क्या आप जानते हैं कि हमारे देश में राष्ट्रपति का चुनाव 1971 की जनगणना के आधार पर होता है? अब आप पूछेंगे कि इससे फर्क क्या पड़ता है? तो जनाब, इनडायरेक्ट तरीके से होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में आबादी की खासी अहमियत है. अगर ये 1971 की जगह ताजा जनगणना के आधार पर हों, तो पूरी तस्वीर ही पलट सकती है. हम आपको समझाते हैं कैसे-
कैसे होता है राष्ट्रपति चुनाव?
राष्ट्रपति का चुनाव लोकसभा सांसद, राज्यसभा सांसद और देश की तमाम 31 विधानसभाओं का इलेक्टोरल कॉलेज मिलकर करता है. संविधान के अनुच्छेद 55 के मुताबिक सांसद और विधायक के वोट की कीमत खास फॉर्मूले के तहत आंकी जाती है.
तो इन फॉर्मूलों से साफ है कि राज्य की आबादी से ही विधायक के वोट की कीमत तय होती है और विधायक का वोट सांसद के वोट की कीमत का आधार बनता है. यानी आबादी काफी अहम है.
अभी 1971 की जनगणना के आधार पर चुनाव
संविधान में यह प्रावधान था कि सबसे नई जनगणना को ही आधार बनाया जाएगा. लेकिन 1971 की जनगणना को आधार बनाकर ही लोकसभा और विधानसभा सीटों का परिसीमन हुआ और 2004 तक के लोकसभा और विधानसभा चुनाव उसी परिसीमन के आधार पर हुए. लिहाजा राष्ट्रपति चुनाव भी उसी ढर्रे पर होते रहे.
साल 2001 में बहस शुरू हुई कि बढ़ती आबादी के मद्देनजर राष्ट्रपति चुनाव का आधार भी नई जनसंख्या को बनाया जाए, तो उस वक्त केंद्र में काबिज अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने संविधान में संशोधन कर बहस पर रोक लगा दी.
संविधान में इस संशोधन की वजह भी खास थी.
पिछले 44 साल की बात करें, तो आबादी तकरीबन ढाई गुना हो चुकी है.
आंकड़ों पर नजर डालने से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे उत्तरी और पूर्वी राज्यों में आबादी तेजी से बढ़ी, लेकिन परिवार नियोजन बेहतर तरीके से लागू करने के चलते तमिलनाडु और केरल जैसे दक्षिणी राज्यों में आबादी बढ़ोतरी दर काफी कम रही.
हम पांच राज्यों को आधार बनाकर आपको दिखाते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव 2011 के सेंसस के हिसाब से हों तो तस्वीर कैसी होगी.
अगर इन आंकड़ों को वोट प्रतिशत में बदलें, तो उन्हीं पांच राज्यों की तस्वीर कुछ यूं बनती है.
साफ है कि 1971 की आबादी के हिसाब से राष्ट्रपति चुनाव में यूपी, बिहार और राजस्थान की सामूहिक ताकत (15.25+7.65+4.69) 27.59 फीसदी है, जो 2011 में (17.7+9.21+6.07) 32.98 हो जाती है. यानी 5.39 फीसदी की बढ़ोतरी. जबकि 2011 को आधार बनाये जाने पर तमिलनाडु और केरल की सामूहिक ताकत 2.02 फीसदी घट जाती है.
बढ़ें लोकसभा की सीटें!
आबादी में बढ़ोतरी के मद्देनजर लोकसभा की सीटों की तादाद बढ़ाने की बहस भी वक्त-वक्त पर होती रही है. लेकिन इमरजेंसी के दौरान साल 1976 में हुए संविधान के 42वें संशोधन के जरिये लोकसभा और तमाम विधानसभाओं में सीटों की संख्या फ्रीज कर दी गई थी. मकसद था आबादी पर काबू पाना. दक्षिणी राज्यों ने तो कुछ हद तक इस मकसद को पूरा किया, लेकिन उत्तरी और पूर्वी राज्यों ने नहीं.
हालांकि इस बात पर असहमति है कि हर राज्य को लोकसभा में मिली भागेदारी का आबादी नियंत्रण में कोई रोल है, लेकिन ज्यादातर सियासी पार्टियां इस मामले में राष्ट्रीय जनसंख्या नीति का समर्थन करती हैं. इसके मुताबिक साल 2026 तक भारत की आबादी स्थिर हो जाएगी और उसके बाद होने वाली जनगणना के आधार पर बदलाव किए जा सकते हैं, जो कि 2031 में होनी है.
यानी जो होगा, साल 2031 के बाद होगा. राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया हो या लोकसभा सीटों की संख्या.
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