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मोदी मिड-टर्म: ढाई साल में इंदिरा और राजीव की राह पर नरेंद्र मोदी

क्या पीएम मोदी को इंदिरा और राजीव गांधी की तरह हार का सामना करना पड़ेगा. 

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नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बने 30 महीने होने जा रहे हैं. इस बीच उनका परफॉर्मेंस अच्छा रहा है या उनकी सरकार का? यह सवाल पूछना जरूरी है क्योंकि मोदी का आचरण ऐसा रहा है (अगर आपको भागवत गीता का अध्याय 10 पसंद है तो)- जैसे अग्नि में ताप का होता है, जैसे बुद्धिमता में विवेक का और जैसे रोशनी में ज्योति का. उन्होंने चीजें शुरू की हैं, उसके केंद्र में भी वही रहे हैं और उनका अंत भी उन्हीं से हुआ है.

मोदी ने किया बीजेपी का सामंतीकरण

क्या पीएम मोदी को इंदिरा और राजीव गांधी की तरह हार का सामना करना पड़ेगा. 
(फोटो: PTI)

इस तरह से उन्होंने बीजेपी का सामंतीकरण कर दिया है. मोदी जिस तरह से पार्टी और सरकार को मैनेज कर रहे हैं, उससे बीजेपी के दूसरे नेताओं का कद छोटा हो गया है. इंदिरा गांधी, एमजीआर, जयललिता, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू जैसों ने भी यही काम किया था या कर रहे हैं. बाहर और अंदर से बीजेपी दूसरी पार्टियों जैसी दिख रही है. अब उसे अपनी जड़ों की तरफ लौटने में लंबा वक्त लगेगा. लेकिन लोगों को इस बदलाव की परवाह नहीं है क्योंकि राजीव गांधी के दिसंबर 1989 लोकसभा चुनाव में 415 सीटों का सबसे बड़ा बहुमत गंवाने के बाद से देश में कमजोर गठबंधन सरकारें रही हैं और इस बीच आए कई लीडर कमजोर कलेजे वाले निकले. 1989 से देश एक कद्दावर नेता का इंतजार कर रहा था. मोदी ने यह तमन्ना पूरी की है. उनमें जो आत्मविश्वास और बेपरवाही दिखती है, वह पब्लिक के दिल तक पहुंचती है.

ऐसा नहीं है कि मोदी ने नीतियों में कोई बड़ा बदलाव किया है. वह तो बस रियल पॉलिटिकल लीडर की तरह दिख रहे हैं. वह निडर हैं. उनमें गजब का आत्मविश्वास है. वह स्मार्ट हैं. मोदी के दिमाग में कोई कन्फ्यूजन नहीं है और ना ही उन्हें खुद के हाई प्रोफाइल होने से परहेज है.

‘जुगाड़’ पॉलिसी

एक इंसान, पॉलिटिशियन और लीडर के तौर पर मोदी सफल रहे हैं, लेकिन क्या उनकी नीतियां भी कामयाब या काम की रही हैं? कुछ लोग सवाल करते हैं कि क्या मोदी की कोई पॉलिसी भी है? यह आशंका बिना वजह नहीं है. क्या मोदी को लगता है कि बिना तैयारी और सिस्टम को अचानक हिलाना देना ही नीतियों की कमी का जवाब है?

पिछले 30 महीनों का तजुर्बा तो यही बताता है कि वह सिस्टम को हिलाने को नीतियों का ऑल्टरनेटिव मानते हैं. इस अप्रोच से कुछ समय के लिए राजनीतिक फायदा हो सकता है, लेकिन मीडियम टर्म में इससे कुछ हाथ नहीं आएगा. विदेश, आर्थिक और सामाजिक नीतियों के मामले में सरकार की पोल पहले ही खुल चुकी है. इसलिए इधर-उधर हाथ-पैर मारने के बाद वह पुरानी नीतियों पर लौट आई. मोदी की सरकार बनने के बाद जो बजट पेश हुए, उनमें कोई रिस्क नहीं लिया गया और सबको खुश करने की कोशिश हुई. सोशल पॉलिसी से प्रधानमंत्री ने हिंदूवादी ताकतों को संतुष्ट किया है, जो उनका अंधभक्त है. सरकार की आर्थिक नीतियों के केंद्र में समाजवाद दिखता है. सबसे बड़ी बात यह कि वह ब्यूरोक्रेसी पर लगाम नहीं लगा पाए हैं, जो न जाने किन-किन तरीकों से पब्लिक को अब भी परेशान कर रही है. सच तो यह है कि अधिकतर लोग काले धन के लिए सरकार को जिम्मेदार मानते हैं.

इंदिरा की कॉपी

क्या पीएम मोदी को इंदिरा और राजीव गांधी की तरह हार का सामना करना पड़ेगा. 
प्रणब मुखर्जी के साथ इंदिरा गांधी. (फोटो: Twitter)
शायद मोदी को पता नहीं है लेकिन वह इंदिरा गांधी की कॉपी बनते जा रहे हैं. मोदी जो भी करते हैं, उसके केंद्र में वह खुद होते हैं या मकसद चुनाव जीतना होता है. इसके अलावा उन्हें किसी चीज की परवाह नहीं है. समर्थकों ने मोदी के हर नाटकीय कदम को साहस बताया है. वे कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री नई चीजें आजमाने से नहीं डरते. अगर कोई पॉलिसी फेल होती है तो उस पर टिके रहने के बजाय नई चीज अपनाने को तैयार रहते हैं. उनके विरोधी कह रहे हैं कि वह मूर्खतापूर्ण हरकतें कर रहे हैं.

फिसल न जाएं मोदी

क्या पीएम मोदी को इंदिरा और राजीव गांधी की तरह हार का सामना करना पड़ेगा. 
(फोटो: PIB)

आखिरकार मोदी की किस्मत का फैसला वोटर्स करेंगे. अभी लोग उनके साथ हैं, लेकिन यह तेजी से बदल सकता है. मोदी राजीव गांधी के हश्र से सीख सकते हैं, जिनका ग्राफ 30 महीनों तक सत्ता में रहने के बाद अचानक से गिरा था. 1971 और 1972 में हैरतअंगेज जीत के बाद 1973 के अंत में खुद इंदिरा गांधी बड़ी राजनीतिक मुश्किल में फंस गई थीं. उनके लिए महंगाई और करप्शन शाप बन गए थे. वहीं राजीव पर खुद भ्रष्टाचार में शामिल होने के आरोप लगे और इसके बाद उनका पॉलिटिकल ग्राफ नीचे जाने लगा.

मोदी के साथ भी ऐसा हो सकता है. बोफोर्स स्कैम से राजीव गांधी का ढलान शुरू हुआ था. मोदी के लिए नोटबंदी वही प्रॉब्लम खड़ी कर सकती है. दुनिया में जितने ताकतवर नेता हुए हैं, उन सबको इस समस्या का सामना करना पड़ा है, लेकिन अक्सर गलतियों का अहसास होने में देर हो जाती है. राजनीतिक ढलान की शुरुआत तब होती है, जब पार्टी के सामान्य कार्यकर्ता, सांसद और विधायक सबसे बड़े नेता को बोझ मानने लगते हैं. यह देखने के लिए इंतजार करना होगा कि क्या अभी से 2019 के बीच मोदी के साथ भी ऐसा होगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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