साल 2012 में बीजेपी के दिवंगत नेता अरुण जेटली (Arun Jaitley) ने कहा था, "रिटायर होने से पहले दिए जाने वाले फैसले रिटायर होने के बाद मिलने वाले पद के प्रभाव में दिए जाते हैं." उनके ये कहने के 10 साल बाद फिर से इसी की चर्चा हो रही है. फर्क ये है कि इस बार निशाने पर उनकी ही पार्टी बीजेपी की सरकार है. सुप्रीम कोर्ट से रिटायरमेंट के 40 दिन के अंदर ही राम मंदिर, नोटबंदी जैसे मामलों के फैसलों में शामिल जज जस्टिस शेख अब्दुल नजीर (Justice S Abdul Nazeer) को राज्यपाल बनाया गया है. इसके अलावा कुछ नेता जब रात में सोने गए तो वो विधायक या सासंद थे, लेकिन सुबह उठे तो पता चला कि गवर्नर बन गए हैं.
सवाल ये है कि ऐसे संवेदनशील लोगों की रिटायरमेंट और पॉलिटिकल पोस्टिंग के बीच क्या कोई कूलिंग ऑफ पीरियड यानी गैप नहीं होना चाहिए, होना चाहिए तो कितना होना चाहिए?
13 राज्यों को नए राज्यपाल मिले, कोई सांसद, कोई विधायक, कोई पूर्व जज
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने 12 फरवरी 2023 को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज अब्दुल नजीर को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया. इनके साथ ही 6 राज्यों को नए राज्यपाल मिले और 7 राज्यों के राज्यपाल बदले गए.
सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान, जस्टिस नजीर उन बेंचों के हिस्सा थे जिन्होंने भारत के हाल के इतिहास के कुछ सबसे महत्वपूर्ण मामलों में फैसला सुनाया था. इनमें अयोध्या-बाबरी मस्जिद विवाद, राइट टू प्राइवेसी, ट्रिपल तलाक और नोटबंदी जैसे केस शामिल हैं.
जस्टिस रंजन गोगोई
थोड़ा फ्लैशबैक में जाएंगे तो राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद पर दिए फैसले में शामिल एक और जज का नाम सामने आएगा. देश के 46वें चीफ जस्टिस रंजन गोगोई. गोगोई 17 नवंबर, 2019 को रिटायर हुए थे और मार्च 2020 में राज्यसभा के लिए नामित हुए. गोगोई पर भी सवाल उठा था, वजह कई थे. 2019 में अयोध्या विवाद पर फैसला देने वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच की अध्यक्षता रंजन गोगोई ने ही की थी. इसके अलावा राफेल सौदे से जुड़े केस में भी रंजन गोगोई की बेंच ने फैसला सुनाया था.
राफेल मामले में सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे लेकिन रंजन गोगोई की बेंच ने राफेल सौदे की जांच को लेकर दायर की गई सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया था. तब भी सवाल उठा था कि क्या जज रिटायरमेंट के तुरंत बाद राजनीति में आ सकते हैं?
राज्यसभा में रंजन गोगोई का परफॉर्मेंस
अब जब गोगोई राज्यसभा पहुंच गए हैं तो उन्हें लेकर एक अहम जानकारी भी आप तक पहुंचा देता हूं.
रंजन गोगोई के संसदीय ट्रैक रिकॉर्ड से पता चलता है कि उन्होंने तीन साल में अब तक राज्यसभा में कोई भी सवाल नहीं पूछा है. न कोई प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया, गोगोई की औसत अटेंडेंस सिर्फ 29 प्रतिशत रही है, जबकि बाकी सांसदों की औसत उपस्थिति 79 प्रतिशत है.
जस्टिस पी सदाशिवम
चलिए इस लिस्ट में एक और नाम के बारे में बताते हैं. जस्टिस पी सदाशिवम. देश के 40वें चीफ जस्टिस रह चुके पी सदाशिवम 26 अप्रैल 2014 को चीफ जस्टिस पद से रिटायर हुए, और 5 सितंबर, 2014 को उन्हें केरल का राज्यपाल बना दिया गया. सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने अमित शाह के खिलाफ फर्जी एनकाउंटर से जुड़े एक मामले को खारिज कर दिया था. जस्टिस सदाशिवम भी इस बेंच के सदस्य थे. तब कांग्रेस ने पूछा था कि 'क्या सदाशिवम को अमित शाह से जुड़े उनके फैसले के लिए इनाम दिया जा रहा है?'
अब आप कहेंगे कि क्या ऐसा पहली बार हो रहा है? जवाब है नहीं. सुप्रीम कोर्ट की पहली महिला जज रहीं एम फातिमा बीवी को भी रिटायरमेंट के 5 साल बाद 1997 में तमिलनाडु का राज्यपाल बनाया गया था. जस्टिस एम फातिमा बीबी को एचडी देवगौड़ा की सरकार ने 25 जनवरी 1997 को तमिलनाडु का राज्यपाल बनाया था, जिस पद पर वो तीन जुलाई 2001 तक रहीं.
और पीछे जाइए तो मई 1952 में, जस्टिस फजल अली जब सुप्रीम कोर्ट के जज के तौर पर काम कर ही रहे थे कि तब तत्कालीन पीएम नेहरू ने उन्हें उड़ीसा का राज्यपाल नियुक्त करने की घोषणा कर दी थी. लेकिन बड़ा सवाल है कि क्या इतने दशकों बाद भी कुछ नहीं बदला है?
ये तो ज्यूडिशियरी की बात हुई लेकिन अगर हाल के दिनों में देखें को कार्यपालिका से विधायिका में जाने वाले भी खूब मिल जाएंगे.
जब अधिकारी बने नेता
2022 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कानपुर के पुलिस कमिश्नर रहे असीम अरुण ने नौकरी से वीआरएस ले लिया था और तुरंत ही बीजेपी में शामिल हो गए. बीजेपी ने कन्नौज सदर सीट से चुनाव में उतारा और जीत भी गए.
यही नहीं ओडीशा से लेकर झारखंड तक और बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश करीब-करीब हर राज्य में ही ब्यूरोक्रेट्स का राजनीतिक गठजोड़ विधानसभा चुनाव के आसपास दिखता रहा है.
लेकिन खुद से पूछिए कि अगर एक इंसान शाम में पुलिस अधिकारी है और अगले दिन किसी राजनीतिक दल का गमछा गले में लटकाकर वोट मांग रहा हो तो क्या उसके द्वारा लिए एक्शन पर शक नहीं होगा?
हां, देश में किसी को चुनाव लड़ने या राजनीतिक पद लेने पर वैधानिक रोक नहीं है, लेकिन क्या ये नैतिक रूप से भी सही है?
रिटायरमेंट के बाद जजों के सरकारी पदों को स्वीकारना कैसा है?
इस सवाल पर पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया उदय उमेश ललित ने एक न्यूज चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा था,
“देश के चीफ जस्टिस के रूप पद संभालने के बाद मुझे लगता है कि राज्यसभा के नॉमिनेटेड सदस्य के रूप में काम करना सही विचार नहीं है. या किसी राज्य के गवर्नर के रूप में काम करना भी सही विचार नहीं है. ये मेरी व्यक्तिगत सोच है. मैं ये नहीं कह रहा कि बाकी लोग गलत हैं.”
जब साल 2020 में पूर्व चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया रंजन गोगोई राज्यसभा गए तो उनके सहयोगी रहे रिटायर्ड जस्टिस मदन बी लोकुर ने कहा,
"इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं है, हैरानी सिर्फ इस बात पर है कि इतनी जल्दी नॉमिनेशन मिल गया. ये न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और अखंडता को फिर से परिभाषित करता है. क्या आखिरी गढ़ गिर गया है?"
वहीं रिटायरमेंट के बाद सरकारी पद लेने पर जस्टिस आरएम लोढ़ा कहते हैं कि अपने "जजों को कोई पद स्वीकार करने के लिए दो साल का कूलिंग ऑफ पीरियड होना चाहिए."
जस्टिस कुरियन जोसेफ के मुताबिक, न्यायपालिका और कार्यपालिका को परस्पर प्रशंसक के बजाय वॉचडॉग बने रहना चाहिए.
अब रिटायरमेंट के तुरंत बाद जजों का सरकारी पदों पर बैठना, सुबह ब्यूरोक्रेट और शाम में नेता बन जाना, एक दिन में विधायक से गवर्नर बन जाना, सवालों के घेरे में है. इसलिए हम पूछ रहे हैं जनाब ऐसे कैसे?
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