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अगर आप मेरे आलोचक हैं तो मेरे दुश्मन भी हैं, ये कैसा माहौल है?

एक आलोचक के साथ आज दुश्मन जैसा बर्ताव होता है.

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एक बहुत ही अजीब चीज हुई शनिवार 28 जुलाई को, वो इंसान जिसके ऊपर टेलीकॉम और ब्रॉडकास्ट की सुरक्षा की जिम्मेदारी है. उसने कहा कि आज मैं "काउबॉय काउबॉय" का खेल खेलूंगा. उन्होंने अपने ट्विटर हैंडल से एक चैलेंज दे दिया. उन्होंने कहा कि ये मेरा आधार नंबर है, आइए और हैक करके दिखाएं- किस तरह से आप मुझे नुकसान पहुंचा सकते हैं?

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उनकी इस चुनौती का जो जवाब आया वो काफी दर्दनाक था. कुछ ही समय में उनकी बेटी की ईमेल आईडी, उनके अपने डीमैट/बैंक एकाउंट, एयरलाइन का फ्रीक्वेंट फ्लायर नंबर, सब्सक्रिप्शन एकाउंट्स, इनकम टैक्स यूनीक नंबर और डेमोग्रैफिक ब्योरा - सब कुछ हैक और छेड़छाड़ का शिकार हो चुका था.

सबसे खतरनाक ये हुआ कि किसी ने उनके सेविंग्स एकाउंट में बिना मांगे एक रुपया जमा करा दिया. ये एक खतरनाक काम था जो चंद ही मिनटों में हैकर्स ने कर के दिखा दिया.

लेकिन क्या उन्होंने अपनी हार मानी?

क्या उन्होंने विनम्रता और शालीनता के साथ कहा कि मैंने जो आपको चैलेंज किया उसके जवाब में आप लोगों ने मुझे दिखाया कि किस तरह से छेड़छाड़ की जा सकती है. अब हम सब लोगों को मिलकर काम करना होगा और जो भी गड़बड़ियों को दूर करें जिससे हमारा सिक्योरिटी सिस्टम मजबूत हो जाए.

नहीं सर. उनका जवाब "बिलकुल IAS जैसा" ही था.

दर्द की तरह,आलोचना भी दवा का काम करती है

महात्मा गांधी ने एक बार कहा था,

कोई भी विचारधारा सही फैसले पर अपने एकाधिकार का दावा नहीं कर सकती. गलतियां हम सबसे होती हैं और कई बार में हमें अपने फैसलों में बदलाव भी करने पड़ते हैं.
महात्मा गांधी

उनके कट्टर विरोधी विंस्टन चर्चिल भी कुछ ऐसा ही मानते थे:

आलोचना भले ही सहमत होने लायक न हो,लेकिन वो जरूरी है. ये वही काम करती है,जो शरीर में दर्द करता है. अगर इस पर वक्त रहते ध्यान दिया जाए, तो खतरे को टाला जा सकता है;लेकिन अगर इसे दबा दें, तो जानलेवा बीमारियां हो सकती हैं.
विंस्टन चर्चिल

63 साल का एक ब्यूरोक्रेट, जिसका परिचय शानदार है - आईआईटी कानपुर से गणित की डिग्री और यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया से कंप्यूटर साइंस में मास्टर डिग्री. ऐसा शख्स अगर अचानक डेटिंग वेबसाइट टिंडर पर वक्त काटने वाले बिगड़ैल टीनेजर जैसा बर्ताव करने लगे, तो इसका मतलब यही है कि हमारे मौजूदा राजनीतिक माहौल में भी जरूर किसी ‘‘जानलेवा” बीमारी ने जड़ जमा ली है.

अब वो खुद ही एक अपराध कर बैठे हैं - याद रहे कि अपना आधार नंबर जगजाहिर करना एक दंडनीय अपराध है, जिसके लिए 3 साल की जेल हो सकती है - क्यों?

आलोचक को दुश्मन समझा जाता है

एक आलोचक के साथ आज दुश्मन जैसा बर्ताव होता है. वो एक ऐसा विरोधी है,जिसका नामोनिशान मिटा देना जरूरी है. आप उससे तथ्यों और तर्कों के आधार पर बहस नहीं करते. आप ये नहीं चाहते कि वो आपकी दमदार दलीलों को सुनकर आपसे सहमत हो जाए.

सच तो ये है कि आज धमकी ही आपसी संवाद की खास पहचान है:

  • "कांग्रेस के नेता कान खोलकर सुन लें, अगर सीमाओं को पार करोगे, तो ये मोदी है, लेने के देने पड़ जाएंगे" - 6 मई 2018 को हुबली की रैली में दिए प्रधानमंत्री मोदी के इस बयान को सुनकर लगता है कि कोई लोकतांत्रिक नेता अपने विरोधियों के खिलाफ हिंसा की इससे ज्यादा खुली वकालत शायद ही कर सकता है.
  • "मैं कश्मीरी युवाओं को बताना चाहता हूं कि आजादी मुमकिन नहीं है. लेकिन अगर आप हमसे लड़ना चाहते हैं तो हम अपनी पूरी ताकत के साथ आपसे लड़ेंगे. कश्मीरियों को ये समझना चाहिए कि सुरक्षा बल उतने निर्दयी नहीं रहे हैं - सीरिया और पाकिस्तान को देखिए. ऐसे ही हालात में वो टैंकों और हवाई हमलों का इस्तेमाल करते हैं" - दिल को दहलाने वाली ये धमकी (जो बड़े पैमाने पर होने वाले नरसंहारों की याद दिलाकर डराती है) भारतीय सेना के चीफ बिपिन रावत ने एक इंटरव्यू में दी थी, वो भी प्रधानमंत्री के ऊपर जिक्र किए गए भाषण के महज 4 दिन बाद.
  • यहां तक कि किसी को नुकसान न पहुंचाने वाले पॉपुलर फिक्शन यानी काल्पनिक कहानियों को भी बख्शा नहीं जा रहा. फन्ने खान एक टैक्सी ड्राइवर की जिंदगी और उसके सपनों पर बनी सीधी-सादी फिल्म है, जिसमें एक गाना था, "मेरे अच्छे दिन कब आएंगे". ये प्रधानमंत्री मोदी के 2014 के उस चुनावी नारे पर हल्का-फुल्का व्यंग्य था,जिसमें देश के लोगों के लिए"अच्छे दिन"लाने का वादा किया गया था. 10 दिन के भीतर ही फिल्म-निर्माताओं को मजबूर कर दिया गया कि वो इस गाने की लाइनें बदल कर "मेरे अच्छे दिन अब आए रे" कर दें.
  • इतना ही नहीं,हाल ही में एबीपी न्यूज के तीन पत्रकारों को नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर किया गया. उनकी गलती क्या थी? सरकारी प्रचार की आलोचना करना.

अब ये जो कल्चर बन गया है धमकी देने का दुश्मनी निकालने का कि अगर आप मेरे आलोचक हैं, तो आप मेरे दुश्मन हैं. दुश्मनी की ये संस्कृति ही शालीन ब्यूरोक्रेट को भी अपने आलोचकों को "चुनौती" देने और धिक्कारने-फटकारने के लिए प्रेरित करती है, उन्हें गले लगाने और उनसे सीखने के लिए नहीं.

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