विधानसभा की सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ा. चुनाव में एआईएमआईएम को मिली 5 और बीएसपी को 1 सीटों पर सफलता मिली.

वहीं उपेंद्र कुशवाहा के आरएलएसपी को गंभीर झटका लगा. आरएलएसपी 1.77% वोट के साथ एक भी सीट नहीं जीत पाई. जिसके बाद आरएलएसपी का JDU में विलय हो गया और कुशवाहा को पार्टी के संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया. उन्हें बिहार विधान परिषद का सदस्य भी बनाया गया. लेकिन 2023 में फिर से उनका मोहभंग हो गया और JDU से अलग होकर राष्ट्रीय लोक मोर्चा का निर्माण किया और पुनः एनडीए में शामिल हो गए

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उपेन्द्र कुशवाहा का कमजोर जनाधार

1960 में वैशाली के जन्दाहा में एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे उपेन्द्र कुशवाहा अपने पूरे राजनीतिक करियर में विधानसभा और लोकसभा के नजरिए से सिर्फ दो ही बार चुनाव जीतने में कामयाब रहे हैं. पहली बार वे 2000 में समता पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर वैशाली जिले की जंदाहा सीट से जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. वहीं कुशवाहा को दूसरी जीत 2014 के लोकसभा चुनाव में काराकाट सीट पर मिली थी.

उपेंद्र कुशवाहा कोइरी जाति से आते हैं. उपेन्द्र पहले अपने नाम में 'सिंह' लगाते थे लेकिन बाद में उन्होने 'कुशवाहा' लगाना शुरू किया. इसके पीछे मकसद यही था कि अपनी जातीय पहचान दिखाकर एक खास वर्ग के लोगों के बीच राजनीतिक पकड़ मजबूत की जाए. कुशवाहा (कोइरी) जाति की कुल आबादी में 4.21% हिस्सेदारी के बावजूद उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी को 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए और महागठबंधन से अलग लड़ने पर मात्र 1.77 फीसदी वोट मिला था. कुशवाह जाति के समर्थन में गिरावट के कारण JDU को भी झटका लगा, जो बिहार 2020 विधानसभा चुनाव में 43 सीटों पर सिमट गई.

वरिष्ठ पत्रकार रवि उपाध्याय कहते हैं, " 2020 के चुनाव में JDU की सीट घटाने में चिराग के साथ उपेन्द्र कुशवाहा का भी योगदान था. आप इसको नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं".

इसके साथ ही वो कहते हैं, "राजनीतिक दलों का वोट प्रतिशत बढ़ता-घटता रहता है, लेकिन 2020 के चुनाव में ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट के घटक दल AIMIM और बीएसपी को उपेन्द्र कुशवाहा के सीएम पद की उम्मीदवारी पर ही 6 सीट मिली थी."

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