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MP में सरकारी नौकरी सिर्फ लोकल को, कानूनी रूप से कितना खरा ये ऐलान

कुछ का आरोप है कि आने वाले उपचुनावों में राजनीतिक लाभ लेने के लिए ये दांव चला गया है.

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18 अगस्त को मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक वीडियो मैसेज जारी किया जिसमें वो कहते हैं कि "अब मध्यप्रदेश की सरकारी नौकरियां केवल मध्यप्रदेश के बच्चों को दी जाएंगी और मध्यप्रदेश के संसाधनों पर केवल मध्यप्रदेश के युवाओं का हक होगा".

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इस बयान के जारी होने के बाद कई तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं. कुछ लोग इसकी सराहना कर रहे हैं तो कुछ का कहना है कि इस घोषणा का कोई व्यवहारिक औचित्य नहीं है और कानूनी के पैमाने पर ये नहीं टिक पाएगा. साथ ही कुछ का आरोप है कि आने वाले उपचुनावों में राजनीतिक लाभ लेने के लिए ये दांव चला गया है.

हमें इस घोषणा के राजनीतिक पक्ष पर ज्यादा जोर न देकर, इसकी व्यवहारिकता जानने की कोशिश करना चाहिए. देश भर में बेरोजगारी अपने चरम स्तर ‌पर है. अर्थव्यवस्था की हालत खराब है. इस तरह की घोषणाएं बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर हमारे राजनीतिक नेतृत्व की गंभीरता और इरादों पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करती हैं.

क्या ऐसा कोई कानून जो कि राज्य के निवासियों को उनके निवास के आधार पर लोक ‌नियोजन में वरीयता देता है, संवैधानिक प्रावधानों पर खरा उतरेगा और न्यायिक समीक्षा से गुजर पाएगा. भारत का संविधान नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार देता है. इनमें से एक मूल अधिकार खास तौर पर सरकारी नौकरियों से जुड़ा हुआ है.

संविधान क्या कहता है?

संविधान के आर्टिकल 16 में लोक नियोजन में अवसर की समानता का प्रावधान है. आर्टिकल 16(2) के मुताबिक किसी भी नागरिक को केवल उसके धर्म, जाति, नस्ल, लिंग, जन्म के स्थान, वंश, निवास या इनमें से किसी के आधार पर सरकारी नौकरियों में शामिल होने से मना नहीं किया जा सकता है. आर्टिकल 16(3) में भी ये बताया गया है कि संसद चाहे तो किसी विशेष प्रकार के रोजगार के लिए निवास की शर्त लगा सकता है. हालांकि इतिहास में ऐसे कई मौके आए हैं जब राज्यों ने संसद के कानून के बिना ही आपके निवास को नौकरी की शर्त के रूप में तय किया है. 1957 में संसद ने लोक नियोजन (निवास की आवश्यक्ता) अधिनियम को पारित किया और सभी राज्यों की नौकरियों में निवास वाली शर्त को हटाया. इसमें अपवाद के रूप में कुछ राज्य जैसे आंध्र प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा और हिमाचल प्रदेश को छोड़ा गया. फिर भी समय-समय पर ऐसे कानून आदेशों को अधिनियमित करते आए हैं.

अब तक के न्यायित रवैये से यही समझ आया है कि ऐसे कानून और आदेश कम ही संवैधानिक पैमानों पर खरे उतर पाते हैं और इन्हें असंवैधानिक घोषित कर दिया जाता है. ऐसे कई वाकये हैं जब इस तरह के कानूनों को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई.

कुछ उदाहरण से समझिए

  • 'कैलाशचंद्र शर्मा बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य' केस में पंचायती राज और ग्रामीण विकास विभाग की एक विज्ञप्ति जो राज्य में 1993-99 के दौरान शिक्षकों की भर्ती के लिए निकाली गई थी, इसी वैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. इस प्रेस नोट में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए हायर सैकेंडरी के परीक्षा परिणाम को आधार बनाया गया था और निवास के आधार पर बोनस अंकों का निर्धारण किया गया था. इसमें राजस्थान के निवासी को 10 अंक, उसी जिले के निवासी को 10 अंक और जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में निवासी को 5 अंक बोनस के रूप में दिए जाने थे. सरकार की इस विज्ञप्ति के समर्थन में सामाजिक, आर्थिक पिछड़ापन और भौगोलिक वर्गीकरण को आधार बनाया गया. कहा गया कि शहरों के शिक्षक गांव में उपयुक्त नहीं होंगे. शिक्षकों की अनुपस्थिति को भी दलील में शामिल किया गया. लेकिन कोई सर्वे, दस्तावेज इन दावों का समर्थन नहीं करता है. स्थानीय भाषा के तर्क पर भी न्यायलय ने असहमित जताई. कोर्ट ने कहा कि अगर भाषा अहम है तो निवास की जगह भाषायी योग्यता को आधार बनाया जाना चाहिए. कोर्ट ने अनुच्छेद 16(2) और 16(3) के आधार पर इसे खारिज कर दिया.
  • इसी तरह 'मुकेश कुमार बनाम मध्य प्रदेश राज्य' में सहायक प्राध्यापकों की भर्ती के लिए सरकारी नोट को हाईकोर्ट में चैलेंज किया गया. इस विज्ञप्ति में निवास के आधार पर उम्र सीमा में रियायत दी गई थी. मध्य प्रदेश के निवासियों के लिए उम्र 40 साल रखी गई थी जबकि दूसरे राज्य के लोगों के लिए 28 साल. तर्क दिया गया कि 1993 से कोई भर्ती नहीं हुई है इसलिए अगर पूरे देश के लोगों को ये भर्तियां खुली रहेंगी तो मध्य प्रदेश के लोगों का नुकसान होगा. कोर्ट ने इस दलील का कोई संवैधानिक आधार नहीं पाया और कहा कि निवास के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता.
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सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट का इस तरह के मामलों में एक स्थिर दृष्टिकोण रहा है. इस तरह के मुद्दों को उछाले जाने की पीछे की व्यवहारिता पर बड़ा सवालिया निशान है. साथ ही सरकार की बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर गंभीरता पर भी सवाल खड़े होते हैं कि जब रोजगार की ही कमी तो इस तरह के शिगूफे छोड़ने का क्या फायदा होगा. बेहतर होगा कि सरकार ऐसे लोक लुभावनी वादों की बजाय रोजगार पैदा करने की किसी ठोस नीति पर काम करे. इसके लिए मजबूत नेतृत्व, नेक इरादे और विशेषज्ञता की जरूरत होगी.

(प्रियांश पाण्डेय है प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज से कैमेस्ट्री ऑनर्स में स्नातक किया है. प्रियांश मध्यप्रदेश के शहडोल जिला के रहने वाले हैं.)

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