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क्या फर्क पड़ता है, लाचारी में गर्क था-अब बेबसी की खुराक हो गया

“किसी को, क्या फर्क पड़ता है?”

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किसी को, क्या फर्क पड़ता है

मुंह में, निवाले न जाने से

मजदूर हैं, तो मजबूर हैं

क्या फर्क पड़ता है, लॉकडाउन आ जाने से

साल का हर दिन उनके लिए था एक जैसा

क्या फर्क पड़ता है अब मार्च-अप्रैल गुजर जाने से

मेहनत रियाजत जेहद-ए-पैहम उस का मस्लक है

क्या फर्क पड़ता है मसनद की नजर में न आने से

मुसलसल भूक और इफ्लास में गुजरा हर दौर है

क्या फर्क पड़ता है अर्से से लम्बी जंग बदस्तूर है

सामने हर सुब्ह पै-दर-पै मशक्कत के तकाजे हैं

क्या फर्क पड़ता है बेबसी के दिन ही उसे आजमाते हैं

तामीर में लहू किसका बहा पूछो जमाने से

क्या फर्क पड़ता है उन महलों में रामायण दिखाए जाने से

आह तक न निकली किसी के लबों से

क्या फर्क पड़ता है लेबर कानून में बदलाव लाने से

तालाबंदी है तो रिज्क ने भी मुंह फेर लिया

क्या फर्क पड़ता है घर को पैदल ही निकल जाने से

उम्मीद देखो, कि मंजिल‌ आ ही जाए कदम बढ़ाने से

क्या फर्क पड़ता है बदन को चीरती ट्रेन‌ के गुजर जाने से

सन्नाटा जमीं से आसमां तक न छा सका

क्या फर्क पड़ता है वक्त के माथे पसीना न आ सका

नसीब देखो मजदूर का, किस कदर सफ्फाक हो गया

क्या फर्क पड़ता है लाचारी में गर्क था अब बेबसी की खुराक हो गया

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