‘’अगस्त में ऐसी मौतें होती हैं’’
गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में बच्चों की मौत पर स्वास्थ्यमंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह ने बिलकुल सही फरमाया है. क्योंकि...
-हर साल जुलाई से दिसंबर के बीच इंसेफेलाइटिस से होने वाली ये 'मौतें' हमारे लिए कोई बहुत बड़ा 'मुद्दा' नहीं बन पातीं.
-मौतों का 'वजन' हम क्षेत्र के हिसाब से तय करते हैं, दिल्ली में डेंगु और चिकनगुनिया पर मचने वाला बवाल इसका उदाहरण है.
-अगर ये मुद्दा होता तो दिल्ली में बैठा शख्स 'इंसेफेलाइटिस' का उच्चारण करने में हिचकिचाता नहीं, ये नहीं पूछता कि आखिर ये बला क्या है?
‘मैंने देखा है वो दर्द’
3 दशक और गिनी-अनगिनी 50 हजार से ज्यादा मौतों का कारण बनी इस बीमारी का खौफ आप पूर्वांचल के लोगों में देख सकते हैं. मैं इतने दावे के साथ ये बात इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं भी गोरखपुर से महज 55 किलोमीटर दूर महाराजगंज जिले का रहने वाला हूं.
ये जिला भी दशकों से इंसेफलाइटिस का दंश झेल रहा है. बच्चों को खोते परिवारों का दर्द और कभी-कभी जिंदा बच जाने के बाद भी विकलांग होते मैंने देखा है.
यानी वो इंसेफेलाइटिस से जिंदा तो बच जाते हैं, लेकिन जी नहीं पाते.
गोरखपुर मेडिकल कॉलेज की दिक्कत
गोरखपुर, महराजगंज, सिद्धार्थनगर, संतकबीर नगर, कुशीनगर समेत पूर्वांचल के सभी जिलों में जुलाई से दिसंबर का महीना इंसेफेलाइटिस के खौफ में ही गुजरता है, क्योंकि इन महीनों यानी मॉनसून और पोस्ट मॉनसून में इस बीमारी की दहशत काफी होती है.
ऐसे में बच्चों को बुखार तक आने पर भी लोग संकोच में लेकर गोरखपुर मेडिकल कॉलेज भागते हैं, क्योंकि गोरखपुर के BRD मेडिकल कॉलेज में पूर्वांचल के दूसरे अस्पतालों की अपेक्षा सुविधाएं ज्यादा हैं. कई जिलों के लोगों का 'बोझ' अकेला इसी मेडिकल कॉलेज को उठाना पड़ता है.
अक्सर, वहां के स्थानीय अखबारों में आप पढ़ सकते हैं कि मेडिकल कॉलेज के इंसेफेलाइटिस वार्ड में 1 बेड पर 2-2 बच्चों या 3-3 बच्चों का इलाज चल रहा है. डॉक्टर्स भी इस बात की तस्दीक कर रहे हैं. ऐसे में ‘सुविधाओं’ की दशा तो आप समझ ही गए होंगे.
ऑक्सीजन गैस पर हंगामा
अगर, गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालात ऐसी ही है तो ऑक्सीजन की कमी पर हंगामा क्यों मच रहा है. मरने वाले बच्चों के परिवार वालों को इससे क्या मतलब? उन्होंने तो अपना सबकुछ खो दिया. सिर्फ ऑक्सीजन की सप्लाई बेहतर होती तो पिछले कई सालों की मौत रूक जाती क्या?
पूर्वांचल को अगर आप ठीक से जानते होंगे तो आपको स्वास्थ्य सेवाओं का अंदाजा होगा, आप हर बार आसपास के जिलों से भागकर गोरखपुर नहीं आ सकते, न ही कच्ची पक्की सड़की इसके लिए इजाजत देती हैं.
पूर्वांचल में बद से बदतर हैं हालात
मेरा मतलब साफ है, पूर्वांचल में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालात बद से बदतर हैं. पिछली सरकारों से लेकर फिलहाल की योगी सरकार ने अब तक तो इसके लिए कोई बहुत बड़ा कदम नहीं उठाया है, कदम से याद आया -
'योगी से उम्मीदें बहुत हैं'
15 मार्च 2017 यानी योगी आदित्यनाथ को गद्दी मिलने से ठीक 3 दि्न पहले मैं महाराजगंज के जिला अस्पताल के इंसेफेलाइटिस विभाग में था. जिले के अपर मुख्य चिकित्साधिकारी डॉक्टर आईए अंसारी जी, इंसेफेलाइटिस पर ही किसी जागरूकता कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर रहे थे, उनके मुताबिक घरवालों की तरफ से बच्चों को अस्पताल लाने में ही देर कर दी जाती है.
कुछ ही दूर पर इंसेफेलाइटिस वॉर्ड में एक शख्स की 5 साल की बच्ची एडमिट थी. जिला अस्पताल के मुताबिक जनवरी से मार्च (इंसेफेलाइटिस इन महीनों में चरम पर नहीं होता) तक 3 बच्चों की मौतें महाराजगंज में हो चुकी थी, सरकारी आंकड़ों से इतर कुछ और बच्चों की मौतों से इनकार नहीं किया जा सकता. ऐसे में वो शख्स डरा हुआ था, उसने बताया-
बच्चे की तबीयत कुछ दिनों से बिगड़ती ही जा रही थी, पैसा होता तो यहां नहीं आते, गोरखपुर ले जाते हैं, पेट काटके पाले हैं ऐसे नहीं देख सकते.
बात कुछ आगे बढ़ी तो उन्होंने कहा कि अब शायद जिले में भी सुविधा थोड़ी अच्छी हो जाए 'योगीजी' की पार्टी जीत गई है.
गुस्सा, नाराजगी, बेबसी...
ये सिर्फ उस शख्स की लाइन नहीं है, 18 मार्च को योगी आदित्यनाथ के सीएम बनने के बाद तो उनके समर्थकों के बीच खुशी की लहर सी दौड़ गई. उन्हें लगा कि अब तो हर मर्ज का इलाज बाबा के नाम से जाने जाने वाले योगी ही हैं.
लेकिन अब मेडिकल कॉलेज हादसे के पीड़ित सरकार से गुस्से में हैं, ऐसा गुस्सा पहले योगी आदित्यनाथ के खिलाफ शायद ही देखा गया हो.
'लेकिन हमें भूलते देर नहीं लगती'
पूर्वांचल के लोग तो इस हादसे को नहीं भूला पाएंगे, शायद देश जरूर भूल जाए, ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इंसेफेलाइटिस से साल-दर-साल मॉनसून सीजन में होने वाली मौतों के बारे में देश सुनता है, फिर सरकार, मीडिया और देश इसे भूल जाता है, इंतजार होता है कुछ नई चीखों का.....
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