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ओलंपिक में पदक की रेस में इतने पीछे क्‍यों रह जाते हैं हम?

इस तरह की संस्कृति में, जहां शारीरिक श्रम अपमान की तरह है, वहां विश्व स्तर के एथलीट पैदा करना संभव नहीं है.

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रियो ओलंपिक में देश के प्रदर्शन की रिपोर्ट्स जिस तरह आ रही हैं, उन्हें देखकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है और वह सोच सकता है कि हम खेल में अभी बहुत पीछे हैं. महीनों से मीडिया भारत की ओर से ओलंपिक में हिस्सा लेने वालों पर स्टोरी कर रहा है. दक्षिण एशियाई देश की ओर से पहली बार इतनी बड़ी संख्या में लोग ओलंपिक में भेजे गए. पूर्वानुमान यह लगाया गया कि हम इस बार बहुत अच्छा करेंगे.

जब एक भारतीय पहलवान पर लगा डोपिंग बैन हटा, तो वह उस दिन की मुख्य खबर बन गया. मुझे यह इसलिए पता है, क्योंकि मुझे उस रात कई टीवी कार्यक्रमों में जाना था. इन कार्यक्रमों को महज इसलिए रद्द कर दिया गया, क्योंकि चैनल खेल की उस खबर पर फोकस करना चाहते थे.

तो क्या हम ओलंपिक में बेहतर कर रहे हैं?

बेशक हम अच्छा नहीं कर रहे, हमेशा की तरह. हम खराब प्रदर्शन क्यों कर रहे हैं, इसके दो बड़े कारण हैं. इनमें से एक कारण सार्वभौमिक है. इसका संबंध बाहरी दुनिया के साथ है. मेरा मतलब सुविधाओं, प्रोत्साहन और सरकार द्वारा किए जाने वाले सहयोग, पोषण और अच्छी कोचिंग और ट्रेनिंग से है. जब किसी देश के पास ये सभी सुविधाएं होती हैं, तो वहां पदक जीतने की शुरुआत हो जाती है. इन सभी मुद्दों में से कुछ एक में भारत में चीजें निश्चित रूप से बेहतर हो रही हैं. उदाहरण के लिए सुवधाएं और कोचिंग (जैसे कि क्रिकेट में, बाहरी स्रोतों का उपयोग हो रहा है). हालांकि अभी हमारे देश की तुलना पश्चिमी देशों से नहीं की जा सकती, मगर एक सच यह है कि सुधार हो रहा है.

भारत में बहुत से लोग कमजोर और गरीब हैं, इस कारण प्रचूर मात्रा में पोषण प्राप्त नहीं कर पाते, मगर एक सच यह भी है कि बहुत से लोग सही पोषण प्राप्त कर पाते हैं. एक बड़ी तादात में मध्यमवर्गीय लोग जरूरत के सभी पोषण प्राप्त करते हैं. कई बार हम बोलते हैं कि अन्य देशों के मुकाबले इसकी जनसंख्या अधिक है.

सरकार की ओर से धन और नौकरी के रूप में सहयोग का ऐलान हमेशा पदक जीतने वालों के लिए किया जाता है, इसलिए एक बिंदु पर आकर हम कोई आरोप नहीं मढ़ सकते.

हालांकि यह कहा जा सकता है कि क्रिकेट के मुकाबले एथलीट और अन्य खेलों में मीडिया का सहयोग कम रहता है. लेकिन यह हर देश का सच है.

न्यूयॉर्क की गलियों में जहां बेसबॉल और बास्केटबॉल के खिलाड़ियों को घेर लिया जाता रहा, वहीं इतिहास के महान ओलंपियन और तैराक माइकल फेल्‍प्‍स न्यूयॉर्क की उन्हीं गलियों में गुमनामी में रहे.

इसलिए वह सभी जरूरतें, जो सार्वभौमिक हैं, भारत में भी हैं, इसलिए अगर इनका हल होता है, तो इसका मतलब होगा कि हम ज्यादा पदक जीतेंगे.

अब दूसरे बड़े कारण पर आते हैं. यह बाहरी दुनिया और शारीरिक कार्य के लिए एक बड़ा दृष्टिकोण है. इस मामले में मेरा क्या मानना है, इसका एक राजनीतिक उदाहरण है.

अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन अपने जीवन की अधिकतर सुबहों में बाहर जाकर बेरोमीटर से खुद वायुमंडलीय दाब नापते थे. अमेरिका के 43वें राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश खुद अपने खेतों और जगह की सफाई करने में आनंद महसूस करते थे.

क्या हम कभी कल्पना कर सकते हैं कि हमारे नेता कभी ऐसा काम करेंगे? बिल्कुल नहीं, क्योंकि हममें से कुछ ही यह करते हुए खुद को देखते हैं. यह सिर्फ अकेले आर्थिक कारणों से नहीं है कि हमारे यहां नौकर रखने का चलन है. दरअसल, शारीरिक श्रम भारतीयों को आकर्षित नहीं करता. शारीरिक श्रम करना हमारे निम्न सामाजिक स्तर को दर्शाता है. अगर अपने बगीचे की देखरेख और कार को धोने के लिए हमें कोई मिल जाता है, तो हम कभी अपने आप यह काम नहीं करेंगे. और इस काम का आनंद उठाने का सवाल ही नहीं है, भले ही हम बगीचे के मालिक होने का आनंद उठा सकते हैं.

इस तरह की संस्कृति में, जहां शारीरिक श्रम अपमान की तरह है, वहां विश्व स्तर के एथलीट पैदा करना संभव नहीं है, फिर कोई फर्क नहीं पड़ता कि सुविधाएं कितनी हैं और कितनी नहीं.

महत्वपूर्ण बात यह है कि शारीरिक श्रम करना अच्छा नहीं माना जाता है, इसमें कोई आनंद महसूस नहीं किया जाता. शारीरिक श्रम से जुड़े ज्यादातर काम भारतीय लोग जिम में करेंगे. अगर एक सोफा हटाना है या थोड़ा-सा हिलाना है, तो किसी और को यह करना चहिए.

मेरे जानने वालों में ऐसे कई अमीर अमेरिकन और यूरोपियन हैं, जो अपने कार्य को करने के लिए न किसी से कहते हैं, न किसी की मदद लेते हैं. अपने घर की निजी जगहों में वह किसी और को जाने की अनुमति तक नहीं देते. बजाय दूसरों से कहने के, वह खुद काम करना ज्यादा पसंद करते हैं. हम ऐसा नहीं करते और यह एक सच है, जिस पर विचार किया जाना चाहिए.

हमारी ही संस्‍कृति हमें रोक रही है!

यह कोई बाहरी दुनिया नहीं है जो भारतीयों को पदक जीतने से रोक रही है. यह हमारी संस्कृति है. इसमें शामिल हैं हमारी संस्कृति से मिलती-जुलती संस्कृति वाले हमारे पड़ोसी देश, बांग्‍लादेश व पाकिस्तान और हम 1.6 खरब से अधिक लोग और मानवता के एक-चौथाई. लेकिन ओलंपिक में वैश्विक मंच पर हम बहुत ज्यादा अनुपयोगी हैं.

बड़ी संख्या में होने के बावजूद अगर हम धीरे-धीरे पदक ले भी आते हैं, तो भी लंबे समय तक हम याद किए जाएं.

हमें खुद हैरानी होगी कि हमारे साथ क्या गलत है और अपने नौकर द्वारा बनाई गई एक प्याली चाय पर हम इस बारे में चर्चा करेंगे.

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