फेक न्यूज के बहाने असली न्यूज आई है. असली न्यूज ये है कि मीडिया पर कंट्रोल की कोशिश हर सरकार करती है. लेकिन सरकारों को नाकामी हाथ लगती है.
2 अप्रैल को सूचना प्रसारण मंत्रालय ने फेक न्यूज को लेकर नई गाइड लाइन जारी की थी. इसके तहत 'फेक न्यूज' फैलाने वाले पत्रकारों की मान्यता रद्द किए जाने का प्रावधान भी किया गया था.
सूचना प्रसारण मंत्रालय की ओर से एक बयान जारी किया गया. कहा गया कि किसी भी तरह की ‘फेक न्यूज’ के बारे में शिकायत मिलने पर जांच की जाएगी. प्रिंट मीडिया से संबंधित शिकायतों की जांच प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया करेगा, जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित शिकायतों को जांच के लिए न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन के पास भेजा जाएगा. ये दोनों संस्थाएं ही तय करेंगी कि जिस खबर की शिकायत की गई है, वह ‘फेक न्यूज’ है या नहीं.
सरकार के इस फैसले के सामने आने के बाद मीडिया जगत से इसके विरोध में आवाजें उठने लगी. लेकिन कुछ ही घंटे बाद पीएम नरेंद्र मोदी के दखल के बाद सूचना प्रसारण मंत्रालय ने फेक न्यूज पर लिया गया अपना फैसला वापस ले लिया.
प्रधानमंत्री कार्यालय ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को फेक न्यूज से जुड़ी प्रेस नोट वापस लेने को कहा. प्रधानमंत्री कार्यालय ने कहा कि फेक न्यूज पर फैसला प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (PCI) और न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (NBA) जैसी संस्थाओं को लेना चाहिए.
'फेक न्यूज का धंधा करने वालों को एक्रेडिटेशन नहीं चाहिए'
सरकार ने यू-टर्न ले लिया. दरअसल, फेक न्यूज की फैक्ट्रियां एक्रेडिटेशन सिस्टम से बाहर चलती हैं. फेक न्यूज का धंधा करने वालों को प्रेस इंफाॅर्मेंशन ब्यूरो का एक्रेडिटेशन नहीं चाहिए. बड़े अखबार, बड़े चैनल सरकार के लिए प्रोपेगेंडा के तहत इस्तेमाल होते हैं. वो फेक न्यूज नहीं जेनरेट करते. डिजिटल मीडिया में झूठ को सच मानकर शेयर करने की वजह से फेक न्यूज का धंधा चलता है.
पिछले दिनों डिजिटल मीडिया, सोशल मीडिया से असहमति की खबरें आई होंगी, जिसकी वजह से सरकार को परेशानी हुई. इसी वजह से फेक न्यूज के बहाने मीडिया के आमतौर पर 'ठीक-ठाक' काम करने वाले पत्रकारों पर हमला किया जा रहा है. हालांकि, ये 'ठीक-ठाक' काम करने वाले पत्रकार अपने मुफीद एजेंडा को बढ़ाने का काम करते हैं.
ऐसे में पीएम की दखल मुबारकबाद से ज्यादा राहत की बात है. क्योंकि मीडिया पर नियंत्रण कसते हैं, तो इसका उलट असर होता है. इसका उदाहरण दलित आंदोलन है.
1 अप्रैल तक भारत बंद को कोई मुकम्मल कवरेज नहीं मिली, क्योंकि दिल्ली से नगाड़ा बजाने की पाॅलिटिक्स, माहौल बनाने की पाॅलिटिक्स करने वालों ने इस पर ध्यान नहीं दिया.
इस पाॅलिटिक्स के बीच दलित आंदोलन को लोकल न्यूज मानकर इग्नोर किया गया. सरकार को अनुमान नहीं था कि हालात हिंसक हो जाएंगे. दरअसल, मीडिया को दबाने पर उसे आदत हो जाती है डर की, उदासीनता की, आलस की. इसके कारण अहम अलर्ट जो नाॅर्मल मीडिया दे सकता था, वो नहीं मिले और हालात बेकाबू हो गए.
निष्कर्ष ये है कि जब आप मीडिया को कंट्रोल करते हैं तो जो सूचनाएं, असहमति, निराशा की आवाज आपको सुननी चाहिए वो आपको नहीं मिल पाती. आप इको-चेंबर में बंद हो जाते हैं.
वहीं ढिंढोरा मीडिया तो सच बताने से रहा. सरकार का काम वो करती है, वो विपक्ष से सवाल पूछती है.
ऐसे में सत्तारूढ़ दलों को चाणक्य नीति बनाने से बचना चाहिए. आसान फाॅर्मूला है, “निंदक नियरे राखिए.”
आलोचक की बात सुनिए. चुनाव के साल में फेक न्यूज के बहाने मीडिया में डर के माहौल, नियंत्रण के माहौल को मजबूत करने की कोशिश को पीएम ने ठीक रोका है. वरना नतीजे 2 अप्रैल के दलित आंदोलन की तरह देखने को मिल सकते हैं. सरकार उस नाराजगी को भांप नहीं पाई क्योंकि मुद्दे को कवरेज नहीं मिली थी.
मीडिया के साथ छेड़छाड़ लोकतंत्र के साथ छेड़छाड़ है. इसलिए ये यू-टर्न शुक्र की बात है, गनीमत की बात है.
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