मेरे स्कूल में सिर्फ एक ही खिलाड़ी था, जिसे लेग स्पिन आती थी. उसकी खासियत थी कि वो मैथ्स में हमेशा पूरा नंबर लाता था. अंग्रेजी और साइंस में भी वो बाकी सब पर भारी था. अच्छा डिबेटर था और फिल्मों के बारे में भी हम सबसे ज्यादा जानता था. शारीरिक रूप से पूरी तरह सक्षम न होने के बावजूद वो शानदार बल्लेबाज था. छोटे रनअप के बावजूद उसकी गेंदबाजी को झेलना हम सबके लिए मुश्किल था.
मैं उसका विश्वस्त चेला था, इसीलिए लेग स्पिन के गुर उसने मुझे भी सिखा दिए. अगर गेंद लेग स्टंप पर गिरकर ऑफ स्टंप की तरफ टर्न करे, तो उसे लेग स्पिन कहते हैं, उसने मुझे बताया. साथ ही यह भी कहा कि राइट हैंडर के लिए लेग स्पिन फेंकना काफी मुश्किल होता है. यही वजह है कि महान लेग स्पिनर बिशन सिंह बेदी या डेरेक अंडरवुड, ये बाएं हाथ से गेंदबाजी करते थे.
नया ट्रेंड सेट करने वाले कुंबले
लेकिन इसके बाद नए दौर में एक नया ट्रेंड दिखा. दाहिने हाथ से गेंदबाजी करने वाले लेग स्पिनर्स की नई फौज आई. इसकी शुरुआत अब्दुल कादिर ने की थी. उनका रनअप देखकर ही लगता था कि वो लेग ब्रेक फेंकने वाले हैं. फिर आया शेन वॉर्न का दौर. अद्भुत टर्न, कमाल की गुगली और काफी आक्रामक रुख.
कौन भूल सकता है 1993 में माइक गैटिंग को फेंका गया बॉल ऑफ द सेंचुरी. गेंद गैटिंग के लेग स्टंप के काफी बाहर गिरी और ऑफ के ऊपर बेल्स उड़ा ले गई. बल्लेबाज बिल्कुल स्तब्ध. पता ही नहीं चला कि हुआ क्या.
उसी दौर में अनिल कुंबले की टीम में एंट्री हुई थी. वो सबसे अलग थे. उनकी गेंद कब और कितना टर्न करती थी, यह ठीक से कभी पता नहीं चला. वो लेग स्पिनर हैं, इसका एहसास भर था. बाद के दिनों में वो दूसरा फेंकने लगे, जिसमें थोड़ा टर्न होता था. काफी लंबा समय तो कुंबले को एक सांचे में ढालने में ही लग गया- वो स्पिनर हैं, उसमें भी लेग स्पिनर हैं या मध्यम गति से गेंद फेंकने वाले सटीक गेंदबाज?
इतने सफल खिलाड़ी कैसे बने कुंबले?
इसके बावजूद वो भारत के सफलतम गेंदबाजों में से एक रहे हैं. पिच अगर फेवरेबल हो, तो कुंबले के सामने टिकना मुश्किल होता था. पिच अगर बेजान हो, तो वो विकेट कमाते थे. बल्लेबाजों के साथ दिमागी गेम खेलते थे. बल्लेबाजों का धैर्य जबाव दे दे, लेकिन कुंबले की लाइन-लेंथ कभी नहीं बिगड़ती थी. फिर भी उनकी सफलता का राज पता नहीं लग रहा था. इतने कम स्किल्स के बावजूद वो इतने विकेट कैसे झटकते थे, हम सबके पास इसका जवाब नहीं था.
इसी बीच मुझे उनसे सीआईआई के एक फंक्शन में रूबरू होने का मौका मिला. यह नब्बे के दशक के आखिरी सालों की बात है. मुझे वो इतने स्मार्ट दिखे, जितना मैंने तब तक किसी को नहीं पाया था. इतने वाकपटु कि दुश्मन भी मंत्रमुग्ध हो जाए. इतने शांत और धीर-गंभीर कि विरोधी भी हथियार डाल दे. इतना शार्प माइंड कि क्रिकेट की हर बारीकियों का पूरा विश्लेषण कर ले.
उनसे मिलने के बाद उनकी सफलता का राज थोड़ा सा मेरे लिए खुला. तब मुझे लगा कि कुंबले मैदान में बैट और बॉल से नहीं, दिमाग से खेलते हैं. और उनका दिमाग शार्प तो था ही, जूनूनी भी था. फिर चाहे पाकिस्तान के खिलाफ दिल्ली में एक इनिंग में 10 विकेट लेना हो या फिर वेस्टइंडीज के खिलाफ घायल होने के बावजूद गेंदबाजी करना हो- हर मौके पर वो मजबूत दिमाग से लड़े और जीते.
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