सामाजिक रूप से बेहद विवादास्पद मुद्दे पर अपनी राय रखने से पहले मैं श्रद्धेय स्वर्गीय न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर के एक मशहूर वक्तव्य की तरफ आपका ध्यान खींचना चाहता हूं,- ‘नियम जमानत का है, और जेल अपवाद है.’ मैं एक महान पुलिस अधिकारी आर.एफ. रुस्तमजी के लिए भी अपना श्रद्धा व्यक्त करता हूं, जो मध्य प्रदेश के आई.जी. थे (और हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के पसंदीदा भी थे) और जिन्होंने बाद में 1965 में सीमा सुरक्षा बल (बी.एस.एफ.) का गठन किया था.
और उचित ही था कि 1997 में उन्हें पहले राष्ट्रीय पुलिस आयोग (एन.पी.सी.) का एक सदस्य बनाया गया. इस भूमिका में उन्होंने कुछ राज्यों में क्षमता से अधिक भरी जेलों का, संभवतः औचक, दौरा किया और पाया कि संवेदनहीन न्यायिक सिस्टम के चलते हजारों बीमार और बूढ़े लोग रिहाई की किसी उम्मीद के बिना सालों-साल से यहां पड़े हैं. यह देखकर वह स्तब्ध थे और उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में लेखों की एक श्रृंखला लिखी जिसने देश की आत्मा को झकझोर कर रख दिया और इसके बाद विचाराधीन कैदियों की बड़े पैमाने पर रिहाई हुई.
जमानत देने में मनमानी
एन.पी.सी. से लेकर सुधार के लिए बनी सभी संस्थाओं ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि देश में जमानत की प्रक्रिया बुरी तरह मनमानेपन का शिकार है और इस कारण अन्यायपूर्ण है, जिसमें आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है. लेकिन कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ- सिवाय अग्रिम जमानत के कानून में कुछ मामूली रफूगिरी के.
यह स्थिति इस बात पर आम सहमति के बावजूद है कि अगर भारत दुनिया के सामने दावा करना चाहता है कि मानवाधिकारों के संरक्षण में यह अन्य पश्चिमी देशों से कमतर नहीं है, तो इसके लिए बड़े बदलाव करना बेहद जरूरी है.
हाल ही में जारी भारतीय विधि आयोग की 268वीं रिपोर्ट साफ तौर पर कहती है कि, अगर हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली निष्पक्ष और समानता के नियम-कानूनों को लेकर कुछ विश्वसनीयता हासिल करना चाहती है तो इसे लेकर कुछ प्रभावी कदम उठाने होंगे कि एक गिरफ्तार शख्स के साथ कैसा बर्ताव किया जाएगा.
आयोग उसी बात कि पुष्टि करता है जिसे हम जानते हैं- अमीर और मशहूर शख्स के साथ पक्षपात होता है और गरीब सताया जाता है.
हिरासत या रिहाई का फैसला कोई अपराध करने के आरोपी की लैंगिक, उत्पत्ति, जातीय, वित्तीय स्थिति या सामाजिक रुतबे से प्रभावित नहीं होना चाहिए.भारतीय विधि आयोग की 268वीं रिपोर्ट
विवेकाधिकार का इस्तेमाल
लेकिन ठीक यही हो रहा है. इस मामले में कानून लागू करने वाली एजेंसियों और अदालतों दोनों की ख्याति अच्छी नहीं है. मुझे खासतौर से बहुत पुरानी 1966 की एक घटना याद है. ट्रेनिंग पूरी करने के बाद मुझे पहली बार फील्ड जॉब मिला था. जहां मेरा हेडक्वार्टर था, उस शहर की दो प्रमुख हस्तियां एक बदनाम जगह पर नशे की हालत में पाई गई थीं. वो दोनों अकेले नहीं थे, बल्कि एक बड़े, बदनाम और तरह-तरह के लोगों के झुंड का हिस्सा थे.
निषेध कानून और संभवत: कुछ अन्य जुआ कानूनों के तहत केस दर्ज करने के बाद वह निजी मुचलके पर ज़मानत पर रिहा कर दिए गए. जब एफआईआर सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट के सामने पहुंची तो वह गैर जमानती अपराध के आरोपियों को जमानत पर रिहा करने की पुलिस की कार्रवाई पर उबल पड़े और बहुत नाराज हुए. मैं अपने दावे पर अटल था कि पुलिस गिरफ्तार व्यक्ति को जमानत देने या ना देने के लिए सक्षम है और हमने अपने विवेकाधिकार का विधिसम्मत प्रयोग किया है. हमने जो किया है, एसडीएम को इस पर एतराज करने का अधिकार नहीं है, बशर्ते कि वह साबित कर दें कि यह एक बेईमानी से भरा निर्णय था. यह परपीड़ावाद है, जो न्यायपालिका के कुछ हिस्सों में विद्यमान है.
कुछ पुलिस जांच अधिकारी, जिनमें सीबीआई वाले भी शामिल हैं, गिरफ्तारी की कार्रवाई के दौरान अपने अधिकार का गलत इस्तेमाल करने के दोषी हैं, जो हालांकि विधिसम्मत हो सकती है, लेकिन यह न्यायसम्मत और जरूरी नहीं थी.
मुझे यह भी याद है कि कैसे एम. करुणानिधि और जयललिता के बीच निजी लड़ाई में दोनों को- जबकि दूसरा सत्ता में था- हास्यास्पद स्थितियों में जेल जाना पड़ा.
उस अपराध के लिए जेल जो साबित नहीं है
अगर आप इन मामलों को छिटपुट व्यक्तिगत पथभ्रष्ट उदाहरण कह कर खारिज कर दें तो भी क्षमता से अधिक भरी जेलें एक कठोर सच्चाई हैं. जेलों में बंद कैदियों का बड़ा हिस्सा उनके खिलाफ मुकदमों के निपटारे के इंतजार में महीनों से बंद विचाराधीन कैदियों का है.
हमारी अदालतों की सुस्त रफ्तार के चलते कई विचाराधीन कैदी करीब-करीब उतना समय जेल में काट चुके होते हैं, जितनी सजा उस अपराध के लिए तय है, जिसके लिए वो अभियोजित किए गए हैं.
किस्मत से अगर वह दोषी ठहराए जाते हैं, तो कोई बड़ा नुकसान नहीं है, क्योंकि मुकदमे के दौरान उनकी जेल में बिताई अवधि को वैधानिक कैद से समायोजित किया जा सकता है. लेकिन उस नुकसान का क्या होगा अगर वह अंत में बरी हो जाते हैं? यही असल खतरा है.
यही वजह है कि कम गंभीर अपराधों में, जिनमें तीन साल से कम की सजा हो सकती है, (या सात साल से कम सजा के मामलों में, जैसा कि विधि आयोग ने बड़ी उदारता के साथ सिफारिश की है), यह तर्किक और न्यायपूर्ण होगा कि गिरफ्तार शख्स को जल्द से जल्द जमानत दी जाए. खासकर ऐसे मामलों में जब अपराध गैर-हिंसक है और गिरफ्तार व्यक्ति को रिहा करने से अमन-चैन को कोई खतरा नहीं है.
विधि आयोग की सिफारिशें
- ऐसा विचाराधीन कैदी जिसने सात साल की कैद के अपराध के मामले में अधिकतम सजा की अवधि का एक तिहाई पूरा कर लिया है, उसे जमानत पर रिहा किया जाए.
- ऐसा विचाराधीन कैदी जिसने सात साल से अधिक कैद की सजा के अपराध में आधी से ज्यादा अवधि पूरा कर ली है, उसे जमानत दी जाए.
- ऐसे मामलों में जिसमें आरोपी अधिकतम सजा की अवधि पूरी कर चुका हो, उसकी माफी के लिए कानूनी प्रावधान किए जाने चाहिए.
आरोपी की रिहाई
मैं विधि आयोग की इस सिफारिश का पूरी तरह समर्थन करता हूं कि मुकदमे के ट्रायल के दौरान, सात साल या इससे कम सजा की अवधि वाले मामलों में कैदी को एक तिहाई अवधि पूरी कर लेने पर जमानत पर रिहा किया जाना चाहिए, भले ही अदालती कार्यवाही खत्म नहीं हुई हो.
इसी तरह जो लोग सात साल से ज्यादा सजा के मुकदमे का सामना कर रहे हैं, उन्हें आधी अवधि पूरी कर लेने के बाद रिहा कर दिया जाना चाहिए. इससे ज्यादा समझदारी भरा और सभ्य कदम कोई नहीं हो सकता. विधि आयोग का यह कहना पूरी तरह सही है कि, ‘जेल में लंबे समय तक विचाराधीन और दोषी कैदियों को अलग-अलग ना रखने से विचाराधीन कैदी भी खूंखार अपराधी बन जाएंगे.’
इसके लिए कुछ निहित स्वार्थ, परपीड़क मनोवृत्ति वाले और अमानवीय लोग जिम्मेदार हैं, जो ऐसे तार्किक सुधारों का विरोध करते हैं.
यह जरूरी है कि हम कानून तोड़ने वाले नागरिकों के साथ भी थोड़ी सहानुभूति दिखाएं, खासकर जबकि हम जानते हैं कि समाज में महान लोगों के तौर पर पेश किए जाने वालों में से बड़ी संख्या में जेल के बाहर नहीं, बल्कि अंदर होने चाहिए. लेकिन यह लोग छल-कपट, ताकत और कानून का बेजा इस्तेमाल कर कानून के लंबे हाथ से बचे हुए हैं. इस निराशाजनक स्थिति में प्राथमिकता के आधार पर सुधार लाने की जरूरत है.
(डॉ. आर.के. राघवन सीबीआई के पूर्व निदेशक हैं. यह एक विचारात्मक लेख है और इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट ना तो इनका समर्थन करता है ना ही इनके लिए जिम्मेदार है.)
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