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न्यूजीलैंड को कोरोना से बचाया-वोटर ने जीताया,अहम है जैसिंडा की जीत

1996 के बाद पहली बार किसी पार्टी को बहुमत

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कोरोना वायरस महामारी ने अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के फ्रांस और इटली जैसे देशों के मजबूत समझे जाने वाले हेल्थकेयर सिस्टम की नींव हिला के रख दी. इस महामारी का कुछ वैश्विक नेताओं ने मजाक बनाया और अब दुनिया के सामने वो मजाक बन गए हैं. वहीं, दूसरी तरफ ऐसे नेता हैं जिन्होंने वो सब किया, जो ऐसी भयानक स्वास्थ्य आपदा में किया जाना चाहिए.

जैसिंडा आर्डर्न इन दूसरे नेताओं की केटेगरी में आती हैं. ये आर्डर्न के समझदारी और कड़े फैसलों का ही नतीजा है कि आज तक न्यूजीलैंड में कोरोना वायरस के कुल 1800 करीब केस आए हैं. एक्टिव केस देश में बमुश्किल 33 हैं और संक्रमण से करीब 25 मौतें हुई हैं. और जैसिंडा आर्डर्न को इसका 'इनाम' भी मिला है. वो न्यूजीलैंड का आम चुनाव जीत गई हैं, लेकिन उनकी जीत साधारण नहीं है.

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40 साल की जैसिंडा आर्डर्न की जीत बड़ी है क्योंकि इस साल के फरवरी तक चुनावी एक्सपर्ट्स को लग रहा था कि उनका पहला प्रधानमंत्री कार्यकाल आखिरी बन जाएगा. वोटर नाखुशी जाहिर कर रहे थे. उनका कहना था कि आर्डर्न ने जरूरत से ज्यादा वादे किए हैं और जरूरत से कम काम किया है. लेकिन फिर महामारी आई और ये स्थिति बदल गई. आर्डर्न इस मुश्किल समय में ऐसी वैश्विक नेता बनकर उभरीं, जिनका उदाहरण दिया जाने लगा. उन्होंने न्यूजीलैंड में संक्रमण की रोकथाम के लिए जो किया, वो केस स्टडी बन गया.

न्यूजीलैंड जैसे छोटे से देश की प्रधानमंत्री की दुनियाभर में इतनी पॉपुलैरिटी बड़ी बात है. लेकिन उससे भी बड़ी बात इन चुनावों में हुई है और इसके नतीजे न्यूजीलैंड की राजनीति को लंबे समय तक प्रभावित करेंगे.

1996 के बाद पहली बार किसी पार्टी को बहुमत

न्यूजीलैंड में चुनाव का MMP सिस्टम चलता है. MMP का मतलब होता है (मिक्स्ड मेंबर प्रपोर्शनल). 1996 में न्यूजीलैंड में चुनावी सुधार हुए थे और तभी इस सिस्टम को अपनाया गया था. उससे पहले तक देश में लेबर पार्टी और नेशनल पार्टी का बोलबाला रहता था. लेकिन इस सिस्टम के आने के बाद वोटर के लिए कई पार्टियां विकल्प के तौर पर उभरीं.

MMP सिस्टम के तहत वोटर को दो बार वोट करना होता है. एक वोट पसंदीदा पार्टी और दूसरा वोट चुनावी क्षेत्र के सांसद के लिए होता है. न्यूजीलैंड की संसद में 120 सीटें हैं. जब वोटर पार्टी को वोट देता है, तो इससे तय होता है कि किस पार्टी को संसद में कितनी सीटें मिलेंगी. और जब लोग सांसद के लिए वोट डालते हैं तो वो तय करते हैं कि उनके क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कौन करेगा. इसे इलेक्टोरेट वोट भी कहते हैं.

1996 में इस सिस्टम को अपनाने के बाद से किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला है. न्यूजीलैंड में गठबंधन की सरकार सामान्य बात है. लेकिन इस बार ये बदल गया है.

जैसिंडा आर्डर्न की लेबर पार्टी को 49.1% वोट मिले हैं, जो कि करीब 64 संसद सीटों में तब्दील होंगे. 1946 के बाद से ये लेबर पार्टी का सबसे अच्छा प्रदर्शन है. वहीं, नेशनल पार्टी को 26.8% वोट मिले हैं और करीब 35 सीटें मिलेंगी.

चुनाव से कुछ समय पहले तक एक्सपर्ट्स का मानना था कि ये चुनाव बहुत रोमांचक नहीं होने जा रहा है. महामारी के बाद आर्डर्न की पॉपुलैरिटी में बढ़ोतरी को देखते हुए उनका जीतना तय लग रहा था. लेकिन बहुमत मिल जाना किसी भी स्तर से बहुत बड़ा बदलाव है.

आर्डर्न ने महामारी को कैसे संभाला?

अप्रैल की शुरुआत में न्यूजीलैंड में कोरोना वायरस के 1,283 मामले थे. अब ये आंकड़ा 1800 से थोड़ा ज्यादा है. इन पांच महीनों में बाकी देशों में महामारी ने तबाही मचा दी है, लेकिन न्यूजीलैंड में संक्रमण आर्डर्न के फैसलों की वजह से काबू में रहा.

28 फरवरी को देश में COVID-19 का पहला केस रिपोर्ट हुआ था. इसके बाद 14 मार्च को पीएम आर्डर्न ने ऐलान कर दिया था कि देश में आने पर हर शख्स को 2 हफ्ते सेल्फ-आइसोलेशन में बिताने होंगे. जानकारों का कहना है कि उस समय देश में सिर्फ 6 मामले थे, लेकिन सीमा पर लगाई गई पाबंदियां काफी ज्यादा सख्त थीं. आर्डर्न ने देश के लोगों से कहा था, "हमें सख्त होना पड़ेगा और जल्दी होना पड़ेगा."

इसके बाद 19 मार्च को आर्डर्न ने देश में विदेशियों की एंट्री बैन कर दी थी. तब न्यूजीलैंड में COVID-19 के 28 मामले थे. 23 मार्च को लॉकडाउन का ऐलान हुआ था और उस समय 102 केस थे.

न्यूजीलैंड की सरकार ने लोगों से लॉकडाउन के संबंध में साफ बात की. सख्त पाबंदियां लगाने से पहले सरकार ने निवासियों को इमरजेंसी मेसेज भेजा, "ये मेसेज पूरे न्यूजीलैंड के लिए है. हम आप पर निर्भर हो रहे हैं. आज रात आप जहां हैं, अब से वहीं आपको रहना होगा. ये पाबंदियां हफ्तों रह सकती हैं."

आर्डर्न ने महामारी से लड़ाई में अपना नजरिया साफ रखा. जब सख्त फैसले लेने का समय था तो वो लिए और जब स्थिति ठीक हुई तो पाबंदियां हटाई गईं. आर्डर्न ने अपने तीन साल के कार्यकाल में आतंकी हमले से लेकर खतरनाक महामारी तक का सामना किया है और उनकी जवाबी कार्रवाई हमेशा निर्णायक और सहानुभूति भरी रही है.

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