सब्र सिर्फ एक लफ्ज नहीं, बल्कि एक प्रैक्टिस है. या इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि, 'बिना नाराज या परेशान हुए रोजमर्रा की चुनौतियों को क़ुबूल करते हुए और मुश्किल वक्त को बर्दाश्त करने की सलाहियत को 'सब्र' कहते हैं. इस सब्र को करीब से जानने के लिए आज़माइश भरे समय से गुजारना दरकार है. वर्ना जिस तरह गम के बिना खुशी का एहसास नहीं हो सकता, कुरबानी के बिना कामियाबी हासिल नहीं हो सकती, थकान के बिना मीठी नींद का आना नामुमकिन है, बिलकुल वैसे ही सब्र आने की शर्त भी है .
नाकामी, ग़ुस्सा और मजबूरी जैसे जज्बात को झेलने की हमारी क्षमता जब बढ़ जाती है, तो उस प्रक्रिया को सब्र कहते हैं.
अगर लॉकडाउन में आपको अपनी रफ्तार धीमी होती लग रही है, चाह कर भी वो नहीं कर पा रहे जो जिन्दगी की रेस में आपको आगे रखे, तो घबराईये मत. उर्दू शायर आनंद नारायण मुल्ला, परवीन शाकिर, जोश मलीहाबादी और इस्माइल मेरठी के कुछ आशार यही समझा रहे हैं कि सब्र का मतलब सुस्त होना नहीं है, और जब दुनिया की धीमी लगे रफ्तार, तो सब्र खोना नहीं है.
सुनिए फबेहा सय्यद के साथ उर्दूनामा का ये एपिसोड.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)