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उत्तराखंड में 5 साल क्यों नहीं टिक पाते मुख्यमंत्री? कल, आज और कल

उत्तराखंड बीजेपी पहले भी चुनाव से ठीक पहले बदल चुकी है सीएम, झेलनी पड़ी थी हार

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उत्तराखंड की राजनीति में एक बार फिर इतिहास दोहराया गया है. राज्य के 9वें सीएम के तौर पर शपथ लेने वाले त्रिवेंद्र सिंह रावत ने इस्तीफा दे दिया है. उनके खिलाफ पार्टी में उठ रहे विरोधी सुरों के चलते पार्टी आलाकमान की तरफ से बदलाव का फैसला किया गया. पहले जहां ये कहा जा रहा था कि त्रिवेंद्र सिंह रावत अपने कार्यकाल के चार साल पूरे कर चुके हैं और वो 5 साल का कार्यकाल पूरा कर इतिहास रचने वाले हैं, लेकिन ये नहीं हो सका. राज्य में अब तक बीजेपी का कोई भी सीएम अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया है. आइए जानते हैं कि आखिर उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में कोई मुख्यमंत्री 5 साल क्यों नहीं टिक पाता है.

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राज्य की स्थापना के बाद से ही शुरू हो गई राजनीतिक अस्थिरता

उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड को अलग करने के लिए कई दशकों तक आंदोलन चले. कई लोगों को गोलियां तक खानी पड़ीं. जिसके बाद आखिरकार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में साल 2000 में उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड को अलग कर राज्य का दर्जा दिया गया. नए और छोटे राज्य में राजनीति को लेकर पहाड़ के तमाम लोग उत्सुक थे, क्योंकि विकास और पिछड़ते गांवों की दुर्दशा सुधारने के लिए ही अलग राज्य की मांग उठी थी.

लेकिन जैसा उत्तराखंड के आंदोलनकारियों और बाकी लोगों ने सपना देखा था, वैसा कुछ हुआ नहीं. हर बार वोट देकर लोग एक मुख्यमंत्री को चुनते हैं, लेकिन पार्टियां पांच साल में कई बार इन्हें बदल देती हैं. इसका सबसे बड़ा कारण निजी हितों का होना है. बीजेपी हो या कांग्रेस, राज्य के विकास की बजाय निजी हितों में ही नेता पांच साल तक उलझे रहते हैं.
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पहली अंतरिम सरकार में ही दो मुख्यमंत्री

साल 2000 में जब उत्तराखंड अलग राज्य बना तो पहली अंतरिम सरकार बीजेपी ने बनाई. जिसके बाद राज्य ने नौ बार मुख्यमंत्री बदलते हुए देखे. राज्य की नींव के साथ ही राजनीतिक अस्थिरता की भी शुरुआत हुई. नित्यानंद स्वामी ने पहले मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. लेकिन शपथ लेने के बाद से ही बीजेपी नेताओं में हलचल शुरू हो गई और गुटबाजी होने लगी. जिसका नतीजा ये रहा कि अक्टूबर 2001 में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. जिसके बाद भगत सिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री बनाया गया.

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कोश्यारी का कार्यकाल थोड़ा शांतिपूर्ण रहा, लेकिन एक साल बाद ही विधानसभा चुनाव होने थे. 2002 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी जीत हासिल नहीं कर पाई और कांग्रेस ने नारायण दत्त तिवारी को सीएम घोषित किया.

एनडी तिवारी ही उत्तराखंड के इकलौते ऐसे सीएम थे, जिन्होंने 5 साल का अपना कार्यकाल पूरा किया. उनके कार्यकाल के दौरान भी कई बार कांग्रेस में विरोधी सुर उठे, लेकिन इस्तीफे की नौबत नहीं आई.

2007 से लेकर 2012 तक BJP ने तीन बार बदले सीएम

अगला विधानसभा चुनाव 2007 में हुआ, जिसमें राज्य की जनता ने एक बार फिर सत्ता परिवर्तन कर बीजेपी को मौका दिया. लेकिन बीजेपी नेताओं ने अपनी पुरानी आदत को इस बार भी नहीं छोड़ा. इन पांच सालों में बीजेपी ने 3 बार मुख्यमंत्री बदल दिए. साफ सुथरी और ईमानदार छवि वाले रिटायर्ड मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाया गया. लेकिन उनकी सख्ती और अनुशासन नेताओं को कहां रास आने वाला था. विरोधी सुरों और गुटबाजी के चलते एक बार फिर सीएम को इस्तीफा देना पड़ा और करीब 2 साल बाद 2009 में खंडूरी की जगह रमेश पोखरियाल निशंक को मुख्यमंत्री बना दिया गया.

रमेश पोखरियाल निशंक के कार्यकाल में भ्रष्टाचार के खूब आरोप लगाए गए, इन आरोपों को देखते हुए बीजेपी को अगले चुनावों में हार साफ दिखने लगी तो 2012 में होने वाले चुनाव से ठीक पहले सितंबर 2011 में एक बार फिर भुवन चंद्र खंडूरी को सीएम बना दिया गया. हालांकि इसके बाद लोगों ने वोटों से बता दिया कि, जनता सब कुछ जानती है. बीजेपी की हार हुई और कांग्रेस फिर सत्ता में वापस आई.
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अब कांग्रेस ने इस बार विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री की कुर्सी दे दी. सत्ता संभालने के एक साल बाद ही उत्तराखंड के केदारनाथ में भीषण आपदा आई. इस आपदा के बाद राहत कार्यों और बाकी व्यवस्था को लेकर बहुगुणा की जमकर आलोचना हुई. बहुगुणा के खिलाफ कई कांग्रेस विधायक और मंत्री थे, जिसके बाद आखिरकार कांग्रेस आलाकमान ने 2014 में उन्हें हटाकर सीनियर नेता हरीश रावत को सीएम बनाया.

हरीश रावत के आते ही बिखर गई कांग्रेस

अब हरीश रावत को सीएम बनाया जाना कांग्रेस के लिए एक बड़ा झटका साबित हुआ. पार्टी में महत्वकांक्षी नेताओं ने विद्रोह कर दिया. पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा, सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत और सुबोध उनियाल जैसे नेताओं ने कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया. जिसके बाद कुछ दिन तक राज्य में राष्ट्रपति शासन भी लगाया गया.

हालांकि कांग्रेस को नुकसान हो चुका था, ऐसे में सीएम बदलने से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला था. इसीलिए 2017 चुनावों तक हरीश रावत ने ही पद संभाला. अब क्योंकि कांग्रेस के कद्दावर नेताओं में शुमार ज्यादातर नेता बीजेपी में जा चुके थे तो 2017 चुनावों में कांग्रेस की सबसे बुरी हार हुई. पार्टी 11 सीटों पर सिमटकर रह गई.
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2017 में त्रिवेंद्र सिंह रावत चुने गए सीएम

2017 में बीजेपी ने प्रचंड बहुमत से सरकार बनाई और आलाकमान ने चौंकाने वाला फैसला लेते हुए लंबे समय तक आरएसएस प्रचारक रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत के हाथों में सत्ता की बागडोर थमा दी. रावत के कुर्सी संभालते ही विरोधी सुर जरूर उठे, लेकिन पार्टी में ऊपर तक सीधी पकड़ के चलते त्रिवेंद्र सिंह रावत की कुर्सी मजबूत खड़ी रही. हालांकि इसके बाद सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत की कार्यशैली और उनके व्यवहार को लेकर पार्टी के ज्यादातर विधायकों से लेकर जनता तक सवाल उठाने लगी. गैरसैण को ग्रीष्मकालीन राजधानी और फिर मंडल घोषित करना रावत को महंगा पड़ा. केंद्रीय नेतृत्व को आखिराकर उन्हें हटाना पड़ा.

लेकिन चुनाव से ठीक पहले लिया गया ये फैसला बीजेपी के लिए घातक साबित हो सकता है. क्योंकि साल 2012 चुनावों से पहले भी बीजेपी ने ये मूव लिया था, यही सोचकर कि शायद इससे पार्टी को फायदा पहुंचेगा. लेकिन तब खंडूरी जैसे चेहरे के बावजूद बीजेपी को हार झेलनी पड़ी थी. इस बार देखना होगा कि बीजेपी का ये फैसला मुख्यमंत्री और सरकार की नाकामी दिखाता है या फिर भूल को सुधारने पर जनता का साथ उन्हें मिलता है.

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