वीडियो एडिटर: पूर्णेंदु प्रीतम/ मोहम्मद इब्राहीम
ग्राफिक्स: अरूप मिश्रा
कैमरा: सुमित बडोला
भारत का पहला विभाजन 1947 में नहीं बल्कि उससे भी करीब 40 साल पहले- 1905 में हुआ था. ब्रिटिश राज के ताज में सबसे चमकदार हीरा कलकत्ता था और बंगाल ब्रिटिश राज का सबसे बड़ा प्रांत था, कौन जानता था कि इस हीरे की चमक फीकी पड़ जाएगी.
‘बांटो और राज करो’
1905 में भारत के वायसरॉय लॉर्ड कर्जन ने बंगाल विभाजन का ऐलान किया और उनका मकसद था “बांटों और राज करो”. धर्म के आधार पर बंगाल को दो भागों में बांट दिया गया- पहला था मुस्लिम बहुल पूर्वी बंगाल और दूसरा हिंदू बहुल पश्चिम बंगाल.
1904: विभाजन से पहले पूर्वी बंगाल प्रांत
अविभाजित बंगाल विशाल प्रांत में आज के-
- पश्चिम बंगाल
- बांग्लादेश
- बिहार
- झारखंड
- छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्से
- ओडिशा
- असम शामिल थे
बंगाल प्रांत की आबादी करीब 7 करोड़ 85 लाख थी, ये इलाका इतना बड़ा था कि इसमें 5 इंग्लैंड समा जाते.
कर्जन ने ऐलान किया कि प्रशासन के लिहाज से बंगाल प्रांत काफी बड़ा है लिहाजा इसका विभाजन किया जाएगा.
1905: विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल प्रांत
अपने फैसले के मुताबिक कर्जन ने पूर्वी बंगाल प्रांत का निर्माण किया, इसमें बंगाल के पंद्रह पूर्वी जिले और असम शामिल थे. इसकी आबादी करीब 3 करोड़ 10 लाख थी जिसमें ज्यादातर मुस्लिम थे. डाक्का या आधुनिक ढाका इस प्रांत की राजधानी बनाई गई.
1905: विभाजन के बाद पश्चिमी बंगाल प्रांत
कर्जन ने ओडिशा, बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों को बंगाल के बचे हुए पश्चिमी जिलों के साथ मिलाकर पश्चिमी प्रांत का निर्माण किया. इसकी राजधानी कलकत्ता थी. नए प्रांत की आबादी लगभग 4 करोड़ 70 लाख थी, जिसमें ज्यादातर हिंदू थे.
‘विभाजन का मकसद’
विभाजन के आधिकारिक कारण
- असरदार प्रशासन
- पूर्वी क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान देना
कर्जन ने जोर दिया कि विभाजन से बंगाल का प्रशासन बेहतर होगा और पूर्वी बंगाल के उपेक्षित जिलों पर ज्यादा ध्यान दिया जा सकेगा.
विभाजन के वास्तविक कारण
- हिंदू और मुसलमानों के बीच दरार पैदा करना
- ओडिशा और बिहार को साथ मिलाने से बंगाली हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएंगे
लेकिन बंगाल की जनता को कर्जन का तर्क रास नहीं आया, उन्हें लगा कि इस कदम से उनकी मातृभूमि छिन्न-भिन्न हो जाएगी विभाजन करो और राज करो कि नीति पर हिंदू और मुसलमान – दोनों भड़क उठे. इसके अलावा पश्चिम बंगाल को ओडिशा और बिहार को साथ मिलाने से बंगाली हिंदू अल्पसंख्यक हो गए जिसने उनके गुस्से की आग में घी का काम किया.
स्वदेशी आन्दोलन
विभाजन ने राष्ट्रवाद को हवा दी पूर्वी और पश्चिमी – बंगाल के दोनों हिस्सों में हिंदुओं और मुसलमानों ने ब्रिटेन में बने सामानों का बहिष्कार करना शुरू कर दिया. कुछ प्रदर्शन हिंसक हो गए और विदेशी सामान बेचने वाली दुकानों को आग के हवाले कर दिया गया. गुस्से की आग के बीच बंगाल में स्वदेशी आन्दोलन का जन्म हुआ, आन्दोलन को मास्टरदा सूर्यसेन, बिपिनचन्द्र पाल ऑरोबिन्दो घोष और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने हवा दी.
देखते ही देखते स्वदेशी आन्दोलन जंगल की आग की तरह पूरे अविभाजित भारत में फैल गया. स्वदेशी आंदोलन अविभाजित भारत के बचे हुए हिस्सों में भी फैल गया, कुछ सालों बाद महात्मा गांधी ने 1905 के स्वदेशी आन्दोलन को पूर्ण स्वराज की आत्मा बताया.
‘वंदे मातरम’
1870 में बंकिम चन्द्र ने ‘वंदे मातरम’ लिखा और सबसे पहले 1896 में इसे रबिन्द्रनाथ टैगोर ने गाया था. ‘वंदे मातरम’ विरोध का प्रतीक बन गया ऐसे में अंग्रेजों को इस गाने पर प्रतिबंध लगाना ही था लेकिन बंगाल की जनता पर प्रतिबंध का कोई असर नहीं पड़ा.
विद्रोही कवियों का उदय
1. रबिन्द्रनाथ टैगोर
16 अक्टूबर को बंगाल विभाजन के बाद रबिन्द्रनाथ टैगोर ने इस दिन को राष्ट्रीय शोक दिवस बताया. टैगोर के कहने पर बंगाल के हजारों हिन्दुओं और मुसलमानों ने भाईचारा का संदेश देते हुए एक-दूसरे को राखी बांधी और विरोध प्रदर्शन किया. जब स्वदेशी आंदोलन अपने चरम पर था, तब टैगोर ने ये गीत लिखा, जिसका मोटा-मोटी मतलब है- ‘हे ईश्वर, बंगाल के सभी भाई-बहन दिल और आत्मा से एकजुट रहें’
2. काजी नजरुल इस्लाम
लेखक और कवि काजी नजरुल इस्लाम भी उतने ही प्रभावशाली और लोकप्रिय थे, उन्होंने भी कर्जन की ‘बांटो और राज करो’ नीति पर निशाना साधते हुए विभाजन के खिलाफ अपनी कलम चलाई.
फिर एक हुआ बंगाल
विभाजन के फौरन बाद लॉर्ड कर्जन इंग्लैंड लौट गया उधर बंगाल विद्रोह की आग में जलता रहा अंग्रेजों ने आंदोलन को दबाने में पूरी ताकत लगा दी पर नाकाम रहे. बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और वीओ चिदम्बरम पिल्लई जैसे नेताओं ने देशभर में आंदोलन की अगुवाई की आखिरकार दिसम्बर 1911 में अंग्रेजी हुकूमत को झुकना पड़ा वायसरॉय लॉर्ड हार्डिंग ने ऐलान किया कि बंगाल को फिर से एक किया जाएगा. सभी बंगाली भाषी जिले एक प्रांत का हिस्सा बन गए जबकि असम, बिहार और ओडिशा को अलग रखा गया. इसके साथ ही अंग्रेजों ने अपनी राजधानी कलकत्ता से बदलकर दिल्ली कर दी. लेकिन कर्जन की ‘बांटो और राज करो’ नीति खत्म नहीं हुई 1947 में बंगाल को एक बार फिर इस नीति की मार झेलनी पड़ी वो कहानी कुछ और है.
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