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पंजाब में AAP की जीत की इनसाइड स्टोरी: केजरीवाल-मान मुलाकात, परदे के पीछे कौन?

दिल्ली और पंजाब AAP के बीच दूरियों को कैसे पाटा गया, 2017 की तुलना में कैसे बदली गई रणनीति?

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पंजाब (Punjab) से आम आदमी पार्टी के निर्वाचित नए नेता कहते हैं, "दोनों (पंजाब AAP और राष्ट्रीय नेतृत्व) हताश थे. हमें मालूम था कि हमें इस बार जीतना ही है, नहीं तो पार्टी पंजाब में खत्म हो जाएगी और राष्ट्रीय पार्टी बनने की कोशिश भी समाप्त हो जाएगी.अब हमें बहुत राहत मिली है. "

पंजाब के AAP नेता और दिल्ली की लीडरशिप के बीच खींचतान पार्टी के भीतर तब से है. जब से पार्टी ने पंजाब की सियासत में कदम रखा और 2014 के लोकसभा चुनाव में 4 सीट जीतने में कामयाब हुई.

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दो सांसद- धर्मवीर गांधी और हरिंदर खालसा तो जीत के बाद ही पार्टी से बाहर हो गए. इसके बाद के सालों में पंजाब के कई नेतओं ने या तो पार्टी छोड़ दी या फिर निकाल दिए गए. सुच्चा सिंह छोटेपुर, एच एस फुल्का, सुखपाल खैरा, इनमें से कुछ अहम नाम हैं. पार्टी छोड़ने वाले अधिकांश नेताओं ने दिल्ली AAP से टकराव को इसका कारण बताया.

विधायक कहते हैं " हां, पार्टी में चीजें ठीक नहीं थीं, लेकिन वो सब पहले की बात है. इस साल चुनाव में कोई मनमुटाव नहीं था ".तो कैसे AAP ने इस बार दिल्ली-पंजाब की दूरियां मिटाईं?

हमने AAP के पंजाब कैंपेन संभालने वाले कई नेताओं, उम्मीदवार, बैकरूम मैनेजर और वॉलंटियर से बात की. इसके बाद चार पहलू सामने निकलकर आए-

मान-केजरीवाल की एकजुटता

AAP के दिल्ली-पंजाब समीकरण के कोर में इसके दो प्रमुख शख्स, केंद्रीय नेता AAP संयोजक दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और दूसरे पंजाबी नेता और पंजाब के प्रमुख संगरूर से सांसद भगवंत मान के बीच जबरदस्त याराना का होना है. अरविंद केजरीवाल, भगवंत मान के पास गए और उनके साथ ठहरे. दिल्ली में पार्टी के एक कार्यकर्ता खुलासा करते हैं. ये दोनों के बीच समीकरण बेहतर करने में मील का पत्थर साबित हुआ. दोनों नेता एक दूसरे को ठीक से समझ पाए. कई दौर के आपसी संवाद से ये सब मुमकिन हुआ.

पंजाब से AAP के एक नेता बताते हैं कि

केजरीवाल को ये समझ में आया कि भगवंत मान आखिर क्या हैं और वो कहां से आते हैं. उनकी यात्रा कैसी रही है, और उनका अलग-अलग राजनीतिक मुद्दों पर क्या नजरिया है. केजरीवाल को ऐसा लगा कि वो भगवंत मान पर पूरी तरह से भरोसा कर सकते हैं.

AAP के इनसाइडर्स कहते हैं कि केजरीवाल और भगवंत मान ने एक दूसरे से कई बार बातें की."ज्यादातर समय, बस ये दोनों ही होते’. पार्टी के एक करीबी सूत्र बताते हैं कि मोहाली में केजरीवाल की सुइट में दोनों खूब बातें करते.

" यह जरूरी था कि प्रचार के दौरान दोनों नेता हमेशा एक ही पेज पर हों. दिल्ली से पार्टी के अधिकारी बताते हैं कि दोनों का एक साथ होना काफी महत्वपूर्ण था, क्योंकि इससे दोनों को मालूम रहता था कि किसी विशेष मुद्दे या चुनौती पर वो दोनों क्या सोचते हैं.

एक समय में, यह संदेह था कि क्या मान को सीएम उम्मीदवार बनाया जाएगा या नहीं.भटिंडा ग्रामीण विधायक रूपिंदर रूबी ने तो पार्टी ही छोड़ दी और कांग्रेस में शामिल हो गए कि मान को उनका हक नहीं मिल रहा है.

मान को पार्टी ने पंजाब में मुख्यमंत्री पद का अपना उम्मीदवार अपना चुनावी सर्वे आने से बहुत पहले ही बना दिया था. जब भी कोई केजरीवाल से "मान को लेकर पार्टी कब फैसला लेगी'', जैसे सवाल पूछता तो केजरीवाल जवाब देते चुनाव पर जरा रंग चढ़ने दीजिए.

केजरीवाल ने कैंपेन का चार्ज संभाला

कैंपेन में केजरीवाल ने इस बार कहीं ज्यादा व्यावहारिक तरीका अपनाया. साथ ही दिल्ली में लगातार दो बार भारी बहुमत से जीतने से पार्टी में उनकी धाक काफी मजबूत हो चुकी थी और वो पिछले पांच साल में और भी निर्विवाद नेता बन गए थे.

बहुत से नेता जो पार्टी में परेशानी खड़ी कर सकते थे, उन्होंने पार्टी छोड़ दी थी. पार्टी के दिल्ली वाले अधिकारी बताते हैं खासकर सुखपाल खैरा जैसे नेता. दिलचस्प बात ये है कि खैरा जो बाद में कांग्रेस चले गए, उन चंद नेताओं में शुमार हैं, जिन्होंने AAP की स्वीप के बाद भी जीत हासिल की.

इसके उलट, दिल्ली के नेताओं और बैक-रूम मैनेजरों, जिन्होंने पिछली बार पंजाब यूनिट को गलत तरीके से चलाया, उनको हटाकर नए तरीके से काम करने वाले लोगों को रखा गया. उस पर बाद में बात करेंगे, लेकिन पहले केजरीवाल पर वापस आते हैं. एक वरिष्ठ वॉलंटियर जो कैंपेन के अलग-अलग पहलू पर करीब से जुड़े थे, बताते हैं केजरीवाल का चुनावी कैंपेन और नैरेटिव पर लगभग संपूर्ण नियंत्रण था.

उन्होंने कहा-

केजरीवाल ने इस बार खुद कैंपेन अपने हाथ में लिया. हर किसी को सिर्फ कुछ प्वाइंट पर बात करने को कहा गया. बदलाव, एक मौका आप नू, सब देख ली इस बार हमें मौका दो. ये हमारा मुख्य संदेश था और हर किसी ने इसे दोहराया. "यहां तक कि टिकट बंटवारा भी पूरी तरह AK, भगवंत मान और राघव चड्ढा ने मिलकर किया, कोई और इसमें शामिल नहीं था.
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टीम में प्रमुख लोग

केजरीवाल ने एक बैकएंड टीम बनाया, जिसमें बेहतर तालमेल के लिए अपने भरोसेमंद सहयोगियों को रखा. उनमें एक प्रमुख रणनीतिकार थे संदीप पाठक, जो पंजाब में एक साल से काम कर रहे थे.

इंजीनियरिंग बैकग्राउंड से आने वाले कैम्ब्रिज से पढ़े संदीप पाठक पर्दे के पीछे से लो प्रोफाइल रहकर काम कर रहे थे. ये कहा जा रहा है कि केजरीवाल ने जो कैंपेन और नैरेटिव तैयार किया उस पर फोकस बनाए रखने में संदीप ने बड़ा रोल निभाया. दीपक चौहान एक अलग बैकएंड टीम के सदस्य थे, जो पंजाब में एक साल से ज्यादा वक्त फुल टाइम काम कर रहे थे.

बाद में विजय नैय्यर को मीडिया और प्रचार का कामकाज संभालने के लिए भेजा गया. जहां पाठक और चौहान पूरी तरह पर्दे के पीछे से रहकर काम कर रहे थे, राघव चड्ढा और जरनैल सिंह ने कैंपेन में महत्वपूर्ण रोल निभाया.

दरअसल, पंजाबी मूल के दोनों लोगों को कैंपेन में लगाए जाने का असर दिखा, जो साल 2017 में हिंदी बोलने वालों को कैंपेन में भेजने से नहीं हो पाया था.

एक पार्टी के अधिकारी ने बताया कि "

दरअसल पंजाब में जिस तरह की नेतृत्व शैली की जरूरत है, वो थोड़ा अलग है. इसे ज्यादा व्यावहारिक और बिना हायरेरिकल वाला होना चाहिए. राघव चड्ढा और जरनैल सिंह दोनों ही पंजाब को अच्छे से जानते हैं. उदाहरण के लिए चड्ढा ने पंजाब में कामकाज कैसे होता है इसे समझने के लिए बहुत ग्राउंड वर्क किया. अपने शुरुआती दौरों में उन्होंने बहुत सारा वक्त लोगों से मेलजोल बढ़ाने में खर्च किया. समाज के अलग-अलग तबके से संपर्क बनाया. उन्होंने इस बात को समझने की कोशिश की कि पंजाब में राजनीति कैसे चलती है और पाया कि यहां खेल दिल्ली से बिल्कुल अलग है.
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वॉलंटियरों के बीच तालमेल

चुनावी कैंपेन से जुड़े लोग कहते हैं कि पंजाब, दिल्ली और दूसरे राज्यों के बीच तालमेल बिठाना नेताओं से तालमेल स्थापित करने से आसान है.

“ साल 2017 में कैंपेन शिव जी की बारात जैसा था, जिसको देखो वही जुड़ गया था और लोगों को कंट्रोल करना और उनमें तारतम्यता रखना काफी मुश्किल हो रहा था ..

इस बार जो वॉलंटियर आए थे उनमें जीतने की भूख थी और उनको मालूम था कि क्या दांव पर लगा है ‘ तब से अब तक बहुत कुछ बदल गया है.

ये पूछने पर कि पहले से क्या बदला है एक नेता ने बताया –.

साल 2017 में AAP ने पंजाब में अलग-अलग लोगों की अलग-अलग चीजों का प्रतिनिधित्व किया- कुछ सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक. फिर वॉलंटियर जो दिल्ली और दूसरे राज्यों से थे उन्होंने अपने अपने नजरिए से इसकी व्याख्या की. फिर NRI भी थे, जिनका चीजों को लेकर खास रवैया था. लेकिन इस बार सभी लोगों का दिमाग साफ था कि AAP किस चीज के लिए है और किस चीज के लिए नहीं.
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आगे क्या है ?

दिल्ली और पंजाब के बीच बेहतर तालमेल को पंजाब में AAP की भारी चुनावी जीत का श्रेय दिया जा रहा है, लेकिन अब ये तालमेल पहले से कहीं ज्यादा जरूरी और चुनौतीपूर्ण हो गया है. पार्टी के सोर्स बताते हैं कि जो प्वाइंट पर्सन हैं वो पंजाब सरकार और सेंट्रल लीडरशिप के बीच आगे भी काम कर सकते हैं, हालांकि ये आसान काम नहीं होगा.

AAP ने जो चुनावी वायदे किए हैं उसे पूरा करना राज्य में राजस्व घाटा देखते हुए मुश्किल है. फिर ये भी तथ्य है कि दिल्ली की तुलना में पंजाब बहुत जटिल राज्य है. दिल्ली में जहां कैंपेन बिजली, स्कूल और हेल्थकेयर पर किया जा सकता है, पंजाब में शासन चलाना अलग तरह की परेशानी लेकर आता है.

अक्सर ये हो सकता है कि पंजाब के मतदाता जो चाहते हैं वो रुख एक पार्टी के तौर पर AAP को लेना पड़ सकता है. हो सकता है कि ये राष्ट्रीय राजनीति की लाइन नहीं हो. और कभी कभी पूरे देश में पार्टी के विस्तार करने के लिए AAP जो कुछ बात करेगी वो शायद पंजाब के मतदाताओं को पसंद नहीं आए.

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