कारगिल विजय दिवस के मौके पर हम आपको इस युद्ध की 6 ऐसी कहानियां सुना रहे हैं, जिनमें भारतीय सेना की जांबाजी की झलक दिखती है. इससे पहले हमने आपको बताया था कि कैसे कैप्टन सौरभ कालिया और कैप्टन विक्रम बत्रा ने अपनी जांबाजी से पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेड़ा था. वहीं आपको एयरफोर्स के ऑपरेशन सफेद सागर की कहानी भी बताई थी. फिर हमने आपको जांबाज कैप्टन मनोज पांडे की कहानी बताई. जिन्होंने पाकिस्तान के बंकर्स पर धावा बोला और चोटी पर तिरंगा फहराने का काम किया. आज हम आपको रिटायर्ड लांस नायक दीपचंद प्रख्यात की कहानी बताते हैं. यह इस सीरीज की आखिरी कहानी है.
26 जुलाई 1999 को भारतीय सेना ने पकिस्तान को कारगिल जंग में हरा कर जीत पाई थी. हर साल इस दिन कारगिल विजय दिवस मनाया जाता है. 8 मई 1999 को शुरू हुई कारगिल जंग 26 जुलाई 1999 को पाकिस्तान की हार के साथ खत्म हुई थी.
आप ने कारगिल युद्ध की कहानी तो दूसरों के जुबानी तो खूब सुनी होगी. लेकिन देश के लिए अपनी जान की बाजी लगाने वाले जाबांज हीरो की कहानी, खुद उनके मुंह से सुनने की बात ही कुछ और है. ऐसे ही एक हीरो हैं रिटायर्ड लांस नायक दीपचंद प्रख्यात. खुद ही सुनिए दीपचंद से कारगिल जंग की जीत की कहानी.
दीपचंद प्रख्यात, हरियाणा के हिसार के पबरा गांव में बड़े हुए. उनके दादा ने उन्हें 1947 और 1965 के युद्ध की की कहानियों के साथ पाला पोसा. दीपचंद बताते हैं कि उनके दादा उन्हें जंग की कहानियां सुनाया करते थें. "उन्होंने हमें बताया कि कैसे खाने का पैकेट आसमान से गिराया जाता था, लोग अपने घरों तक ही सीमित थे और कैसे वर्दी में जवान गश्त किया करते थे? कैसे हमारे जवान बॉर्डर की रक्षा करते थे?" दीपचंद कहते हैं जब वह बड़े हुए तो वह भी सेना की वर्दी पहनना चाहते थे.
दीपचंद ने 1889 लाइट रेजिमेंट में गनर के रूप में अपने करियर की शुरुआत की थी. जब जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी पैर पसार रहे थे, तब दीपचंद की पोस्टिंग वहां हुई थी. उनकी रेजीमेंट को जब युद्ध में जाने का आदेश हुआ तब वो गुलमर्ग में तैनात थे.
‘ब्रेड नहीं बुलेट चाहिए’
5 मई 1999 को कुछ चरवाहों ने बाल्टिक में पाकिस्तानी घुसपैठियों को देखने की सूचना दी थी. जब सेना को पता चला कि पाकिस्तानी घुसपैठिए एलओसी क्रॉस कर भारत के सरजमीन पर आ गए हैं, तो दीपचंद और उनके दल के जवानों ने 120 मिमी मोटर्स के हथियार के साथ चढ़ाई की. दीपचंद कहते हैं “हम अपने कंधे पर भारी हथियार और गोला बारूद ले कर ऊंची पहाड़ी पर चढ़ने लगे. कई जगह पहाड़ पर चढ़ना बहुत मुश्किल था क्योंकि पहाड़ की चोटी बहुत नुकीली थी.”
हमने राशन नहीं मांगा था, हमे गोला बारूद चाहिए था. जो जवान हमारे लिए खाना और राशन का इंतजाम करता था उनसे मैं और मेरे साथी सैनिक राशन के लिए नहीं बल्कि ज्यादा ज्यादा गोला-बारूद लाने के लिए कहते थे. युद्ध में, आपको भूख नहीं लगती. सैनिकों के लिए, देश पहले आता है. हमारे पास मोबाइल फोन नहीं था बाहर की दुनिया के साथ संपर्क का एकमात्र बिंदु विविध भारती था. मुझे याद है सेना के भाइयों के लिए उनके विशेष कार्यक्रम को सुनना.
‘जवान हमेशा जवान ही होता है’
सेना में कोई आराम नहीं कर सकता है. कारगिल युद्ध के दो साल बाद ही भारतीय संसद पर हमला हुआ था. दीपचंद की रेजिमेंट को राजस्थान में तैनात किया गया था. और उस वक्त एक गोला बारूद के स्टोर में एक बम गलती से विस्फोट हो गया.
उस धमाके में मैं अपने हाथ की उंगली गवां बैठा, फिर बाद में मेरे दोनों पैर को भी काटना पड़ा. 24 घंटे और 17 यूनिट खून चढ़ने के बाद मुझे होश आया था.
लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि मैं अपने ड्यूटी पर था. और मैं हमेशा यही चाहूंगा कि मैं अगले जन्म में भी सेना में ही जाऊं. और अपने देश के लिए कुछ करूं.
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