लॉकडाउन में मजदूरों को अपने गांव अपने घर जाने में बहुत दिक्कत हो रही है. इसे देखकर देशवासिों को बहुत पीड़ा हो रही है. लोगों को गुस्सा आ रहा है. इन्हीं भावनाओं को एक कविता में पिरोया है नगमा शाह ने जो मुंबई यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र की छात्र हैं.
वो लोग!
वो जो कुछ लाख नहीं करोड़ों की तादाद में हैं,
जिनसे घर बनता है, गांव बनता है, शहर बनता है.
वो जिनके होने से मेरा मुल्क चलता है,
ये वही है जिसके होने से मालिक वक़्त पर अपनी गाड़ी में निकलता है,
जिससे जूता चमका कर बाबू अपने सूट में जंचता है,
ये वो भी है, जो ईंट उठाता है, घर बनता है, रंग लगता है,
टूटा फूटा हो कहीं नल तो वो भी बनता है.
चंद पैसों के लिए गली गली पसीना बहाता है,
उससे भी कुछ ना हो तो कलाकारी दिखाता है.
एक वक़्त का खाना मिल जाए इसी उम्मीद में अपने बच्चों को स्कूल छोड़ आता है,
शाम ढलते ही बच्चों के लिए कई उमंगे झोले में भर कर ले आता है।
हां! ये वही मेहनतकश मजदूर है जो ख़ुद को जला कर,
दिहाड़ी मजदूरी या महाना तनख्वाह कमाता है
आज वो परेशान है कई दिनों से हैरान है,
है नहीं खाने को कुछ, घर पड़ा वीरान है.
कर अपनी गैरत दरकिनार किसको सुनाए दास्तां!
बस इसी एक सोच से वो बड़ा परेशान है.
दूर फंसा एक शहर में, चल पड़ा हिजरत को वो
मन में है उथल पुथल और रास्ते सुनसान हैं.
मील रस्ता, धूप खाना, अहल ए हिम्मत लोग ये
कल अगर ना पहुँचे घर, किसका यहां नुकसान है.
ये लोग हैं पागल ज़रा, नहीं समझते बात को
हर बात में करनी है अपनी, ये लोग ना फरमान हैं,
कर रहे मेहलो में बैठे तब्सिरा (कमेंट)
है तो आख़र तब्सिरा! करना बहुत आसान है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)