ADVERTISEMENTREMOVE AD

रिव्यू:जातिवाद का जहर फैलाने वालों को मुक्का मारती है ‘मुक्काबाज’

अगर ‘मुक्काबाज’ को महज एक फिल्म के तौर पर देखा जाए, तो यह केवल इस फिल्म का एक-चौथाई भाग होगा.

छोटा
मध्यम
बड़ा

हिंदी के गढ़ यूपी, और उसके अलग-अलग रंगों को देसी अंदाज में रुपहले परदे पर परोसने के काम में अनुराग कश्यप को महारथ हासिल है. 'मुक्काबाज' में उन्होंने इसी बात का एक बेहतरीन उदहारण पेश किया है.

चाहे तथाकथित गौरक्षकों को आड़े हाथों लेने की बात हो, या फिर वर्ण और जाति के नाम पर समाज में जहर फैलाने वालों पर वार करना हो, अनुराग ने किसी को नहीं बक्शा. इसलिए अगर 'मुक्काबाज' को महज एक फिल्म के तौर पर देखा जाए, तो यह केवल इस फिल्म का एक-चौथाई भाग होगा.

श्रवण कुमार सिंह (विनीत कुमार सिंह) बरेली में सबसे अच्छे मुक्केबाज हैं, लेकिन फिर भी जो लोग उसके गुस्से और हिम्मत को बाहर लाते हैं, वो बॉक्सिंग रिंग के अंदर उनके खिलाफ लड़ने वाले विरोधी नहीं, बल्कि रिंग के बाहर वाले लोग हैं. भगवान दास मिश्रा (जिमी शेरगिल) अपनी जाति को आस्तीन पर लेकर घूमते हैं, और जब एक ब्राह्मण एक राजपूत लोकल मुक्केबाज को कोई आदेश दे, तो उस आदेश का पालन करना अपेक्षित है.

लेकिन अपेक्षाओं से उलट, आदेश को मानने से श्रवण मना कर देता है, जिसका नतीजा ये होता है कि उसे राजनीतिक रसूख वाले बाहुबली की नाराजगी झेलनी पड़ती है, और साथ ही उसकी चहेती भांजी सुनैना (जोया हुसैन) के साथ नैन-मटक्का करने का मौका भी मिल जाता है. सुनैना चिट्ठियां लिखकर श्रवण के साथ संवाद करती है. वो बोल नहीं सकती, और श्रवण पूरी तरह से साइन लैंग्वेज को समझ नहीं पाता. उनका प्यार इस तकरार में राहत के रूप में आता है.

ये फिल्म महज एक उपेक्षित खिलाड़ी के बारे में नहीं है, जो सामाजिक बंधन से मुक्त होकर खेलता है, बल्कि उस खेल के बारे में भी है, जो खुद अपनी गरिमा के लिए लड़ रहा है. 145 मिनट लंबी फिल्म एक मुक्केबाज़ी मुकाबले की तरह ही नजर आती है.

फिल्म के किरदार इसकी नब्ज और धड़कन हैं. फिर चाहे वो कोच के किरदार में रवि किशन हो, या भगवान दास के किरदार में लाल आंखों वाले जिमी शेरगिल, जिन्होंने दमदार अदाकारी की है.और इस सब के बीच में, श्रवण और सुनैना की प्रेम-कहानी एक खुशनुमा एहसास देती है. अपने प्यार के लिए जातिवाद के खिलाफ उनकी लड़ाई फिल्म में तालियां बटोरने वाले कई लम्हें लाती हैं.

रचिता अरोड़ा का संगीत काबिल-ए-तारीफ है, और यह फिल्म के प्रभाव को ज्यादा ताकतवर और नाटकीय बनाती है.
जोया हुसैन एक बेहतरीन खोज है, जिन्होंने फिल्म में बिना एक भी शब्द बोले आश्चर्यजनक ढंग से इतना कुछ कह दिया. और मुक्केबाज के किरदार के लिए विनीत कुमार सिंह की मेहनत और लगन साफ तौर पर झलकती है. फिल्म का मूल कॉन्सेप्ट उन्हीं का है, और 'पैंतरा' गीत को भी उन्होंने ही लिखा है. उम्मीद है कि बॉलीवुड विनीत के टैलेंट के साथ इंसाफ करेगा.

प्रोड्यूसर: अभिषेक रंजन
कैमरा: अभय शर्मा
वीडियो एडिटर: आशीष मैक्यून

[ गणतंत्र दिवस से पहले आपके दिमाग में देश को लेकर कई बातें चल रही होंगी. आपके सामने है एक बढ़ि‍या मौका. चुप मत बैठिए, मोबाइल उठाइए और भारत के नाम लिख डालिए एक लेटर. आप अपनी आवाज भी रिकॉर्ड कर सकते हैं. अपनी चिट्ठी lettertoindia@thequint.com पर भेजें. आपकी बात देश तक जरूर पहुंचेगी ]

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×