एस-एसटी एक्ट अत्याचार निरोधक कानून में कोर्ट के संशोधन से खफा दलित पूरे देश में सड़कों पर उतर आए. अलग-अलग राज्यों में दलितों और पुलिस के बीच टकराव हुआ और 12 लोगों की मौत हो गई.
सरकार दलितों का गुस्सा भांपने में पूरी तरह नाकाम रही. मीडिया को भी इसका अंदाजा नहीं लगा कि दलित अचानक देश भर में इतना बड़ा आंदोलन खड़ा कर देंगे. क्या मीडिया ने भारत बंद से पहले दलित आंदोलन के बारे में आ रही जानकारियों की अनदेखी की? क्या मीडिया पर दबाव बनाने की नीति की वजह से वह सूचनाओं से महरूम रही? क्या इसी वजह से दलित आंदोलन के दौरान हिंसा को दबाने में नाकाम रही और उसे खासी किरकिसी का सामना करना पड़ा?
बड़े अखबारों ने की अनदेखी
जिन राज्यों में दलितों का आंदोलन सबसे मुखर दिखा, वे हिंदी भाषी राज्य हैं और इनमें बीजेपी का राज है. इन्हीं राज्यों से हिंदी के बड़े अखबार निकलते हैं. ज्यादातर टीवी चैनलों को टीआरपी और वेबसाइट्स को पेज व्यूज हासिल होते हैं. इन अखबारों, चैनलों और वेबसाइट ने एससी-एसटी एक्ट अत्याचार निरोधक कानून पर कोर्ट के फैसले पर रिपोर्टिंग तेो की लेकिन इसके खिलाफ उनके असंतोष और गुस्से पर खबरें या रिपोर्टें लगभग न के बराबर छापी.चार बड़े हिंदी अखबारों में से दो ने 2 अप्रैल यानी दलितों के भारत बंद के आह्वान के बारे में पहले पेज पर सिंगल कॉलम खबर छापी. राजधानी दिल्ली से निकलने वाले तीन बड़े अखबारों में दलितों के भारत बंद की खबर नहीं थी. बड़े न्यूज चैनल और वेबसाइटों में भी इसकी चर्चा नहीं थी. साफ था कि हिंदी प्रदेशों के ताकतवर अखबार और दूसरे मीडिया आउटलेट्स इसे रिपोर्ट नहीं कर रहे थे.
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आमतौर पर अखबारों से इस तरह के मामलों में जानकारी से प्रशासन को अलर्ट मिल जाता है पर इस मामले में मीडिया बंद से पहले खामोश रहा. इससे पुलिस की तैयारी ही नहीं थी निपटने की. जैसे राजस्थान में खुफिया जानकारी दी भी गई पर वो भी सोशल मीडिया के हवाले से दी गई. जबकि पंजाब में काफी हद तक आंदोलन काबू में रहा क्योंकि वहां की सरकार तैयार थी.
पिछले कुछ वक्त से हिंदी प्रदेशों में बीजेपी सरकारों ने मिडिया पर दबाव बनाया है. मध्य प्रदेश से लेकर राजस्थान तक में पत्रकारों की गिरफ्तारियां हुईं और अखबारों को सरकार के खिलाफ ज्यादा मुखर होने से रोका गया है. क्या मीडिया पर दबाव बनाने की रणनीति अब सरकार को महंगी पड़ रही है? ज्यादातर हिंसा बीजेपी की सरकारों वाले राज्यों में हुई. दरअसल मीडिया में एससी-एसटी एक्ट पर दलितों के असंतोष और खदबदाहट की खबरें काफी कम आ रही थीं. जबकि रोहित वेमुला की खुदकुशी के मामले से लेकर उना में दलितों की सरेआम पिटाई और पूरे देश के अलग-अलग कोने से उन पर जुल्म की वारदातों की वजह से उनमें गुस्सा सुलग रहा था.
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बहरहाल, दलित अपने मुद्दों को लेकर संगठित हो रहे हैं. सोशल मीडिया ने उन्हें एक नई ताकत दी है. दलितों युवाओं, मध्यवर्गीय नौकरीपेशा दलितों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और आंदोलनकारियों के बीच सोशल मीडिया के जरिये एक जबरदस्त नेटवर्किंग तैयार हो चुकी है. इसी का नतीजा है कि मुख्यधारा के मीडिया के नजरअंदाज करने के बावजूद अपने मुद्दों को लेकर दलित संघर्ष के मैदान आ खड़े होते हैं.
मुख्यधारा का मीडिया अगर दलितों के असंतोष, उम्मीद और आकांक्षाओं के बारे में नहीं बता रहा है या इससे बचने की कोशिश कर रहा है तो दलितों की मुखरता कम हो जाएगी ऐसा नहीं है. सरकार असंतोष से मुंह फेरे रहेगी तो वह अपने जोखिम पर ऐसा करेगी. दलितों के इस आंदोलन का सबक यह है कि सरकार और मीडिया दोनों को हालात से मुंह छिपाने का खामियाजा भुगतना होगा. दलित अब मुख्यधारा के मीडिया के कवरेज का मोहताज नहीं है.
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