''हमारे यहां कोई बीमार पड़ जाए तो उसे चारपाई पर लादकर गिरते-पड़ते रोड तक ले जाते हैं. फिर गाड़ी-मोटर पर लादकर 45 किलोमीटर दूर अस्पताल तक ले जाते हैं और रात में अगर हम लोग अपने बच्चों को पकड़कर न बैठें तो सांप व बिच्छू उन्हें डस लें क्योंकि न तो हमारे यहां सड़क है, न ही बिजली.'' यह पीड़ा उत्तर प्रदेश के बहराइच स्थित वनग्रामवासियों की है.
ये सिर्फ एक ग्रामीण की कहानी नहीं बल्कि उत्तरप्रदेश (Uttar Pradesh) के बहराइच में बसे कमोवेश सभी वनग्रामवासी इसी तरह मूलभूत समस्याओं से जूझ रहे हैं. वनग्राम टेढिया की रहने वाली और राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित भानुमति ने कहा "हम राष्ट्रपति भवन गए, वहां हमें रंग-बिरंगी साड़ी तो दे दी. लेकिन, हमारा दुख-दर्द कोई नहीं जाना. मेरी समस्याएं है कि हमें नाली, खड़ंजा, विधवा, वृद्धा पेंशन जैसा कुछ भी नहीं मिलता, क्योंकि हम वनग्राम वासी हैं."
100 साल पहले पूर्वांचल से मजदूरों को लेकर इन जंगलों में बसाया गया था, ताकी जंगलों को बचाया जा सके. जंगल तो बच गए लेकिन, जंगल बचाने वालों के लिए आज तक मूलभूत सुविधाएं मुहैय्या नहीं हो सकीं.
लंबे संघर्ष के बाद बहराइच के इन वन ग्रामों को राजस्व गांव का दर्जा तो मिल गया लेकिन, अब भी इनकी स्थिति भारत के बाकी हिस्सों में स्थित वन ग्रामवासियों की तुलना में काफी पिछड़ी है. राजस्व गांव होने के बाद भी न तो इनके पास मूलभूत सुविधाएं हैं, न वन जमीन का अब तक मालिकाना हक मिला , न ही जंगल के संसाधनों के जरिए अपना रोजगार सृजित करने का अधिकार. वन भूमि पर रहने के ऐवज में सरकारों ने इनसे लगान तो वसूला पर वो अधिकार नहीं दिए जो हर भारत के नागरिक को मिलते हैं.
संसद में कानून तो बना, जमीन पर कोई अधिकार नहीं मिला
सन 1920-25 के आस-पास पूर्वांचल से कुछ मजदूर लाकर पूर्वी उत्तर प्रदेश के कतर्नियाघाट जंगल में इस उद्देश्य से बसाए गए थे कि यह जंगल को बचाएंगे. इसके ऐवज में यह वन उत्पाद और वन भूमि पर खेती करके अपना जीवन-यापन करेंगें. जंगल संरक्षित होने के बाद भी इन्हें वनभूमि पर पूर्ण अधिकार नहीं मिला, जिसे पाने के लिए इन लोंगों ने वन अधिकार मंच बनाकर संघर्ष करना शुरू कर दिया. अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत निवासियों के संदर्भ में दिसंबर, 2006 में संसद ने 'वन निवासी अधिकार कानून कानून' पारित किया. कानून बनने के बावजूद आज भी वन ग्राम वासी अपने मौलिक अधिकारों से वंचित हैं.
इन्ही वनग्रामों में ढकिया वन ग्राम के रहने वाले गीता प्रसाद का कहना है
हमारे पूर्वज यहां आए थे उनको वन विभाग ने जमीन दी और लगान लेना शुरू किया. पूर्वांचल से लाए गए मज़दूरों को जिस भूमि पर बसाया गया था उस भूमि के नज़दीक के ज़मीन पर इन लोंगों को खेती का भी अधिकार दिया गया था लेकिन जिस भूमि पर यह मज़दूर खेती करते थे उस ज़मीन की लगान के रूप में कुछ पैसा वन विभाग को भी देना पड़ता था जिसकी वन विभाग रसीद भी देता था. लगान लेने के बाद भी वन विभाग की मंशा थी कि यह लोग अब यह जगह खाली कर दें.
जंगल को आग से बचाने वालों के लिए कोई स्कूल-कॉलेज नहीं, जान का भी खतरा
वन ग्राम कैलाशनगर निवासी 18 वर्षीय क्षात्र हरीश चन्द्र ने बताया ''वन ग्राम होने के कारण हमारे गांव में कोई स्कूल नहीं है, प्राइमरी के बच्चों को भी 5 किलोमीटर दूर सिरसियन पुरवा पढ़ने के लिए जाना पड़ता है और स्नातक की पढ़ाई के लिए तो 8 से 9 किलोमीटर दूर बड़खड़िया में बप्पाजी महाविद्यालय है. इतनी दूर स्कूल होने के कारण आए दिन जंगली जानवरों के हमले का डर बना रहता है.
अभी एक माह पूर्व 3 दिन में तेंदुए ने 4 बच्चों को मार दिया पक्के मकान न होने के कारण जंगली जानवर घर तक में घुस आते हैं. और सारी सड़कें कच्ची होने के कारण बरसात के चार महीने गाँव में इतनी कीचड़ रहती है कि चलना दूभर हो जाता है ऐसे में समान बेचने वाला भी कोई नहीं आता है तब हम लोंगों को उसी कीचड़ से होकर बाज़ार जाना पड़ता है.''
कतर्नियाघाट वन्यजीव प्रभाग समीप भवानीपुर निवासी सोहन लाल अपनी परेशानियों के बारे में बताते हुए कहते हैं कि
हमें मिट्टी के तेल से दीपक जला कर रात कटनी पड़ती है वह भी जब हवा तेज़ चलती है तो बुझ जाते हैं, सोहन बताते हैं कि 32 साल की उम्र में उन्होंने तीन तांगिया (पेड़ों का झुण्ड) लगाए हैं और दिन-रात जंगल की हिफाज़त करते है, उनका मानना है कि अगर वनग्रामवासी जंगल न बचाएं तो एक बार की आग में न जंगल बचेगा न जानवर.
देश के बाकी वनग्रामवासियों से ज्यादा कठिन है इनकी जिंदगी
भारत के अन्य जंगली इलाकों की अपेक्षा इन वनवसियों की दशा बहुत ही अलग और दयनीय है. अब ऐसा क्यों है? ये समझने के लिए कुछ तथ्यों पर नजर डालते हैं.
उन्हें भारत का एक नागरिक नहीं माना जाता था. यह गांव भारत/उत्तर प्रदेश पंचायती राज अधिनियम 1995 के तहत किसी भी गांव/क्षेत्र पंचायत/जिला पंचायत क्षेत्र में नहीं आते थे.
इन लोगों का नाम परिवार रजिस्टर के भाग-दो में कहीं भी दर्ज नहीं था जो कि किसी की पहचान के लिए अति आवश्यक दस्तावेज है. इसके चलते ये लोग सरकारी योजना का लाभ लेने के लिए पात्र नहीं माने जाते थे.
इन वनग्राम वासियों को कोई निवास, जाति व आय प्रमाण पत्र जारी नहीं किया जाता था. इन दस्तावेजों के बिना ये लोग-किसी राष्ट्रीय बैंक में अपना खाता खुलवाने व बैंक ऋण लेने के पात्र नहीं थे जिससे वे स्वरोजगार कर सकें.
सरकारी नौकरी, वीजा व पासपोर्ट के लिए आवेदन नहीं कर सकते थे. इन गांवों में कभी भी गरीबी रेखा के नीचे का सर्वे नहीं कराया गया. इन गांवों को भारत की जनगणना में भी नहीं लिया गया था. कोई भी व्यक्ति ज़मीन का मालिक नहीं था.
16 अप्रैल 2010 को तत्कालीन जिलाधिकारी रिग्जियान सैम्फिल ने वनग्राम गोकुलपुर के 53 लोंगों को सर्व प्रथम भूमि पर अधिकार के पट्टे दे दिए. लेकिन उसके बाद भी बचे हुए पट्टे और गांव को राजस्व दिलाए जाने की लड़ाई जारी रही जिसमें पहली सफलता दिसम्बर 2019 में वनटांगिया दफेदार गौढ़ी उर्फ गोकुलपुर को मिली और उस गांव को प्रदेश सरकार की तरफ से राजस्व ग्राम घोषित कर दिया गया.
लेकिन राजस्व ग्राम घोषित होने के बावजूद वहां कोई भी विकास का कार्य बिना प्रभागीय वनाधिकारी की मंजूरी के संभव नहीं है. क्योंकि उस भूमि का असली हकदार वन विभाग ही रहेगा. लोगों को सिर्फ वहां रहने, निवास बनवाने, वोट देने और भूमि पर खेती का अधिकार दिया गया है लेकिन भूमि का मालिकाना हक वन विभाग को ही है, इसलिए कोई भी पट्टा धारक न भूमि बेच सकता न ही उस पर कर्ज़ ले सकता है .
78 साल बाद अपने अधिकारों को जान पाए वनग्रामवासी
1920-25 के बीच यहां बसे वन ग्रामवासियों की दुर्दशा को देखते हुए सन 2003 में एक गैर सरकारी संस्था देहात इनके बीच आई. एक्टिविस्ट स्वर्गीय जीतेन्द्र चतुर्वेदी ने वनग्रामवासियों को उनके कानूनी अधिकार बताए, 2003 से 2006 तक यह वनग्राम वासी लड़ते रहे आंदोलन और प्रदर्शन करते रहे तब जाकर 2006 में जंगल में इनका बेगार करना बन्द हुआ. लेकिन, हर भारतीय नागरिक को मिलने वाले अधिकार इन्हें नहीं मिले. तत्कालीन ज़िला अधिकारी बहराइच रिगजियान सैम्फिल ने 2010 को वन भूमि पर खेती का अधिकार तो इन्हें दिया लेकिन इनके गांव को राजस्व का दर्जा न मिलने से इनकी ज़िन्दगी में कोई बेहतर सुधार नहीं हो सका.
इसी बीच अनुसूचित जनजाति एवम अन्य परम्परागत वन निवासी वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम 2006 नियमावली 7 कानून बन कर आया, जिसमें 75 वर्ष आयु के ऊपर के लोगों को मालिकाना हक देने की बात कही गई. इसके बाद दावा फार्म भरे जाने का सिलसिला शुरू हुआ जिसमें अब तक कुल दावेदार 1254 दावे प्रस्तुत किए गए जिनमें 273 को मालिकाना हक मिल गया, लेकिन ग्राम स्तरीय वन अधिकार समिति ने 122 दावा फार्म खारिज कर दिए और 859 दावे अभी भी उपखण्ड स्तरीय वन अधिकार समिति के समक्ष विचाराधीन हैं.
दरअसल प्रदेश से लेकर गांव स्तर तक 4 कमेटियां बनी हुई हैं जो वनग्राम की भूमि के दावों का परीक्षण करती हैं. इस परीक्षण में जो दावे पास हो जाते हैं उन्हें भूमि पर खेती का अधिकार मिल जाता है. लेकिन, भूमि पर सिर्फ खेती का ही अधिकार होता है उस भूमि पर मालिकाना हक नहीं बदल सकता, जिस व्यक्ति को पट्टा मिला है उसके अगर कोई औलाद नहीं है तो वह भूमि फिर वन विभाग की हो जाती है.
लंबी लड़ाई के बाद वोट का अधिकार तो मिला, पर सुविधाएं नहीं
भारत नेपाल सीमा पर स्थित, योजना आयोग द्वारा देश के 100 अति पिछड़े जनपदों में शुमार, जनपद बहराइच उत्तर प्रदेश का अति पिछड़ा जिला है. इस जनपद में 14 विकास खण्ड हैं जिनमें मिहीपुरवा सबसे पिछड़ा हुआ विकास खण्ड है. इस विकास खण्ड का अधिकतम भू-भाग घने जंगलों से ढका हुआ है. इन जंगलों के बीच 6 गांव बसे हैं जिन्हें वनग्राम/वन टांगिया कहा जाता हैं. इन छह वनग्रामों में भवानीपुर, बिछिया, टेडिया, ढकिया और दफेदार गौढ़ी (गोकुलपुर) और महबूब नगर की लगभग 7 हजार की आबादी जंगल के नजदीक रहती है.
इन गांवों को राजस्व गांव चाहलवा और आम्बा में जोड़ दिया गया जिससे इन्हें पंचायत चुनाव में भी वोट देने का अधिकार मिल गया लेकिन इनके गाँव को राजस्व का दर्जा न मिलने के कारण इनके गाँव का कोई विकास नहीं हो सकता था और यह न कोई सरकारी योजना का लाभ ले सकते थे.
इस आबादी के पूवर्जों को 1925 के आसपास वन विभाग जंगल की रखवाली करने, पौध रोपण करने, जंगल में लगी आग को बुझाने, घास के मैदानों की सफाई करने आदि के लिए लेकर आए थे तब से ही यह जंगल को बचाते और अपने जीविकोपार्जन के लिए जंगल की भूमि पर खेती करते तथा जंगल के उत्पाद से अपना गुज़र बसर करते थे.
भारत में रहने के बाद भी 2008 से पहले इन्हें वोट देने का अधिकार नहीं था, फिर इन लोगों को लोक सभा में वोट देने का अधिकार मिला. 2011 में इनके गावों को वोट के लिए राजस्व गावों में शामिल कर दिया गया तब इन्हें अन्य चुनावों में भी वोट देने का अधिकार मिला.
वनग्रामवासी राजस्व गांव घोषित होन की मांग को लेकर लड़ते रहे और पहली सफलता 18 दिसम्बर 2019 को दफेदार गौढ़ी (गोकुलपुर) वन टांगिया को मिली. लेकिन सभी गांव राजस्व नहीं हो पाए तो उनकी लड़ाई जारी रही और 8 जनवरी 2022 को भवानीपुर, बिछिया, टेढिया और ढकिया वन ग्राम को भी राजस्व घोषित कर दिया गया. आज गोकुलपुर, बिछिया, टेढिया, ढकिया और भवानीपुर के 6413 लोगों को तो राजस्व के अधिकार मिल गए हैं, अब इस गाँव के लोग आय, निवास बनवाने के साथ-साथ भाग दो के रजिस्टर में अपना नाम का पंजीकरण करवा सकते और नॉकरी के लिए फार्म भर सकते है.
गोकुलपुर में एक खड़ंजा रोड बनी है. अभी तक न शौचालय है, न सरकारी आवास न स्कूल हैं न ही कोई स्वास्थ्य केंद्र है. वन टांगिया महबूब नगर, वनबस्ती कतरनियाघाट, बिछिया बाजार, निषाद नगर, तेलागौढी, तुलसी पुरवा, गुप्ता पुरवा, जागा पुरवा, हल्दी प्लाट, सुखडी पुरवा, श्री राम पुरवा, डाँड़ा गौढी, सताइस पचपन, सम्पत पुरवा, धरमपुर रेतिया, रामपुर रेतिया, निशान गाड़ा, मुर्तिहा, सलारपुर व ककरहा सहित 20 गाँव को राजस्व का अधिकार नहीं मिला है, इसलिए उनकी हालत और बदतर है.
वन अधिकारी गूगल के आधार पर गांवों को बता रहे अवैध
प्रभागीय वनाधिकारी कतर्नियाघाट आकाशदीप बधावन से जब पूछा गया कि बाकी गांवों को अधिकार कब-तक मिलेंगे? तो जवाब में उन्होंने कहा ''महबूब नगर वन टांगिया का रिकार्ड मिलता है वह छूट गई है देर सवेर उसको राजस्व का अधिकार मिल जाएगा. बाकी जिन गांवों की आप बात कर रहे वह सब अवैध बस्तियां हैं उनको हटाया जाएगा.'
उन्होंने कहा- ''गूगल अर्थ पर जब हम 1980 की इमेज देखते हैं तो वहां कोई गांव नहीं दिखाई देता बल्कि पेड़ दिखाई देते हैं. 2005 तक वहां पर पेड़ हैं. 2010 में वहां बस्तियां दिखाई देती हैं इसका मतलब पेड़ काटकर अवैध बस्ती बसाई गई.'' 1980 में गूगल के न होने की बात पर उन्होंने कहा ''गूगल जब आया तो उसने सेटेलाइट से खींची पुरानी तस्वीरों के अधिकार खरीदकर अपलोड किए हैं.''
सिर्फ राजस्व का दर्जा काफी नहीं, वन भूमि पर भी अधिकार मिले
लगभग दो दशक से वनग्राम वासियों के बीच काम करने वाली संस्था डेवलपमेंटल एसोसिएशन फार ह्यूमन एडवांसमेन्ट "देहात" के कार्यकारी अधिकारी दिव्यांशु चतुर्वेदी कुछ वन ग्रामों को राजस्व ग्राम का दर्जा मिलने से संतुष्ट नहीं दिखाई देते. उनका कहना है
कुछ लोग इसे अपनी जीत समझ रहे हैं. लेकिन, जिस तरह महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंडा लेखा गांव को सामुदायिक अधिकार मिले हुए हैं वैसे ही अधिकार जब इनको मिलेंगे तब इनकी उन्नति होगी.
"वृक्ष मित्र" समाज सेवी संस्था के संयोजक मोहन हीरा बाई हीरा लाल ने बताया कि 2009 में मेंडा लेखा को सामुदायिक वनाधिकार का दर्जा मिला जिसके तहत उसे 1800 हेक्टेयर वनक्षेत्र में तेंदूपत्ता, शहद, बाँस, महुआ और जड़ीबूटियों के उत्पादन का 100 प्रतिशत मालिकाना हक मिल गया. इसके बाद मेंडा कि ग्राम समिति ने 2011-12 में सिर्फ 400 हेक्टेयर का बांस बेचा जिससे उसे एक करोड़ का टर्न ओवर हुआ. 515 लोगों की आबादी वाले इस गांव में मजदूरी और कर्ज लेने की समस्याएं समाप्त हो चुकी हैं.
वहीं बहराइच के वनग्रामवासियों को कोर ज़ोन के नाम पर जंगल के किसी भी उत्पाद पर अधिकार नहीं मिला है. जब वन अधिकार अधिनियम बना तो हर वन ग्राम वासी को वन के हर उत्पाद का पूरा अधिकार दिया गया था. यानी वनग्राम वासी अपने इलाके के जंगल से खर-पतवार, शहद, तेंदू पत्ता, जड़ी बूटी आदि तोड़ कर इस्तेमाल करने के साथ-साथ उसे बेच भी सकते हैं.
नीति आयोग के सदस्य टी हक का मानना है कि देश में सिर्फ 3 प्रतिशत वनग्रामवासियों को व्यक्तिगत अधिकार मिल पाया है इनको अधिकार न मिल पाने के पीछे राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी है इसलिए यह ऐक्ट महज किताब का एक टुकड़ा बनकर रह गया है.
जाहिर है कि राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी और ऐक्ट के मुताबिक दावों को प्रस्तुत न कर पाने के कारण वनग्रामवासियों का संघर्ष फिलहाल इतने जल्दी खत्म होता नहीं दिखता.
[यह स्टोरी स्वतंत्र पत्रकारों के लिए नेशनल फाउंडेशन फ़ॉर इंडिया की मीडिया फेलोशिप के तहत रिपोर्ट की गई है।]
(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)