सुनील गावस्कर ने एक बार लिखा था कि आक्रामकता हमारे डीएनए में नहीं है. मैं उनसे सहमत नहीं हूं. जब वक्त आता है तो आपको आग के बदले आग उगलनी होती है. हमेशा से मेरी ये थ्योरी रही है कि अटैक करना ही सबसे अच्छा डिफेंस है.
अभी जो भारत- ऑस्ट्रेलिया सीरीज चल रही है उसमें ये समझ नहीं आ रहा कि किसने पहले दूसरे को भड़काया ? किसने इसकी शुरुआत पहले की? ये कुछ ऐसा है कि पहले अंडा आया या मुर्गी?
मुझे ये समय नहीं आता कि मीडिया ने पर्थ टेस्ट मैच में हुई स्लेजिंग को इतना हाइप क्यों दिया. सालों से खेल में बदलाव आता रहा है और जब तक कि आप लिमिट पार नहीं करते हैं तो स्लेजिंग मॉर्डन-डे क्रिकेट का हिस्सा बन चुका है.
फील्ड पर अंपायर रहते हैं और मैच रेफरी की पूरे खेल पर पैनी नजर रहती है- विराट कोहली और टिम पेन की चेस्ट-थंप (छाती से छाती मिलना) करोड़ों लोगों ने देखी. यहां तक कि मेरे दोस्त नसीरुद्दीन शाह को भी वो पसंद नहीं आया. मैं इस तरह के व्यवहार को अच्छा नहीं मानता, न ही इसकी वकालत करता हूं और वो भी खासकर जब दो टीम के कप्तान ऐसा कर रहे हों.
हमारे चयनकर्ता कार्यकाल के दौरान ही विराट कोहली को कप्तान बनाया गया था. हम उनकी आक्रामकता के बारे में अच्छे से जानते थे. तीन साल बीत चुके हैं और विराट ने सचमुच अपने अति आक्रामक रवैये पर पहले से ज्यादा लगाम लगाई है और उसे कंट्रोल किया है.
सुनील गावस्कर का ये कहना सही है भारतीय ज्यादातर शांत और अच्छे व्यवहार वाले होते हैं लेकिन दूसरी तरफ सर विव रिचर्ड्स ने आगे आकर विराट के ऑन-फील्ड एग्रेशन को सपोर्ट किया है. जैसे हर व्यक्ति अलग है, वैसे ही हर खिलाड़ी और कप्तान भी अलग है.
मेरे विचार से 30 से भी ज्यादा खिलाड़ियों ने भारतीय टीम की कप्तानी की लेकिन कोई भी विराट कोहली जितना आक्रामक नहीं था.
क्या आईसीसी ने उनके ऑन-फील्ड एग्रेशन को लेकर उन्हें डांटा या फिर फाइन लगाया? क्या मैच रेफरी ने उन्हें फटकार लगाई? क्या फील्ड अंपायरों ने विराट और पेन के बीच हुई नोंक-झोंक को लेकर कोई नेगेटिव रिपोर्ट दी? क्या ऑस्ट्रेलियाई कप्तान ने विराट कोहली की कोई शिकायत की? क्या किसी ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी ने खुद उस वाकये के बारे में बड़ा बयान दिया? तो फिर इस घटना को लेकर इतना ज्यादा बवाल क्यों मचा है और पूरा दोष विराट कोहली पर ही क्यों मढ़ा जा रहा है?
उत्साह के माहौल में फील्ड पर जो भी होता है उसके बारे में वोही बता सकते हैं जो उस घटना में सम्मिलित थे. बाकी जो लोग टीवी पर देख रहे हैं या कमेंट्री सुन रहे हैं वो सिर्फ दूसरों के मुंह में शब्द डाल सकते हैं. अगर विराट कोहली भारतीय क्रिकेट का डीएनए बदलना चाहते हैं और दायरे में रहकर ही आग के बाद आग से लड़ना चाहते हैं तो मैं इससे काफी खुश हूं.
टीम के प्रदर्शन को लेकर हो चिंता
हमें सबसे ज्यादा चिंता इस बात की होनी चाहिए कि विराट कोहली एंड टीम देश के बाहर कैसे प्रदर्शन कर रहे हैं. हमारी टीम ने ऑस्ट्रेलिया में पहला टेस्ट जीतकर इतिहास तो रचा लेकिन दूसरे टेस्ट में मिली करारी हार कुछ ऐसा था जैसे 2 कदम आगे बढ़ाए और फिर 5 कदम पीछे खिसक गए. ये एक डिबेट का बड़ा मुद्दा है. वो लोग जिन्होंने क्रिकेट खेला है और वो लोग जो सेलेक्टर्स रहे हैं उनके लिए ये कान खड़े करने वाला है. और आपको बता दूं कि ये पहली बार नहीं हुआ है.
आप कोई गलती करते हैं और फिर उसे ठीक करते हैं लेकिन आप एक ही गलती बार-बार नहीं दोहरा सकते. जैसे की जब टीम अच्छा प्रदर्शन करती है तो हम उनकी तारीफ करते हैं, अब जब टीम खराब खेली तो हमारे पास उनकी आलोचना करने का भी अधिकार है.
साउथ अफ्रीका में, टीम मैनेजमेंट मे भुवनेश्वर को ड्रॉप किया जिन्होंने 5 विकेट ले रखे थे. इंग्लैंड में, रहाणे को साइडलाइन किया गया. ऑस्ट्रेलिया में अब सवाल है कि भारत के लिए कौन ओपनिंग करेगा और साथ ही रोहित शर्मा जैसे खिलाड़ी हैं जिन्हें ये नहीं पता कि कब उन्हें टीम में चुना जाएगा और कब वो ड्रॉप होंगे. ऐसा ही कुछ दुनिया के बेस्ट स्पिनर आर अश्विन के साथ है. करुण नायर ने ट्रिपल सेंचुरी बनाई लेकिन हनुमा विहारी को उनसे पहले मौका दिया गया. टीम में रवींद्र जडेजा है लेकिन खेलने के लिए नहीं बल्कि ड्रिंक्स सर्व करने के लिए. ऐसे कई सवाल हैं लेकिन किसी का भी जवाब नहीं.
मेरी सलेक्शन कमेटी ने भी प्लेइंग-XI पर सवाल उठाए थे
कप्तान विराट कोहली और कोच रवि शास्त्री को अपने सेलेक्शन पॉलिसी के लिए आलोचना झेलनी पड़ रही है. मैं यहां सेलेक्टर्स को दोष नहीं दूंगा क्योंकि एक बार जब टीम सेलेक्ट हो गई तो फिर आखिरी-11 के लिए कप्तान और कोच ही फैसला लेते हैं. इस पॉइंट पर भी डिबेट हो सकती है क्योंकि मेरे कार्यकाल के दौरान हमने इस मुद्दे को बीसीसीआई के आलाकमान के सामने उठाया था कि हम फाइनल प्लेइंग-XI के चुनाव से खुश नहीं हैं.
ऐसी कई चीजें हैं जिन्हें बीसीसीआई बदलना नहीं चाहता. अगर खिलाड़ी अकाउंटेबल है तो कप्तान, कोच और सपोर्ट स्टाफ से भी सवाल होने चाहिए. लेकिन आजकल के माहौल में ये ही पता लगाना मुश्किल है कि बीसीसीआई का चीफ कौन है, किसी को नहीं पता कि इस तरह के फैसले लेने की जिम्मेदारी किसकी है. लोढ़ा कमेटी और उनकी रिफॉर्म्ड पॉलिसी के बाद ये ही साफ नहीं है कि बिल्ली को घंटी कौन बांधेगा. हर कोई अपनी कुर्सी बचाने में खुश है और कोई भी ये जरूरी फैसले नहीं ले पा रहा है. कोई समझ ही नहीं पा रहा कि ऑस्ट्रेलियाई दौरा अभी खत्म नहीं हुआ है और इसके बाद वनडे सीरीज भी खेली जानी है.
आईपीएल में है बीसीसीआई की ज्यादा रुचि
ऑस्ट्रेलिया में कोई भी मैनेजमेंट से बात नहीं कर रहा है तो ऐसा नजर आता है कि बीसीसीआई का ज्यादा फोकस आईपीएल की तरफ है. और जिस तरह की खबरें हम अखबारों में पढ़ रहे हैं, उससे तो ये साफ है ही.
सुनील गावस्कर, हर्षा भोगले और संजय मांजरेकर जैसे लोग कमेंट करते रहेंगे, आलोचना करते रहेंगे और मीडिया भी इन्हीं चीजों में उलझा हुआ है. मेरी चिंता ये है कि सिर्फ टीम का हिस्सा होने ही जरूरी नहीं है, ज्यादा जरूरी ये है कि आप विजय टीम का हिस्सा हों जिसने अच्छा व्यवहार दिखाते हुए विदेश में ज्यादा से ज्यादा सीरीज जीती हों.
अब नजरें बॉक्सिंग-डे टेस्ट पर हैं.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)