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शाबाश! महामारी के इस दौर में लखनऊ की वर्षा वर्मा मिसाल हैं  

क्विंट से बात करते वक्त वर्षा वर्मा जल्दबाजी में लग रही थीं. आखिर, जल्दबाजी हो भी क्यों न हो!

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‘लखनऊ की हालत बहुत बुरी है, आप सब लोग संभलकर रहिए, लगातार फोन-मैसेज आ रहे हैं.' क्विंट से बात करते वक्त वर्षा वर्मा जल्दबाजी में लग रही थीं. आखिर, जल्दबाजी हो भी क्यों न हो! कोरोना संक्रमण की इस नई वेव में लखनऊ ने कई अपनों को खोया है. आपदा के वक्त में वर्षा वर्मा और उनका एनजीओ कोविड-19 से दम तोड़ चुके लोगों के शवों को श्मशान घाट तक पहुंचाने औऱ उनका अंतिम संस्कार करने में मदद कर रहा है.

एक इंसान को उसका आखिरी सम्मान दिलाने के लिए वर्षा वर्मा हर दिन लखनऊ के राम मनोहर लोहिया अस्पताल के लिए निकल पड़ती हैं. क्विंट से बातचीत में वर्षा कहती हैं कि तीन साल पहले एक दोस्त की मौत के बाद ये मुहिम शुरू हुई थी.

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 क्विंट से बात करते वक्त वर्षा वर्मा जल्दबाजी में लग रही थीं. आखिर, जल्दबाजी हो भी क्यों न हो!
‘शुरुआत में थोड़ी झिझक भरी प्रतिक्रिया मिली थी लेकिन अब लोगों से भी मदद मिलती है. मैंने एक गाड़ी भी रेंट पर ले लिया है, जिससे कि सम्मान के साथ शवों को उनकी आखिरी मंजिल तक पहुंचाया जा सके.’
वर्षा वर्मा

वर्षा कहती हैं कि महामारी का ये ऐसा समय है, जिसमें कई बार तो मृतकों के परिवार में सभी के सभी लोग कोविड पॉजिटिव होते हैं, तो इस स्थिति में वर्षा की टीम ही घर से पार्थिव शरीर ले जाकर अंतिम संस्कार करती है.

 क्विंट से बात करते वक्त वर्षा वर्मा जल्दबाजी में लग रही थीं. आखिर, जल्दबाजी हो भी क्यों न हो!

वहीं अस्पताल में हुई मौत की स्थिति में लोग वर्षा की टीम की मदद लेते हैं और अपने प्रियजनों को श्मशान घाट ले जाते हैं. अगर किसी स्थिति में कोई परिजन श्मशान तक आने की स्थिति में नहीं होता तो वर्षा की टीम ही अंतिम संस्कार कर देती है.

42 साल की वर्षा वर्मा की टीम ने जब ये काम शुरू किया था तो पहले दिन पांच और दूसरे दिन 9 शवों का अंतिम संस्कार किया था. फिलहाल महामारी की स्थिति में ये आंकड़े काफी बढ़ चुके हैं.
 क्विंट से बात करते वक्त वर्षा वर्मा जल्दबाजी में लग रही थीं. आखिर, जल्दबाजी हो भी क्यों न हो!

हालात ये है जब कोविड संक्रमित मरीजों से मिलना तक घातक हो सकता है, वर्षा की टीम पूरी सुरक्षा और पीपीई किट के साथ लखनऊ में डटी हुई है. वर्षा बताती हैं कि अभी तो उनको मदद के ज्यादातर मैसेज सोशल मीडिया के जरिए ही मिलने लगे हैं.

 क्विंट से बात करते वक्त वर्षा वर्मा जल्दबाजी में लग रही थीं. आखिर, जल्दबाजी हो भी क्यों न हो!

अंतिम संस्कार के लिए या शवों को श्मशान तक ले जाने के लिए किसी भी प्रकार की फीस नहीं ली जाती है. इसके लिए फंड दिव्या सेवा फाउंडेशन से आता है, जिसे उन्होंने 2017 में सामाजिक कार्य करने के लिए स्थापित किया था. वर्षा के परिवार की बात करें तो उनके पति राकेश एक इंजीनियर हैं, उन्हें अपनी पत्नी के काम पर गर्व भी है, साथ ही उनके सेहत की चिंता भी रहती है.

महामारी के इस दौर में वर्षा वर्मा की कहानी एक प्रेरणा है जो बिना किसी स्वार्थ के दूसरों के मदद की प्रेरणा देती है. सोशल मीडिया पर भी वर्षा वर्मा को खूब शाबाशी दी जा रही है.

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