- "लड़ाकों की भर्ती के लिए इस्लामिक स्टेट में भारत में एक वॉट्सऐप ग्रुप चला रहा है. उस ग्रुप को एक बार ज्वाइन कर लिया तो इससे निकलना मुश्किल है. सावधान रहें."
- "अपनी गाड़ी में पेट्रोल अधिकतम सीमा तक न भरवाएं. विस्फोट हो सकता है."
वॉट्सऐप इस्तेमाल करने वालों के लिए ये संदेश दुख और डर पैदा करने वाले हो सकते हैं. लेकिन ये असत्यापित संदेश हैं.
हम ऐसे दौर में रह रहे हैं जब जानकारी की भरमार है और झूठे संदेश फैलाने में वॉट्सऐप शायद सबसे आगे है. भारत में 20 करोड़ से ज़्यादा लोग वॉट्सऐप का इस्तेमाल करते हैं.
वॉट्सऐप की पहुंच
2016 के अंत तक भारत में 30 करोड़ से ज्यादा स्मार्टफोन यूजर्स थे और इस हिसाब से भारत में वॉट्सऐप की पहुंच बहुत बड़ी है.
काउंटर प्वाइंट रिसर्च के नील शाह कहते हैं, " वॉट्सऐप ने जानकारी दी थी कि दिवाली के दिन भारत में आठ अरब संदेश शेयर हुए. नए साल के दौरान 14 अरब संदेश शेयर किए गए. इनमें तीन अरब तस्वीरें, 70 लाख जीआईएफ और 61 लाख वीडियो शामिल थे."
इस ऐप पर केवल अफवाह और घृणा फैलाने के लिए कितने झूठे संदेश लोग शेयर करते हैं इस बारे में कोई डेटा उपलब्ध नहीं है.
आलोचकों के अनुसार 'एंड टू एंड' एनक्रिप्शन के कारण वॉट्सऐप में एक ऐसी दुनिया खड़ी हो गई है जिसमें झूठी खबरों, प्रोपगैंडा, विद्वेशपूर्ण वीडियो और संदेशों की भरमार है और कोई इन संदेशों की समीक्षा भी नहीं कर रहा है.
'एंड टू एंड एनक्रिप्शन' का मतलब है कि संदेश को केवल वही पढ़ सकते हैं, जिसने संदेश भेजा और जिसे ये भेजा गया हो.
चिंताएं
इंटरनेट के जरिए पीड़ित लोगों की काउंसलिंग करने वाली देबरती हालदार कहती हैं, "भयानक हिंसा, अश्लील और यौन दुराचार से सबंधित संदेशों पर कंपनी की चुप्पी चिंताजनक है."
कोई नहीं जानता कि सैंकड़ों हजारों ग्रुप में लोग किस तरह की चीजें शेयर कर रहे हैं.
वो कहती हैं, "अगर कोई व्यक्ति किसी कंपनी की सेवाओं के कारण पीड़ित है तो कंपनी अपनी आंखें बंद नहीं कर सकती. अगर मैं किसी प्रोफाइल के बारे में शिकायत दर्ज कराना चाहूं तो मैं कहां जाऊं? आरोपी व्यक्ति को अगर ब्लॉक कर दिया जाए तो वो तुरंत नया सिम खरीद सकता है."
इंटरनेट के लगातार गिरते दाम सरकार के लिए तेजी से चुनौतियां बढ़ा रहे हैं.
प्राइवेसी के नाम पर
वॉट्सऐप का कहना है कि वो किसी का संदेश नहीं पढ़ सकता क्योंकि वो अपने सर्वर पर डेटा सेव नहीं करता. कंपनी इसका कारण डेटा की निजता और सुरक्षा बताती है.
लेकिन क्या वॉट्सऐप के सर्वर पर कोई भी जानकारी सेव नहीं होती?
फेसबुक के एक प्रवक्ता ने बीबीसी को बताया कि वो फेक न्यूज के मामले में बाहरी लोगों से बात नहीं कर रहे हैं. फेसबुक ने वॉट्सऐप को 2014 में खरीदा था.
एथिकल हैकर रिजवान शेख कहते हैं, " वॉट्सऐप के सर्वर पर जो जानकारी जमा होती है वो हैं- मोबाइल नंबर, आईपी नंबर, ऑपरेटिंग सिस्टम और हार्डवेयर आईडी. डेस्कटॉप के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले वॉट्सऐप पर कुकीज इकट्ठा की जाती है."
कुकीज वो फाइलें हैं जिनके जरिए विज्ञापनों के लिए किसी व्यक्ति के पसंदीदा शब्द सेव किए जाते हैं.
राजनीतिक इस्तेमाल
वॉट्सऐप की पहुंच का अंदाजा हाल में हुए उत्तरप्रदेश चुनाव में एक बार फिर हुआ है. भारतीय जनता पार्टी के 6000 'स्वयंसेवकों' ने 10,000 से ज्यादा वॉट्सऐप ग्रुप बनाए थे.
इन ग्रुप्स पर शेयर किए जाने वाली चीजें 'पेशेवर लोग' बनाते बनाते थे "ताकि बीजेपी की पहुंच ब्लॉक स्तर के वोटरों तक हो सके."
हर वॉट्सऐप ग्रुप में 150-200 यूजर्स होते थे. बीजेपी के एक अधिकारी के अनुसार इन सभी 10,000 ग्रुप्स को लखनऊ पार्टी दफ्तरों में रखे गए करीब दर्जन भर मोबाइलों के जरिए संचालित किया जाता था. हर मोबाइल से करीब 1,000 ग्रुप संचालित होते थे.
अधिकारी का दावा है, "उत्तर प्रदेश में करीब पांच करोड़ लोग इस ऐप का इस्तमाल करते हैं. इसमें से 80 प्रतिशत लोगों की उम्र 45 साल से कम है. हमारा भेजा गया हर संदेश करीब 25 लाख लोगों तक सीधे पहुंचता था. जब इस संदेश को लोग फॉरवर्ड करते थे, ये करीब एक से दो करोड़ लोगों तक पहुंचता था."
इसके मुकाबले समाजवादी पार्टी का आईटी सेल करीब 4000 वॉट्सऐप ग्रुप चलाता था. सपा आईटी सेल के एक अधिकारी ने माना कि भाजपा ने वॉट्सऐप का इस्तेमाल कहीं ज्यादा प्रभावी तरीके से किया.
दोनों पार्टियां इस बात से इनकार करती हैं कि उन्होंने हिंसा को बढ़ावा देने वाले, समुदायों को बांटने वाले संदेशों को शेयर किया लेकिन सच बात ये है कि ऐसे वीडियो लोगों तक पहुंचे.
अगर राजनीतिक पार्टियों ने अपने चुनावी अभियान में हिंसा को बढ़ावा देने वाले संदेशों को फैलाया तो इसकी निगरानी कौन कर रहा था? अगर किसी पार्टी से इस बारे में सवाल किया जाए तो जिम्मेदारी हमेशा किसी 'अति उत्साहित कार्यकर्ता' पर डाली जा सकती है.
बन रही है ताकत
झूठी खबरों के तेजी से बढ़ने का कारण ये भी है कि अब समाचार वेबसाइट शुरू करना, उनके लिए कंटेंट जुटाना आसान हो गया है.
व्यापम घोटाला मामले में व्हिसल ब्लोअर प्रशांत पांडे कहते हैं, "जब तक एजेंसियों को कुछ समझ में आए, ऐसी खबरें वॉट्सऐप की मदद से तेजी से फैलती हैं. ये एक ब्लैक होल की तरह है."
पर्दे के पीछे ऐसे अनगिनत पुरुष और महिलाएं हैं जो इस तरह का कंटेट डिजाइन कर रहे हैं. ये कहना हमेशा आसान होता है कि ये लोग भावुक होते हैं. कई लोग राजनीतिक दलों और कुछ कंपनियों के लिए भी काम करते हैं.
एक जानकार ने पूछा, "आपको क्या लगता है ये जहर भरे वीडियो और खाने में कीड़े वाले वीडियो कहां से आ रहे हैं?"
सरकार चुप क्यों?
सोशल मीडिया पर इस तरह के 'डिजिटल सेना' का पोषण करनेवाली एक बड़ी अर्थव्यवस्था है.
सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी के सुनील अब्राहम कहते हैं, "ऐसे लोग दो तरह से पैसे कमाते हैं. पहले उन लोगों से जिन्होंने इन्हें काम पर रखा है. दूसरे विज्ञापनों के सहारे."
अब चाहे वो 2000 रुपये के नोट में जीपीएस चिप की बात हो या मुजफ्फरनगर में दंगों को भड़काने वाले कथित वीडियो हों, गलत जानकारी फैलाने में वॉट्सऐप की क्षमता से इनकार नहीं किया जा सकता.
सरकार ऐसे लोगों के खिलाफ क्यों नहीं कार्रवाई करती?
विशेषज्ञों के अनुसार सरकार की प्राथमिकता अभी लोगों तक मोबाइल फोन और डिजिटल सुविधाएं पहुंचाने की है, न कि देश में उच्च तकनीक को देश के भीतर लाने वाली कंपनियों को हतोत्साहित करने की.
एक और पक्ष है कि राजनेता वॉट्सऐप की पहुंच को समझते हैं और वो इसका फायदा उठाना चाहते हैं. वॉट्सऐप का बिजनेस मॉडल भी पूरी तरह पारदर्शी नहीं है.
वॉट्सऐप अपने पोस्ट की पहुंच के बारे में जानकारी देने के लिए डैशबोर्ड जैसी सुविधा नहीं देता, और इस कारण यह पता नहीं चल पाता कि एक वीडियो या तस्वीर को कितने लोगों ने देखा है.
सुनील अब्राहम के मुताबिक फेक न्यूज की अर्थव्यवस्था को खत्म करने के लिए दोषियों को मिल रहे आर्थिक मुनाफे को खत्म करने की जरूरत है, साथ ही जरूरत है लोगों की न्यूज फीड में विविधता लाई जाए.
(ये लेख बीबीसी हिंदी और 'द क्विंट' की साझा पहल 'स्वच्छ डिजिटल इंडिया' का हिस्सा है. इसी मुद्दे पर बीबीसी का हिन्दी लेख यहां पढ़िए)
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