महिला हॉकी (women's hockey) टीम ओलंपिक (Tokyo Olympics 2020) में मेडल नहीं जीत पाई. टीम की हिस्सा वंदना कटारिया (Vandana Katariya) के घर आगे कुछ लोग आए और पटाखे फोड़े. शर्ट उतारकर डांस किया और कहा -टीम में दलितों को लोगे तो यही होगा. कांस्य पदक वाले मुकाबले में हारने के बाद टीम की कप्तान रानी रामपाल रोती नजर आईं..पदक न मिलने से दुख लाजिमी है लेकिन रानी आपको रोने की जरूरत नहीं है. क्योंकि आप जीती हैं और हरिद्वार में वंदना के घर के आगे कुकृत्य करने वाले लोग भी जान लें कि वंदना भी जीत गई हैं. हार को लेकर कोई और भी गुबार निकलना चाहता है तो वो भी समझ ले कि हॉकी टीम ने क्या हासिल किया है और किन परिस्थितियों में हासिल किया है?
41 साल में पहली बार टीम ओलंपिक सेमीफाइनल पहुंची.
सेमीफाइनल में क्वालिफाई करने के लिए टीम इंडिया ने ओलंपिक में 3 बार गोल्ड मेडल जीतने वाली विश्व की नंबर 2 टीम ऑस्ट्रेलिया को हराया.
ओलंपिक तक पहुंचना ही बड़ी बात है. यकीन न हो तो ये जान लीजिए भारतीय महिला हॉकी टीम सिर्फ तीन बार ओलंपिक खेली है. 1980, 2016 और 2020. 2016 में टीम कोई मैच नहीं जीत पाई. आखिरी स्थान पर थी. इस बार टीम नंबर चार पर है.
इस ओलंपिक में शानदार प्रदर्शन से भारतीय टीम बिग लीग टीमों में अपना नाम शुमार कराने में सफल हो गई है.
वंदना की ऊंचाई भी देख लीजिए
वंदना कटारिया देश की पहली महिला हॉकी खिलाड़ी है जिसने हैट्रिक लगाई है. ये रिकॉर्ड वंदना ने टोक्यो ओलंपिक में दक्षिण अफ्रीका की टीम के खिलाफ तीन गोल मारकर बनाया.
2018 में जकार्ता में हुए एशियन गेम्स में वंदना और उनकी हॉकी टीम ने सिल्वर मेडल जीता
2016 में सिंगापुर में हुए एशियन गेम्स में वंदना ने अपनी टीम के साथ गोल्ड मेडल जीता
2014 में कोरिया में हुए एशियन गेम्स में वंदना ने अपनी टीम के साथ ब्रॉन्ज मेडल जीता
2013 में जापान में हुई एशियन चैंपियनशिप में महिला हॉकी टीम ने सिल्वर मेडल जीता जिसमें वंदना भी शामिल थीं.
ये तो रही खेल के मैदान की जीत की बात..जो लोग लांछन लगा रहे हैं कि टीम हार गई वो जान लें कि हारे आप हैं, आपका समाज है... टीम नहीं.
टीम इंडिया को कौन हरा रहा है?
जिस वंदना के घर के बाहर नाटक किया गया, उसके गांव रोशनाबाद में लोगों को वंदना का हॉकी खेलना पसंद नहीं था. वो गांव से थोड़ा दूर जाकर छिप छिपाकर प्रैक्टिस करती थीं.
टीम की कैप्टन रानी रामपाल ने जब हॉकी खेलने की इच्छा जताई थी उनके परिवार ने साथ नहीं दिया. रिश्तेदार ताने देते थे-हॉकी खेल कर क्या करेगी? छोटी स्कर्ट पहन कर मैदान में दौड़ेगी और घर की इज्जत खराब करेगी.
टीम की एक और सदस्य नेहा गोयल की मां को लोग कहते थे बेटी को यूं बाहर मत निकालो, कहीं कोई उठाकर न ले जाए.
ऐसी रोक टोक आज भी देश के न जाने कितने गांवों में है. क्या किसी को जाति या लिंग के कारण खेलने से रोका नहीं जाता तो और चैंपियन निकलतीं?
निश्चित तौर पर निकलतीं.
पढ़ाई से लेकर पोषण और सेहत से लेकर सुरक्षा की चिंताओं के बीच लड़कियां दुनिया में नंबर चार आ जाती हैं तो आपको कम लगता है? ओलंपिक में हमें कौन हरा रहा है जरा सोचिएगा फिर लड़कियों पर सवाल उठाइएगा? आईना देख लिया हो तो सरकार ने इन्हें क्या दिया वो भी जानिए.
अफ्रीका के खिलाफ हैट्रिक लगाने वाली वदंना बचपन में पेड़ की टहनियों से प्रैक्टिस करती थीं. निक्की प्रधान बांस की छड़ी और बांस की ही गेंद से प्रैक्टिस करती थीं.
कपड़े सिलने वाले निशा वारसी के पिता सोहराव अहमद को लकवा मार गया तो मां को फोम फैक्ट्री में मजदूरी करनी पड़ी.
नेहा गोयल मां के साथ टायर बनाने वाली कंपनी में मजदूरी करती थीं. नेहा दो वक्त के खाने के लिए हॉकी खेलने को तैयार हो गईं.
और हार पर रो रहीं हमारी कप्तान रानी रामपाल के पिता तांगा चलाते थे, ईंट बेचते थे.
मूर्खतापूर्ण हंगामे से फुर्सत हो तो जरा सोचिए कि इन लोगों को ऐसा क्यों करना पड़ा? एक गरिमापूर्ण जिंदगी जीने के लिए बुनियादी जरूरतों का इंतजाम तक हम नहीं करते और अचानक एक दिन सरमाएदारी की दुकान लगा देते हैं. जिस देश में करोड़ों लोगों का पूरा दिन सुबह-शाम की रोटी जुटाने में खप जाता है वहां कोई कब खेले? कैसे खेल? कैसे जीते? उसपर भी 'दोयम दर्जे' की नागरिक लड़कियां हों तो मुसीबत और बढ़ जाती है.
समाज और सरकार ने तो लड़कियों को हराने का पूरा चक्रव्यूह रचा है. उसे तोड़कर वो बाहर आ गई हैं....आती रहेंगी. लड़कियों को तो कहना चाहिए इतने में इतनाइच मिलेंगा. नहीं कह रही हैं. जो दिया है उसपर गर्व कीजिए. नेता और जनता उनका हौसला बढ़ाए- लाइट ऑन हो, कैमरा चालू हो तो ही नहीं, बाकी समय भी.
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