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मुंबई: नेता और नौकरशाह, सपनों के इस शहर का दम घोंट रहे हैं

समझिए मुंबई की स्पिरिट के सही मायने

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मुंबई लोकल के एलफिन्सटन रोड रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ में लोगों के मारे जाने के बाद मुंबई की बुनियादी सुविधाओं पर चर्चा हो रही है. हो सकता है कि कल सुबह मीडिया से लेकर बुद्धिजीवी और यहां तक कि सरकार में बैठे लोग भी बताने लगें कि मुंबई के लोग कितने जीवट वाले हैं. ये भी बताया जाएगा कि मुंबईकर स्पिरिट क्या होती है? ये भी बताया जाएगा कि मुंबई ने कैसे इतने बड़े हादसे के बाद भी फिर से खड़े होकर दौड़ना सीख लिया है. ये बताकर मुंबईकरों को महान बना दिया जाएगा. महान बनाकर उनकी सारी शिकायतें, सारा गुस्सा ठंडा कर दिया जाएगा.

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ये लम्बे समय से चली आ रही सरकारों, नेताओं, बाबूशाही की रणनीति है. इसी रणनीति के भरोसे देश में सबसे बुरे हाल में जी रहे मुंबईकरों की जेब खाली करके देश का खजाना भरा जाता रहेगा. आर्थिक राजधानी का तमगा देकर मुंबई में रहने वालों को उस भ्रमजाल में फंसा दिया जाता है, जहां शिकायत करने के बजाय, मुश्किलों में ही जीने की आदत डाल दी जाती है.

मुंबईकर स्पिरिट के सही मायने समझिए

मुंबई के लोग देश में सबसे ज्यादा टैक्स चुकाते हैं. काम करने के लिहाज से मुंबई, देश में सबसे ज्यादा कामकाजी लोगों का शहर है. इस शहर में काम की कद्र बहुत ज्यादा है और इस कद्र की वजह यही है कि ये शहर सही मायने में कॉस्मोपॉलिटन है. शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की छिटपुट संकीर्ण कोशिशों के बावजूद मुंबई इस देश का एक ऐसा शहर है, जहां देश के किसी भी हिस्से से कोई भी जाकर अपना सपना सच कर सकता है. हर नई सुबह, मुंबईकर अपने सपने के नजदीक पहुंचने के रास्ते पर खुद को खड़ा पाता है. सही मायने में यही मुंबईकर स्पिरिट है. लेकिन, सरकारों, नेताओं, बाबूशाही की घिनौनी रणनीति ने इस मुंबईकर स्पिरिट को घटिया बनते मुंबई शहर के लोगों को सवाल पूछने से हतोत्साहित करने के तौर पर इस्तेमाल कर लिया है.

ये लम्बे समय से चली आ रही सरकारों, नेताओं, बाबूशाही की रणनीति है. इसी रणनीति के भरोसे देश में सबसे बुरे हाल में जी रहे मुंबईकरों की जेब खाली करके देश का खजाना भरा जाता रहेगा. आर्थिक राजधानी का तमगा देकर मुंबई में रहने वालों को उस भ्रमजाल में फंसा दिया जाता है, जहां शिकायत करने के बजाय, मुश्किलों में ही जीने की आदत डाल दी जाती है.

इस शहर से जितनी मोहब्बत है, उससे थोड़ी कम ही नफरत है

संयोगवश मेरे जीवन के महत्वपूर्ण 4 साल साल से ज्यादा इसी शहर में बीते हैं. मुझे इस शहर से जितनी मोहब्बत है, उससे थोड़ी कम ही नफरत होती है. और, उस नफरत की वजह सरकारों, नेताओं, बाबूशाही की वही रणनीति है, जिसकी वजह से मुंबई में लोग मुश्किलों में जी रहे होते हैं. लेकिन, अपने हक के लिए सवाल पूछने से डरते हैं. डरते इसलिए हैं कि कहीं उनके सपने पूरे होने के दिन थोड़ा और दूर न चले जाएं. इसीलिए मुंबई की हर साल की बाढ़, सड़कों में गड्ढे, लोकल की छत से लेकर लोकल में लटके हुए हर रोज अपने जीवन को दांव पर लगाए, सपना सच करने के लिए भागते रहते हैं.

कमाल की बात ये कि इसी सपने को सच करने के लिए भागते मुंबईकर की मजबूरी को सरकारों, नेताओं, बाबूशाही की घिनौनी रणनीति ने मुंबई की स्पिरिट का नाम दे दिया है. मुंबईकर स्पिरिट है, जो उन्हें रोज कितनी भी मुश्किलों के बाद खड़ा कर देती है. लेकिन, सोचिए जरा कि जिस मुंबई लोकल को मुंबई की लाइफलाइन कहा जाता है, उस मुंबई लोकल के स्टेशनों पर घुसते ही अपनी “लाइफ” खतरे में लगने लगती है. मुंबई में मेरे सबसे अच्छे दिन बीते हैं. अभी भी कोई बहाना मिले, तो मैं मुंबई जाना चाहता हूं. लेकिन, बस एक-दो दिन बीतते ही फिर से मुंबई से भागने की इच्छा बलवती हो जाती है. वजह वही कि, मुझे इस शहर से जितनी मोहब्बत है, उससे थोड़ी कम ही नफरत होती है. मोहब्बत की वजह, असल मुंबईकर स्पिरिट, इस शहर में हर किसी को मिली आजादी. महिलाओं के लिए सबसे खुले आकाश वाला शहर है मुंबई.

छोटे शहरों से चले तो आए पर लोकर डराती है

झोला उठाकर, देश के किसी भी हिस्से से चलकर मुंबई पहुंच जाने पर कुछ कर लेने की प्रेरणा है, मुंबईकर स्पिरिट. ये इस शहर से मेरी मोहब्बत की वजह है. लेकिन, हम जैसे इलाहाबाद-प्रतापगढ़ जैसे सुस्त, आलसी, सुविधाभोगी शहरों से आने वालों को मुंबई की लोकल डराती है. सरकारों, नेताओं, बाबूशाही की घिनौनी रणनीति से हर दिन जिन्दगी की जद्दोजहद कठिन करने वाले शहर मुंबई से नफरत होने लगती है. फिर जब मैं अच्छे से सोचता हूं, तो पाता हूं कि सच बात ये है कि मुझे इस शहर से नफरत तो कतई नहीं है. डर है. डर, जिन्दगी के बहुत तनाव भरे हो जाने से. डर लगता है लोकल में यात्रा करने से. ये वही डर है कि मुंबई में 4 साल से ज्यादा रहने के बावजूद छोटी सी दूरी के लिए भी लोकल से सफर करने की हिम्मत नहीं पड़ती. कभी हिम्मत की भी तो, ट्रेन पहुंचते-पहुंचते दुबारा लोकल पर न चढ़ने की सौगंध भी खाई. ये अलग बात है कि कई बार मजबूरी में ये सौगंध टूटती भी है.

लेकिन, लोकल पर थोड़ा बहुत चलने और स्टेशन पर खड़े-खड़े कई लोकल गुजर जाने के अनुभव से इतना तो साफ है कि लोकल की ट्रेन पर सफर करने वाले, मुंबईकर स्पिरिट में नहीं, मजबूरी में रोज अपनी जिन्दगी दांव पर लगाते हैं.
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इस शहर में लोगों की जान कितनी सस्ती है

अब सवाल ये है कि अगर देश की अकेली मायानगरी में रहने वालों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट की सुविधा भी सरकार नहीं दे पा रही है तो, फिर मुंबई को देश की आर्थिक राजधानी होने का तमगा कैसे मिल सकता है. इस शहर में रहने वाले लोगों को चलने के लिए लोकल ट्रेन तक की सुविधा नहीं मिल पा रही है. मैं जब 2004 में मुंबई शहर में नौकरी करने के लिए आया था तो, एक दिन बांद्रा से लोअर परेल पहुंचने पर ट्रेन से कटकर एक आदमी की जान जाते देखी. मुझे इस घटना ने झकझोर दिया था. लेकिन, उधर से गुजर रहे लोग लाश को एक नजर देखने भर की संवेदना भी नहीं जुटा पा रहे थे. ऑफिस में आकर मैंने कहा कि ये तो खबर है तो, बताया गया कि कैसी बात कर रहे हो. यहां, हर रोज लोकल से कोई न कोई गिरकर मर जाता है या फिर किसी का हाथ पैर टूट जाते हैं. ये तो, सामान्य बात है.

मुंबई की इस लाइफलाइन से जिंदगी जाने को इस तरह से सामान्य घटना होना सुनकर मुझे तगड़ा झटका लगा था. लेकिन, उसके बाद जब मैंने ध्यान से यहां के अखबारों को देखना शुरू किया तो, लगा कि ऑफिस के लोग सही ही कह रहे थे.

अब सवाल ये है कि क्या रेलवे सिर्फ लोगों को सावधान करने भर की बात कहकर बच सकता है. प्रशासन और रेलवे आखिर लोगों को ट्रेन पर अपनी जान जोखिम में डालने से क्यों नहीं रोक पाता. एक साथ इतने लोग एलफिन्सटन रोड स्टेशन के रेलवे पुल पर भगदड़ में मर गए, इसलिए कुछ दिन चर्चा होगी. लेकिन, उसके बाद फिर से बस एक खबर भर बनकर रह जाएगी. संवेदना खोते लोग इसे मुंबई की जिंदादिली कहकर भुला देना चाहेंगे. जबकि ये कहने वाले भी जानते हैं कि ये जिंदादिली सिर्फ मजबूरी की ही है.

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