नीतीश कुमार एक बार फिर बिहार के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं. ये कहा जाता रहा है कि सरकार नीतीश कुमार की है लेकिन अब शायद मुहावरा बदलेगा और कहा जाएगा एनडीए की सरकार- केयर ऑफ नरेंद्र मोदी. दरअसल, बिहार चुनाव नतीजों की कहानी हमारी नजर में 'एक जादूगर और दो बाजीगरों' की कहानी है. अब ये कैसे हो वो समझते हैं.
जादूगर की कहानी कैसे है!
जादूगर की कहानी इसलिए क्योंकि नीतीश कुमार के खिलाफ थर्ड टाइम इनकंबेंसी का माहौल था. कोरोना वायरस, बेरोजगारी का मुद्दा था. प्रवासियों की व्यथा का मुद्दा और बाढ़ की समस्या थी. ऐसे में एक बहुत ही मुश्किल चुनाव में एनडीए उतरा था, जहां पर चुनौतियां बढ़ती जा रही थीं. जिस तरीके से तेजस्वी का प्रचार खुलता जा रहा था, ऐसे में काम आया नरेंद्र मोदी का 'प्रीमियम फैक्टर'. व्यूह रचना पहले से ही तैयार थी, जिसके तहत नरेंद्र मोदी ने बिहार में कैंपेन का स्टाइल कुछ अलग रखा. 5 किलो राशन का जिक्र हुआ, सीता माता का जिक्र हुआ, छठ का जिक्र हुआ. राष्ट्रवाद को थोड़ा नीचे रखा गया. इस तरह पीएम मोदी ने पूरा समां बाधा.
दूसरी जादूगरी
दूसरी जादूगरी एनडीए के चिराग पासवान की पॉलिटिक्स और उनका खेल है. एक ऐसा 'चिराग' जो घर के बीजेपी का हिस्सा रोशन कर रहा था और दूसरा हिस्सा यानी कि जेडीयू का उसमें आग भी लगा रहा था. इससे ये हुआ कि नीतीश कुमार की सीटें गिरकर 43 ही रह गईं. ऐसे में नीतीश कुमार इस बाजी को हारे. जादूगरी का दूसरा हिस्सा ओवैसी को उतारना था, जिसने आरजेडी के वोट काटे. आप ये कह सकते हैं कि ये इल्जाम है और बीजेपी ने नहीं उतारा. लेकिन ऐसा कैसे होता है कि ओवैसी की कथित इंडिपेंडेंट पॉलिटिक्स का फायदा बीजेपी को होता है और नुकसान विपक्ष को होता है. वोट काटने और बांटने की एक बहुत ही जबरदस्त तरकीब बना ली गई है, जिसका हर चुनाव, हर राज्य में बखूबी इस्तेमाल होता है, ये भी एक जादूगरी है.
आमतौर पर हम कहते हैं कि नरेंद्र मोदी जब बैलेंट पर होते हैं तो खूब वोट मिलते हैं, लेकिन बीजेपी जब राज्यों में चुनाव लड़ रही होती है तो उसको बहुत मशक्कत का सामना करना पड़ता है. लेकिन बिहार ने क्या साबित किया? कई राज्यों में लगातार हारने वाली बीजेपी ने बिहार में मोदी जी के नेतृत्व में एक ऐसा कैंपेन चलाया जिससे
वहां एनडीए की सरकार इतनी इनकंबेंसी के बावजूद आसानी से वापस आ गई.
जादूगरी का आखिरी किस्सा!
जादूगरी का आखिरी किस्सा ये है कि जूनियर पार्टनर के तौर पर रहने वाली बीजेपी अब सीनियर पार्टनर हो गई है. नीतीश कुमार जो खुद ही बहुत इंडिपेंडेंट माइंडेंड आदमी हैं, अब उनको बीजेपी के साथ एडजस्त करना पड़ेगा. ऐसा लगता है कि यूपी चुनाव तक नीतीश कुमार को कोई दिक्कत नहीं आएगी, लेकिन बीजेपी नीतीश कुमार के साथ रहते हुए भी अपने विस्तार के लिए पूरा पराक्रम लगाएगी और आक्रमक रहेगी. नीतीश कुमार को अब इन चीजों से सामंजस्य बैठाना होगा अगर वो एनडीए के साथ रिश्ता निभाना चाहते हैं. जैसी अटकलें लगाई जाती हैं कि नीतीश, तेजस्वी के पास चले जाएंगे, ऐसा अब नहीं लगता है. कुल मिलाकर बीजेपी के साथ रहना नीतीश के लिए चुनौती का काम होगा तो ये भी एक बीजेपी की जादूगरी ही है कि बिहार जैसे राज्य में पार्टी ने इतनी सीटें निकाल ली हैं.
बाजीगरी का किस्सा!
नीतीश कुमार को बाजीगर इसलिए कह रहे हैं क्योंकि वो सत्ता में फिर से काबिज तो हो रहे हैं लेकिन वहां बीजेपी को अभी उनकी खूब जरूरत पड़ने वाली है. बीजेपी उनके साथ ठीक-ठाक संबंध रखने की कोशिश करेगी क्योंकि बीजेपी के पास अभी वो EBC वोट , महादलित वोट हैं.
साथ ही नीतीश कुमार की छवि जैसा वहां कोई नेता नहीं है तो इस बैसाखी को वो आगे के लिए प्रवेशद्वार कैसे बनाएं इसकी पूरी कोशिश बीजेपी करेगी. ये इसलिए भी है क्योंकि नीतीश कुमार के बिना अभी बीजेपी अकेले वहां बहुत कुछ कर पाए, ऐसी स्थिति नहीं है.
तेजस्वी हार कर कैसे जीते? इसकी कहानी भी आंकड़े बताते हैं, आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बनकर आई, तेजस्वी ने कड़ी चुनौती दी और वोट फीसदी भी पहले जैसा ही करीब-करीब रखने में कामयाब रहे.
इस चुनाव की दो और खास बातें हैं जो सुन-सुनकर लोग बोर हो गए हैं. वो ये है कि कांग्रेस खुद के लिए और दूसरों के लिए लगातार बोझ बनती जा रही है. चुनाव की धरती पर पार्टी बोझ ना रहे उसके लिए उसको तरकीब ढूंढनी पड़ेगी. लेकिन तेजस्वी ने जो सीपीआई(एम) के साथ एक गठबंधन किया, उसने ये बताया कि कितना अच्छा गठजोड़ है.
आखिर में ये बात समझने की है कि बीजेपी का जो चुनाव का 'फाइन आर्ट' है, वो इस लेवल तक पहुंच गया है कि अपोजिशन वाले उसको अभी तक समझने को तैयार नहीं है. विपक्ष को लगता है कि नाराज पब्लिक खुद आएगी और वोट देकर चली जाएगी. बीजेपी ने इसको बार-बार गलत साबित किया है.
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